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आत्मा का अज्ञान सारे दुखों का मूल है यह बात सच है।
मै कौन हूँ यह जान लेने के लिये है कि मै देहमन नहीं हूं, मै आत्मा हूं।देहमन के रुप मे मै बहिर्मुखी हो जाता हूँ जिससे सारे दुखकष्ट उत्पन्न होते हैं।आत्मा के रुप मे मै स्व मे स्थित हो जाता हूँ, स्वस्थ हो जाता हूँ जो शांति और आनंद का स्वत:सिद्ध अनुभव है।
भेदभाव किसी के भी साथ नहीं है।आदमी खुद शांत और स्थिर नहीं है इससे भेदभाव लगता है।
रुकना होता है।जाहिर है सिवाय अपने आपमे रुकने के कोई ओर जगह नहीं रुकने की।'दूसरे'मे रुकना,रुकना नहीं।आदमी चाहे किसी भी,कितनी भी सुखद,सुविधाजनक जगह क्यों न गया हो वह जब तक वापस अपने घर नहीं लौटता,सहज,स्वस्थ नहीं हो पाता,भले ही अपना घर एक सामान्य झोंपडी ही क्यों न हो!फिर अपनी अंत:स्थित आत्मा मे वास करना कितना आरामदायक होता होगा यह विचारने की बात है।
यही कारण है आदमी खुद से अलग नहीं किया जाता।वह स्वयं अलग होता है।वृत्तियों का आवेग उसे खुद से दूर ले जाता है।उदाहरण के लिये क्रोध और भय की वृत्तियां,राग तथा द्वेष की वृत्तियां।ये वृत्तियां आवेगात्मक रुप मे उठती हैं।इनके साथ होकर जैसे क्रोध के साथ आवेगयुक्त होकर हम आक्रामक हो जाते हैं,भय के आवेग के साथ हम पलायनवादी हो जाते हैं।
सोचने की बात है जब क्रोध या भय की वृत्ति उठे तब क्या हम अचल,स्थिर रह सकते हैं,अपने आपमे रुके हुए रह सकते हैं?
जानना जरुरी है।हर कोई वृत्ति नहीं उठेगी।जो पूर्व संचित वृत्ति है वही उठेगी।यदि आदमी अनजान है तो क्रोधावेग के साथ वह आगे की ओर बढ जायेगा,भयावेग है तो उसके साथ पीछे चला जायेगा बचावमुद्रा मे एक कठपुतली की तरह जिसे पता ही नहीं कि क्या हो रहा है उसके साथ।
उसे जानना होगा कि जब क्रोध उठे तब रुका रहा जा सकता है,जब भय उठे तब भी रुका रहा जा सकता है।यह रुकना जरुरी है।रुकने के लिये अनेक ध्यान विधियां हैं।त्राटक भी है।त्राटक मे एक दूरी कायम करके चित्त ठहर जाता है।यह ठहराव ही रुकने का अभ्यास है अन्यथा मानसिक दृश्यों की दूरी के अनुभव के साथ जुडा चित्त निरंतर गति मे बना रहता है अर्थात अस्थिर रहता है।
यह घडी के पेंडुलम की तरह है निरंतर गतिशील,निरंतर अस्थिर।रुक जाय तो घडी बंद हो जाय।इसी तरह चित्त रुक जाय तो समय नहीं रहता।
चित्त की अस्थिरता ही संसार है।चित्त की स्थिरता ही ध्यान है,योग है,समय का,संसार का अभाव है।यही स्व मे,सत्य मे स्थिति है।
सत्य के लिये कहा है-
खोजो और खो दो।
मत खोजो और पा लो।
उस सत्य को अपने आपके रुप मे।वह सत्य ही सबके अनुभव के रुप मे है।अपने अनुभव को छोडकर हम सत्य को खोजते हैं तो वह पररुप मे मिलेगा।वह है नहीं।सत्य स्व रुप मे है।इसलिये अपनी तरफ लौटना चाहिए, अपने मे स्थिर होने का प्रयास करना चाहिए।सारा समाधान इसीमे है अन्यथा बडी समस्या है।
हर आदमी अपने आपमे रहना चाहता है शांत, स्वस्थ।
अशांत,अस्वस्थ रहना किसी को प्रिय नहीं।वृत्तियां संचित हैं तो वे तो उठेंगी ही।उनका काम यही है।साधक उनका उठना पसंद नहीं करता।वह जानता है वृत्तियों का आवेग स्व मे नहीं टिकने देगा।और संसारी को तो कुछ भी पता नहीं होता।वह तो हर वृत्ति के आवेग के साथ बह जाता है।उसे पता नहीं होता कि किस प्रकार उसे स्व से तोडकर बाहर की ओर खींचा जा रहा है।यदि उसे पता चल जाय तो वह कभी भी खुद से तोडा जाना और बाहर की ओर खींचा जाना पसंद नहीं करेगा।
उसे अभ्यास और वैराग्य पूर्वक साधना करनी होगी ताकि वह अपने मे ठहर सके,अपने घर मे रह सके।
गीता ने रागद्वेष के वश मे होने को बाधक बताया है।यदि हम अभ्यास और वैराग्य का समर्थन करेंगे तो हम अपने आपमे रहेंगे,यदि रागद्वेष के वश मे होते हैं तो हम 'दूसरे'मे होंगे।करीब करीब सारा
जगत 'दूसरों'मे स्थित है,खुद से टूटा हुआ।
और वह खुद से तोडा भी नहीं जाना चाहता।यदि वह अभ्यास और वैराग्य की जगह रागद्वेष का समर्थन करता है त़ो फिर स्थिरता के लिये वह दूसरों की दया पर ही निर्भर है।यही कारण है जो समस्या का स्थायी समाधान नहीं मिलता।यदि वह रागद्वेष को छोडकर अभ्यास तथा वैराग्य द्वारा अपने आपमे रुकने मे कामयाब हो जाता है तो उसमे बडी सामर्थ्य आ जाती है-प्रज्ञापूर्ण सामर्थ्य।सिर्फ ऐसे ही नहीं।वह वैश्विक शक्ति से जुड जाता है।
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