Thursday, February 28, 2019

सूर्यनारायण

सूर्यनारायण विशेष
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सूर्य ग्रह - कैसे हुई उत्पत्ति क्या है कथा
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सूर्यदेव एक ऐसे देवता जिनके साक्षात दर्शन हमें प्रतिदिन नसीब होते हैं। जिनके प्रताप से ही हम समय की खोज कर सके हैं। जिन्हें समस्त ग्रहों का राजा माना जाता है। जिन्हें आदित्य, भास्कर, मार्तण्ड आदि अनेक नामों से जाना जाता है। विज्ञान के अनुसार सूर्य भले ही एक ग्रह मात्र हों जो स्थिर रहते हैं और पृथ्वी के घूमने से वे घूमते दिखाई देते हों लेकिन पौराणिक कहानियों के अनुसार वे सात श्वेताश्व रथ पर सवार रहते हैं और हमेशा गतिमान। इतना ही नहीं प्रकाश स्वरूप भगवान सूर्य के आदित्य या मार्तण्ड कहे जाने के पिछे भी एक कहानी है? आइये जानते हैं सूर्य देव की जन्मकथा।*

सूर्य देव जन्म की पौराणिक कथा
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वैसे तो माना यह जाता है कि सृष्टि आरंभ में अंधेरा ही अंधेरा था, लेकिन भगवान श्री विष्णु के नाभिकमल से जन्मे भगवान ब्रह्मा ने अपने मुखारबिंद से सबसे पहले जो शब्द उच्चरित किया वह था ॐ मान्यता है कि ॐ के उच्चारण के साथ ही एक तेज भी पैदा हुआ जिसने अंधकार को चीरकर रोशनी फैलाई। कहते हैं ॐ सूर्य देव का सूक्ष्म प्रकाश स्वरूप था। इसके पश्चात ब्रह्मा के चार मुखों से वेदों की उत्पत्ति हुई जो इस तेज रूपी ॐ स्वरूप में जा मिले। फिर वेद स्वरूप यह सूर्य ही जगत की उत्पत्ति, पालन व संहार के कारण बने। मान्यता तो यह भी है कि ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर ही सूर्यदेव ने अपने महातेज को समेटा व स्वल्प तेज को धारण कर लिया।

कैसे बने आदित्य?
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सूर्य देव के जन्म की यह कथा सबसे अधिक प्रचलित है। इसके अनुसार ब्रह्मा जी के पुत्र हुए मरिचि और मरिचि के पुत्र हुए महर्षि कश्यप। इनका विवाह हुआ प्रजापति दक्ष की कन्या दीति-अदिति से हुआ। दीति से दैत्य पैदा हुए और अदिति देवमाता बनी। एक बार क्या हुआ कि दैत्य-दानवों ने देवताओं को भयंकर युद्ध में हरा दिया। देवताओं पर भारी संकट आन पड़ा। देवताओं की हार से देवमाता अदिति बहुत दुखी हुई। उन्होंने सूर्य देव की उपासना करने लगीं। उनकी तपस्या से सूर्यदेव प्रसन्न हुए और पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय पश्चात उन्हें गर्भधारण हुआ। गर्भ धारण करने के पश्चात भी अदिति कठोर उपवास रखती जिस कारण उनका स्वास्थ्य काफी दुर्बल रहने लगा। महर्षि कश्यप इससे बहुत चिंतित हुए और उन्हें समझाने का प्रयास किया कि संतान के लिये उनका ऐसा करना ठीक नहीं है। लेकिन अदिति ने उन्हें समझाया कि हमारी संतान को कुछ नहीं होगा ये स्वयं सूर्य स्वरूप हैं। समय आने पर उनके गर्भ से तेजस्वी बालक ने जन्म लिया जो देवताओं के नायक बने व असुरों का संहार कर देवताओं की रक्षा की।अदिति के गर्भ से जन्म लेने के कारण इन्हें आदित्य कहा जाता है। वहीं कुछ कथाओं में यह भी आता है कि अदिति ने सूर्यदेव के वरदान से हिरण्यमय अंड को जन्म दिया जोकि तेज के कारण मार्तंड कहलाया। सूर्य देव की विस्तृत कथा भविष्य, मत्स्य, पद्म, ब्रह्म, मार्केंडेय, साम्ब आदि पुराणों में मिलती है। प्रात:काल सूर्योदय के समय सूर्यदेव की उपासना अवश्य करनी चाहिये। इससे सूर्यदेव प्रसन्न होते हैं व जातक पर कृपा बनी रहती है।*

सूर्य देव के बारह नाम
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सूर्यपृथ्वी पर हर प्राणी की जीवनी शक्ति है। रविवार सूर्यदेवता का दिन माना जाता है। इस दिन सूर्य भगवान की पूजा करने से प्रतिष्ठा और यश में वृद्धि होती है और शत्रु परास्त होते हैं। सूर्य की पूजा एवं वंदना नित्य कर्म में आती है। शास्त्रों में इसका बहुत महत्व बताया गया है। दूध देने वाली एक लाख गायों के दान का जो फल होता है, उससे भी बढ़कर फल एक दिन की सूर्य पूजा से होता है। प्रतिक्षण इस भूमंडल पर सूर्य ऊर्जा का स्राव होता रहता है। इस सृष्टि में जितने भी जीव हैं, सभी को सूर्य ऊर्जा मिलती है। अत: संपूर्ण प्रकृति भगवान सूर्य से इस प्रकार प्रार्थना करती है।

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर।

दिवाकर नमस्तुभ्यं, प्रभाकर नमोस्तुते।।

सप्ताश्वरथमारूढं प्रचंडं कश्यपात्मजम्।

श्वेतपद्मधरं देव तं सूर्यप्रणाम्यहम्।

सूर्य पूजा की तरह सूर्य के नमस्कारों का भी महत्व है। सूर्य के बारह नामों द्वारा होने वाले बारह नमस्कारों की विधि यहां दी जा रही है। प्रणामों में साष्टांग प्रणाम का अधिक महत्व माना गया है। यह अधिक उपयोगी है। इससे शारीरिक व्यायाम भी हो जाता है। प्रणाम या नमस्कार करने की सही विधि यह है कि भगवान सूर्य के एक नाम का उच्चारण कर दंडवत करें। फिर उठकर दूसरे नाम का उच्चारण कर फिर दंडवत करें। इस तरह यह बारह नामों के लिए करें।

👇संकल्प मंत्र:👇
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ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: अद्य अहं श्री परमात्मप्रीत्यर्थमादिव्यस्य द्वादश नमस्काराख्यं कर्म

संकल्प के बाद अंजलि में या ताम्रपत्र में लाल चंदन, अक्षत व फूल डालकर हाथों को हृदय के पास लाकर निम्नलिखित मंत्रों से सूर्य को अर्घ्य दें-

एहि सूर्य सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते।।

अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्ध्यं दिवाकर।

इसके बाद सूर्यमंडल में स्थित भगवान नारायण का ध्यान करें।

ध्येय: सदा सवितृमंडलमध्यवर्त

नारायण: सरसिजासनसंनिविष्ट:।।

केयूरवान मकरकुंडलवान किरीटी

हारी हिरण्मयवपुर्धृतशंक चक्र:।।

फिर निम्नलिखित नाम मंत्रों से सूर्य को साष्टांग प्रणाम करें:👇

ॐ मित्राय नम:,
ॐ रवये नम:,
ॐ सूर्याय नम:,
ॐ भानवे नम:,
ॐ खगाय नम:,
ॐ पूष्णे नम:,
ॐ हिरण्यगर्भाय नम:,
ॐ मरीचये नम:,
ॐ आदित्याय नम:,
ॐ सवित्रे नम:,
ॐ अर्काय नम:,
ॐ भास्कराय नम:

इसके बाद सूर्य के सारथि अरुण को अर्घ्य दें और निम्न मंत्र का पाठ करें।.₹👇

सप्ताश्व: सप्तरज्जुश्च अरुणो मे प्रसीद

ॐ कर्मसाक्षिणे अरुणाय नम:।।

आदित्यस्य नमस्कार ये कुर्वन्ति दिने-दिने।

जन्मांतर सहस्रेषु दरिद्र्यं नोपजायते।

अब सूर्य अर्घ्य का जल मस्तक पर लगाएं और चरणामृत पी लें। सूर्य देव को रोज जल चढ़ाना चाहिए पर रविवार के दिन सूर्य देव की पूजा का विशेष महत्व है। जिन व्यक्तियों की कुंडली में सूर्य की महादशा या सूर्य की अंतरदशा चल रही हो, उन्हें भगवान सूर्य की पूजा करनी चाहिए।📚🖍🙏🙌
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यजुर्वेद-संहिता

!!!---: यजुर्वेद-संहिता :---!!! ========================= 

"यजुस" के नाम पर ही वेद का नाम यजुस+वेद(=यजुर्वेद) शब्दों की संधि से बना है। 

"यजुस्" का अर्थ समर्पण से होता है । इसका मुख्य अर्थ हैः--- 

(1.) "यजुर्यजतेः " (निरुक्तः-7.12) अर्थात् यज्ञ से सम्बद्ध मन्त्रों को "यजुष्" कहते हैं । 

(2.) "इज्यतेनेनेति यजुः ।" अर्थात् जिन मन्त्रों से यज्ञ किया जाता है, उन्हें यजुष् कहते हैं । पदार्थ (जैसे ईंधन, घी, आदि), कर्म (सेवा, तर्पण ),योग, इंद्रिय निग्रह इत्यादि के हवन को यजन यानि समर्पण की क्रिया कहा गया है ।

 यजुर्वेद का यज्ञ के कर्मकाण्ड से साक्षात् सम्बन्ध है, अतः इसे "अध्वर्युवेद" भी कहा जाता है । यज्ञ में अध्वर्यु नामक ऋत्विज् यजुर्वेद का प्रतिनिधित्व करता है और वही यज्ञ का नेतृत्व करता है । इसीलिए सायण ने कहा है कि वह यज्ञ के स्वरूप का निष्पादक है । 

(3.) अनियताक्षरावसानो यजुः । अर्थात् जिन मन्त्रों में पद्यों के तुल्य अक्षर-संख्या निर्धारित नहीं होती है, वे यजुष् हैं ।

 (4.) शेषे यजुःशब्दः । (पूर्वमीमांसा---2.1.37) अर्थात् पद्यबन्ध और गीति से रहित मन्त्रात्मक रचना को यजुष् कहते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि सभी गद्यात्मक मन्त्र-रचना यजुः की कोटि में आती है ।

 (5.) एकप्रयोजनं साकांक्षं पदजातमेकं यजुः । अर्थात् एक उद्देश्य से कहे हुए साकांक्ष एक पज-समूह को एक यजुः कहेंगे । इसका अभिप्राय यह है कि एक सार्थक वाक्य को यजुः की एक इकाई माना जाता है ।

 मुख्यवेद-- यजुर्वेद
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 तैत्तिरीय-संहिता के भाष्य की भूमिका में सायण ने यजुर्वेद का महत्त्व बताते हुए कहा है कि यजुर्वेद भित्ति (दीवार) है और अन्य ऋग्वेद एवं सामवेद चित्र है । इसलिए यजुर्वेद सबसे मुख्य है । यज्ञ को आधार बनाकर ही ऋचाओं का पाठ और सामगान होता है ।

 "भित्तिस्थानीयो यजुर्वेदः, चित्रस्थानावितरौ । तस्मात् कर्मसु यजुर्वेदस्यैव प्राधान्यम् ।" (तै.सं. भू.)

 यजुर्वेद का दार्शनिक रूपः---==================

 ब्राह्मण-ग्रन्थों में यजुर्वेद का दार्शनिक रूप प्रस्तुत किया गया है । यजुर्वेद विष्णु का स्वरूप है, 

अर्थात् इसमें विष्णु (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन है ।

 "यजूंषि विष्णुः।" शतपथ-ब्राह्मण---4.6.7.3) ) 

यजुर्वेद प्राणतत्त्व और मनस्तत्त्व का वर्णन करता है , अतः वह प्राण है, मन हैः---"प्राणो वै यजुः।" (शतपथ-ब्राह्मण--14.8.14.2) । "मनो यजुः।" (शतपथ-ब्राह्मण---14.4.3.12) 

यजुर्वेद में वायु और अन्तरिक्ष का वर्णन है, अतः वह अन्तरिक्ष का प्रतिनिधि है ।

"अन्तरिक्षलोको यजुर्वेदः ।" (षड्विंश-ब्राह्मण--1.5 )

 यजुर्वेद तेजस्विता का उपदेश देता है ,
 अतः वह महः (तेज) है । "यजुर्वेदः एव महः ।" (गोपथ-ब्राह्मण--5.15) ।

यजुर्वेद क्षात्रधर्म और कर्मठता की शिक्षा देता है. अतः वह क्षत्रियों का वेद है । 

"यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् ।" (तैत्तिरीय-ब्राह्मण--3.12.9.2) इस वेद में अधिकांशतः यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं, अतःयह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है। 

यजुर्वेद की संहिताएं लगभग अंतिम रची गई संहिताएं थीं, जो ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दि से प्रथम सहस्राब्दी के आरंभिक सदियों में लिखी गईं थी। इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है।

 यजुर्वेद संहिता में वैदिक काल के धर्म के कर्मकाण्ड आयोजन हेतु यज्ञ करने के लिये मंत्रों का संग्रह है।

 इनमे कर्मकाण्ड के कई यज्ञों का विवरण हैः-- 

अग्निहोत्र अश्वमेध वाजपेय सोमयज्ञ राजसूय अग्निचयन ऋग्वेद के लगभग ६६३ मंत्र यथावत् यजुर्वेद में मिलते हैं। यजुर्वेद वेद का एक ऐसा प्रभाग है, जो आज भी जन-जीवन में अपना स्थान किसी न किसी रूप में बनाये हुऐ है संस्कारों एवं यज्ञीय कर्मकाण्डों के अधिकांश मन्त्र यजुर्वेद के ही हैं। 

राष्ट्रोत्थान हेतु प्रार्थना ================================ ओ३म् आ ब्रह्मन् ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढ़ाऽनड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ॥ -- यजुर्वेद २२, मन्त्र २२ अर्थ- -------- ब्रह्मन् ! स्वराष्ट्र में हों, द्विज ब्रह्म तेजधारी । क्षत्रिय महारथी हों, अरिदल विनाशकारी ॥ होवें दुधारू गौएँ, पशु अश्व आशुवाही । आधार राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही ॥ बलवान सभ्य योद्धा, यजमान पुत्र होवें । इच्छानुसार वर्षें, पर्जन्य ताप धोवें ॥ फल-फूल से लदी हों, औषध अमोघ सारी । हों योग-क्षेमकारी, स्वाधीनता हमारी ॥

 संप्रदाय 
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 यजुर्वेदाध्यायी परम्परा में दो सम्प्रदाय- आदित्य सम्प्रदाय और ब्रह्म सम्प्रदाय प्रमुख हैं। 

शुक्लयजुर्वेद आदित्य सम्प्रदाय से सम्बन्धित है और कृष्णयजुर्वेद ब्रह्म-सम्प्रदाय से सम्बन्धित है ।

 आदित्य सम्प्रदाय से सम्बन्धित शुक्लयजुर्वेद का आख्यान याज्ञवल्क्य ऋषि ने किया हैः--- 
आदित्यानीमानि शुक्लानि यजूंषि । वाजसनेयेन याज्ञवल्क्येन आख्यायन्ते । (शतपथ ब्राह्मण---14.9.4.33) 

संहिताएँ 
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वर्तमान में कृष्ण यजुर्वेद की शाखा में ४ संहिताएँ -तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध हैं। 
शुक्ल यजुर्वेद की शाखाओं में दो प्रधान संहिताएँ- 
१. मध्यदिन संहिता और २. काण्व संहिता ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। आजकल प्रायः उपलब्ध होने वाला यजुर्वेद मध्यदिन संहिता ही है। इसमें ४० अध्याय, १९७५ कण्डिकाएँ (एक कण्डिका कई भागों में यागादि अनुष्ठान कर्मों में प्रयुक्त होनें से कई मन्त्रों वाली होती है।) तथा ३९८८ मन्त्र हैं। विश्वविख्यात गायत्री मंत्र (३६.३) तथा महामृत्युञ्जय मन्त्र (३.६०) इसमें भी है।

 शाखाएँ 
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यजुर्वेद मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त हैः--(1.) शुक्लयजुर्वेद (2.) कृष्णयजुर्वेद । 

शुक्लयजुर्वेद को ही वाजयनेयि-संहिता और माध्यन्दिन-संहिता भी कहते हैं । याज्ञवल्क्य इसके ऋषि हैं । वे मिथिला के निवासी थे । इनके पिता का नाम वाजसनि होने के कारण याज्ञवल्क्य को वाजसनेय कहते थे ।
 वाजसनेय से सम्बद्ध संहिता वाजसनेयि-संहिता कहलाए। 
याज्ञवल्क्य ने मध्याह्न के आदित्य (सूर्य) से इस वेद को प्राप्त किया था, अतः इसे माध्यन्दिन-संहिता भी कहते हैं। 
शुक्ल और कृष्ण भेदों का आधार यह है कि शुक्ल यजुर्वेद में यज्ञों से सम्बद्ध विशुद्ध मन्त्रात्मक भाग है । इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग नहीं है । ये मन्त्र इसी रूप में यज्ञों में पढे जाते हैं । विशुद्ध और परिष्कृत होने के कारण इसे शुक्ल (स्वच्छ, अमिश्रित) यजुर्वेद कहा जाता है ।

 कृष्ण य़जुर्वेद का सम्बन्ध ब्रह्म-सम्प्रदाय से है । इसमें मन्त्रों के साथ ही व्याख्या और विनियोग वाला अंश भी मिश्रित है, अतः इसे कृष्ण (अस्वच्छ, मिश्रित) कहते हैं । इसी आधार पर शुक्ल यजुर्वेद के पारायण कर्त्ता ब्राह्मणों को शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद के पारायण कर्त्ता ब्राह्मणों को मिश्र नाम दिया गया है । महर्षि पतञ्जलि ने यजुर्वेद की 101 शाखाओँ का उल्लेख किया है । एकशतमध्वर्युशाखाः । (महाभाष्य-पस्पशाह्निक)

 षड्गुरुशिष्य की सर्वानुक्रमनिका की वृत्ति में तथा कूर्मपुराण में भी यजुर्वेद की 100 शाखाओं का उल्लेख मिलता है । परन्तु चरणव्यूह में यजुर्वेद 86 शाखाओं का उल्लेख मिलता है । इसका विवरण भी वहाँ दिया हुआ हैः---(1.) चरकशाखा--12, (2.) मैत्रायणीय--7, (3.) वाजयनेय---17, (4.) तैत्तिरीय---6, (5.) कठ---44 इस समय यजुर्वेद की केवल 6 शाखाएँ ही उपलब्ध होती है, और यही नाम भी उपलब्ध है । अन्य शाखाएँ लुप्त हो गईं या आक्रान्ताओं ने नष्ट कर दिया । (1) शुक्लयजुर्वेदः---वाजसनेयि (माध्यन्दिन) और कण्व-शाखा (2.) कृष्णयजुर्वेदः-- काठक , कपिष्ठल, मैत्रायणी , तैत्तिरीय ।

 शुक्लयजुर्वेदः-- 
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सम्प्रति शुक्लयजुर्वेद की दो शाखाएँ ही उपलब्ध होती हैः-- (1.) माध्यन्दिन या वाजसनेयि-संहिता--- 
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इसमें 40 अध्याय और 1975 मन्त्र हैं । इसमें कुल 2,88,000 शब्द हैं । इसका अन्तिम अध्याय 40वाँ अध्याय ईशावास्योपनिषद् कहलाता है । इस शाखा का प्रचार सम्प्रति उत्तर भारत में है । 

(2.) काण्व-संंहिता --- 
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इसमें भी 40 अध्याय हैं किन्तु मन्त्र अधिक है---2086 अर्थात् वाजसनेयि-शाखा से इसमें 111 मन्त्र अधिक है । इसमें अध्याय 40, अनुवाक 328 और मन्त्र 2086 है । दोनों शाखाओं के मन्त्रों के क्रम में भी अन्तर है । इस शाखा के ऋषि महर्षि कण्व है, जो ऋग्वेद के कई सूक्तों के ऋषि भी हैं, इसका वंश भी उपलब्ध होता है । इनके पिता बोधायन माने जाते हैं और गुरु याज्ञवल्क्य थे । सम्प्रति इस शाखा का प्रचार महाराष्ट्र में है । किन्तु प्राचीन काल में इसका प्रचार उत्तर भारत में भी था । कण्व ऋषि का सम्बन्ध उत्तर भारत से ही था । साम्राज्ञी शकुन्तला के ये धर्मपिता थे । इनका आश्रम मालिनी नदी (सम्प्रति बिजनौर जिले के कोटद्वार के पास मालन नदी) के तट पर था । कहा जाता है कि वेद व्यास के शिष्य वैशंपायन के २७ शिष्य थे, इनमें सबसे प्रतिभाशाली थे याज्ञवल्क्य। इन्होंने एक बार यज्ञ में अपने साथियो की अज्ञानता से क्षुब्ध हो गए। इस विवाद के देखकर वैशपायन ने याज्ञवल्क्य से अपनी सिखाई हुई विद्या वापस मांगी। इस पर क्रुद्ध याज्ञवल्क्य ने यजुर्वेद का वमन कर दिया - ज्ञान के कण कृष्ण वर्ण के रक्त से सने हुए थे। इससे कृष्ण यजुर्वेद का जन्म हुआ। यह देखकर दूसरे शिष्यों ने तीतर बनकर उन दानों को चुग लिया और इससे तैत्तरीय संहिता का जन्म हुआ। यजुर्वेद के भाष्यकारों में उवट (१०४० ईस्वी) और महीधर (१५८८) के भाष्य उल्लेखनीय हैं। इनके भाष्य यज्ञीय कर्मों से संबंध दर्शाते हैं। शृंगेरी के शंकराचार्यों में भी यजुर्वेद भाष्यों की विद्वत्ता की परंपरा रही है।

 शुक्लयजुर्वेद की विषयवस्तु ================================== यजुर्वेद कर्मकाण्ड का वेद है । इसमें विभिन्न यज्ञों की विधियाँ और उनमें पाठ्य मन्त्रों का संकलन है । यज्ञ करने वाले ऋत्विज् को अध्वर्यु कहते हैं । ऋग्वेद में अध्वर्यु के विषय में कहा गया है कि वह यज्ञ का संयोजक और निष्पादक होता है , अतः वह यज्ञ का नेता होता हैः-- "यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उ त्वः ।" (ऋग्वेदः--10.71.11) यास्क ने अध्वर्यु की व्याख्या की हैः---"अध्वरं युनक्ति, अध्वरस्य नेता।" (निरुक्तः--1.3) अर्थात् यज्ञ का संयोजक और यज्ञ का नेता । दोनों शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद की विषय-वस्तु प्रायः समान ही है । यहाँ वाजसनेयि-संहिता का प्रतिपाद्य प्रस्तुत हैः--- अध्याय एक और दो---इसमें दर्श (अमावास्या के बाद वाली प्रतिपदा को दर्श कहा जाता है) और पौर्णमास (पूर्णिमा) से सम्बद्ध यागों का वर्णन है । अध्याय तीन---इसमें अग्निहोत्र और चातुर्मास्य इष्टियों का वर्णन है । इसका अभिप्राय है--चार-चार मास पर ऋतु-परिवर्तन होने पर किए जाने वाले विशेष यज्ञ । अध्याय--4 से 8 तक---इनमें अग्निष्टोम और सोमयाग का वर्णन है । 

अग्निष्टोम ज्योतिष्टोम का परिष्कृत रूप है । यह स्वर्ग की कामना से किया जाता है । 

इसमें 16 पुरोहित होते हैं और यह पाँच दिन चलता है । सोमयाग में सोमरस में दूध मिलाकर आहुति दी जाती है । यह याग प्रातः मध्याह्न और सायं तीन बार होता है, अतः इसे प्रातःसवन, मध्याह्न सवन और सायं सवन कहते हैं ।

 अध्याय-9 और 10---इनमें वाजपेय और राजसूय यागों का वर्णन है ।

 अध्याय--11 से 18 तक--- इनमें अग्निचयन और विविध प्रकार की वेदियों के निर्माण से सम्बद्ध मन्त्र हैं । वेदी की रचना 10,800 ईंटों से होती थी और इनकी आकृति यज्ञ के अनुसार विभिन्न प्रकार की होती थी। कुछ वेदियाँ श्येन (गरुड) आदि पक्षियों के आकार की होती थी ।

 अध्याय--19 से 21 तक---इनमें सौत्रामणि याग का विधान है । राज्य-च्युत राज इस याग को राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए करता था । 

अध्याय--22 से 25 तक---इनमें अश्वमेध-यज्ञ का विस्तृत वर्णन है । जन्तुविज्ञान की दृष्टि से ये अध्याय अतिमहत्त्वपूर्ण है । इनमें सैंकडों पक्षियों का उल्लेख हुआ है ।

 अध्याय--26 से 29 तक---ये खिल अध्याय हैं ।

 अध्याय-30--इसमें पुरुषमेध का वर्णन है । इसमें पूरे समाज को एक पुरुष माना गया है । 

इसमें 184 व्यवसायों का उल्लेख हुआ है ।
 समाजशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से यह अध्याय अति महत्त्वपूर्ण है । 

अध्याय 31--इसे पुरुष सूक्य और विष्णु सूक्त भी कहते हैं । इसमें विराट् पुरुष के स्वरूप का वर्णन है ।

 अध्याय 32---इसमें विराट् पुरुष के दार्शनिक और आध्यात्मिक स्वरूप का वर्णन है । 

अध्याय 33-- इसमें सर्वमेध सूक्त है ।

 अध्याय 34---इसके प्रारम्भ के 6 मन्त्र शिवसंकल्पसूक्त है । मनोविज्ञान की दृष्टि से ये महत्त्वपूर्ण हैं । 

अध्याय 35--इसमें पितृमेध का वर्णन है । 

अध्याय 36 से 38 तक---इनमें प्रवर्ग्यनामक यज्ञ का वर्णन है । 

अद्याय 39--इसमें अन्त्येष्टि-संस्कार से सम्बद्ध मन्त्र है । इसे प्रायश्चित्ताध्याय भी कहते हैं । 

अध्याय 40---

इसके मन्त्र ईशावास्योपनिषद् में भी आए हैं । इस उपनिषद् का प्रथम स्थान प्राप्त है । इसमे अध्यात्म और दर्शन का अपूर्व वर्णन है । इन यागों , इष्टियों का उद्देश्य विशेष रूप है । मोक्ष की प्राप्ति के लिए इन्हें किया जाता था । कुछ यज्ञ राजा की श्रीवृद्धि के लिए किया जाता था । कुछ यज्ञ ब्राह्मणों की ओजस्विता, तेजस्विता एवं मेधा-वृद्धि के लिए किया जाता था । कुछ यज्ञ सार्वजनिक उन्नति के लिए किया जाता था । 

---: कृष्णयजुर्वेद :---
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चरण व्यूह के अनुसार यजुर्वेद की 86 शाऱाएँ हैं, जिनमें से शुक्ल यजुर्वेद की 17 और शेष 69 शाखाएँ कृष्ण यजुर्वेद की हैं । कृष्ण यजुर्वेद में भी तैत्तिरीय शाखा के दो मुख्य भेद हैः--औख्य और खाण्डिकेय । खाण्डिकेय के पाँच भेद हैं--आपस्तम्ब, बोधायन, सत्याषाढ, हिरण्यकेशि और कात्यायन । मैत्रायणी के सात भेद हैं और कठ (चरक) के 12 भेद हैं । कठ के 44 उपग्रन्थ भी हैं । सम्प्रति कृष्णयजुर्वेद की केवल चार ही शाखाएँ उपलब्ध हैंः---(1.) तैत्तिरीय, (2.) मैत्रायणी, (3.) कठ, (4.) कपिष्ठल । 

तैत्तिरीय-संहिता
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यह कृष्णयजुर्वेद की सर्वप्रमुख संहिता है । इसमें 7 काण्ड, 44 प्रपाठक और 631 अनुवाक है । अनुवाकों में भी उपभेद (खण्ड) पाए जाते हैं । जैसेः--- देवा वसव्या अग्ने सोम सूर्य ।" (तै.सं. का.2,प्र.4,अनु.8 खण्ड-1) यही एक संहिता है, जिसके ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, शुल्बसूत्र और धर्मसूत्र सभी ग्रन्थ प्राप्त होते हैं । यह संहिता परिपूर्ण व सर्वांगपूर्ण है । इसी संहिता के बोधायन और आपस्तम्ब के श्रौत-गृह्य-शुल्ब-धर्मसूत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं । इसमें भी शुक्ल यजुर्वेद के तुल्य विविध यागों का वर्णन है । 

इसके काण्डों के अनुसार वर्ण्य-विषयः-- 
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(1.) काण्ड--1--दर्शमूर्णमास, अग्निष्टोम, राजसूय । (2.) काण्ड--2--पशुविधान, इष्टि विधान । (3.) काण्ड 3--पवमान ग्रह आदि, वैकृत विधि, इ,्टिहोम । (4.) काण्ड 4---अग्निचिति, देवयजनग्रह, चितिवर्णन, वसोर्धारा संस्कार । (5.) काण्ड--5--उख्य अग्नि, चितिनिरूपण, इष्टकात्रय, वायव्य पशु आदि । (6.) काण्ड--6--सोममन्त्रब्राह्मण । (7.) काण्ड --7--अश्वमेध, षड्रात्र आदि सत्रकर्म । इस संहिता का विशेष, प्रचार महाराष्ट्र, आन्ध्र व अन्य द. भारत में है । आचार्य सायण इसी शाखा के ब्राह्मण थे । इसलिए उन्होंने सर्वप्रथण इसी शाखा का भाष्य किया था । सायण से पूर्ववर्ती भट्ट भास्कर मिश्र (11 वीं शती) ने भी "ज्ञानयज्ञ" नामक भाष्य इस पर किया था । डॉ. कीथ ने इसका आंग्लभाषा में अनुवाद किया था । 

मैत्रायणी संहिता
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 मैत्रायणीय शाखा कठ (चरक) की 12 शाखाओं में से एक है । मैत्रायणी संहिता की सात शाखाओं का उल्लेख चरण व्यूह में मिलता है । ये शाखाएँ हैं-- (1.) मानव, (2.) दुन्दुभ, (3.) ऐकेय, (4.) वाराह, (5.) हारिद्रवेय, (6.) श्याम, (7.) श्यामायनीय । इस शाखा के प्रवर्तक मैत्रायण या मैत्रेय हैः---अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि दिवोदासस्य सन्ततिम् । दिवोदासस्य दायादो ब्रह्मर्षिर्मित्रयुर्नृप । मैत्रायणी ततः शाखा मैत्रेयस्तु ततः स्मृतः ।। (हरिवंश पुराण--अ. 34) इस संहिता में मन्त्र और व्याख्या भाग (ब्राह्मण या गद्यभाग) मिश्रित है । इसमें 4 काण्ड , 54 प्रपाठक और 3144 मन्त्र हैं । इनमें से 1701 मन्त्र ऋग्वेद से उद्धृत है । वर्ण्य-वस्तु की दृष्टि से अन्य यजुर्वेद की शाखाओं के तुल्य इसमें भी विभिन्न यागों का वर्णन है । (1.) काण्ड--1---दर्शपूर्णमास, अध्वर, अग्निहोत्र, चातुर्मास्य और वाजपेय याग । (2.) काण्ड--2---काम्य इष्टियाँ, राजसूय और अग्निचिति । (3.) काण्ड--3--अग्निचिति, अध्वर आदि की विधि, सौत्रामणी और अश्वमेध याग । (4.) काण्ड---4--- यह खिल पाठ है । इसमें राजसूय, अध्वर, प्रवर्ग्य और याज्यानुवाक । 

काठक संहिता 
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इसे कठ-संहिता भी कहा जाता है । यह कठ-शाखा की संहिता है । यह चरकों की शाखा मानी जाती है । इसमें पाँच खण्ड हैः--- (1.) इठिमिका, (2.) मध्यमिका, (3.) ओरामिका, (4.) याज्यानुवाक्या, (5.) अश्वमेधादि अनुवचन । इसके उपखण्डों को स्थानक और अनुवचन कहा जाता है । इसका वर्णन इस प्रकार हैः--- खण्ड-1--इठिमिका, स्थानक 1 से 18, मन्त्र 1 से 1538 खण्ड 2---मध्यमिका, स्थानक 19 से 30, मन्त्र 1539 से 2053 खण्ड 3--ओरिमिका] खण्ड 4--याज्यानुवाक्या] स्थानक 31 से 40, मन्त्र 2054 से 2799 खण्ड 5--अश्वमेधादि वचन 1 से 13, मन्त्र 2800 से 3028 इस प्रकार पाँच खण्डों में 40+ वचन 13 = 53 उपखण्ड, अनुवाक 843 और 3028 मन्त्र हैं । मन्त्र और ब्राह्मणों की सम्मिलित संख्या 18 हजार है । काठक-संहिता में वर्णित प्रमुख 19 याग क्रमशः ये हैंः--- (1.) दर्श-पूर्णमास, (2.) ज्योतिष्टोम, (3.) अग्निहोत्र, (4.) उपस्थान आदि कर्म, (5.) आधान, (6.) काम्य इष्टियाँ, (7.) विविध-पयस्या याग, (8.) पशुबन्ध, (9.) वाजपेय, (10.) राजसूय, (11.) अग्निचयन, (12.) पत्नीव्रत-याग, (13.) अतिरात्र आदि सत्र, (14.) एकदशिनी, (15.) प्रायश्चित्तियाँ, (16.) चातुर्मास्य, (17.) गोसव आदि याग, (18.) सौत्रामणी, (19.) अश्वमेध । कृष्णयजुर्वेद की चारों संहिताओं में प्रायः स्वरूप की एकता है और विविध यागों में प्रयुक्त मन्त्रों में भी बहुत साम्य है । इसका कारण यह है कि ये शाखाएँ वस्तुतः यजुर्वेद की ही शाखाएँ हैं, अतः इनमें में साम्य है । महर्षि पतञ्जलि ने लिखा है---"ग्रामे ग्रामे काठकं कालापकं च प्रोेच्यते ।" (महाभाष्य-4.3.101) इससे ज्ञात होता है कि पतञ्जलि (150 ई.पू.) के समय में काठक और कलाप-शाखा का प्रचार गाँव-गाँव में था । आजकल यह शाखा लुप्तप्राय है । इस शाखा में उदात्त अक्षर के ऊपर ही ऊर्ध्व रेखा (स्वरित जैसा चिह्न) है । अनुदात्त और स्वरित पर कोई चिह्न नहीं है । 

कपिष्ठल (कठ) संहिता =======================
 यह शाखा "चरणव्यूह" के अनुसार चरकों की 12 शाखाओं में से एक है । प्राचीन काल में कठों की कई शाखाएँ प्रचलित थीं, जैसे कठ, प्राच्य कठ और कपिष्ठल कठ । इस शाखा के प्रवर्तक कपष्ठल ऋषि थे । पाणिनि ने "कपिष्ठलो गोत्रे" (8.3.91) तथा दुर्गाचार्य ने निरुक्त-टीका (4.4) में अहं च कपिष्ठलो वासिष्ठः" का उल्लेख किया है । इससे ज्ञात होता है कि ये वसिष्ठ-गोत्र के थे । 

विद्वानों का अनुमान है कि कुरुक्षेत्र के पास "कैथल" ग्राम कपिष्ठल का ही अपभ्रंश है और यह कपिष्ठल ऋषि का निवास स्थान था ।

 डॉ. रघुवीर जी ने इसका एक सुन्दर संस्करण 1932 में लाहौर से प्रकाशित कराया था । यह संहिता ऋग्वेद की तरह अष्टकों और अध्यायों में विभक्त है । इसमें स्वरांकन पद्धति काठक-संहिता के तुल्य है । इसके केवल 6 अष्टक उपलब्ध हैं । 48 अध्याय पर समाप्ति है । बीच में कई अध्याय सर्वथा नहीं है या अपूर्ण है । इसमें अध्याय 9 से 24, 32, 33 और 43 सर्वथा खण्डित है ।

 अश्वमेधादि याग
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 यजुर्वेद के कई अध्यायों में "मेध" वाले यज्ञ हैं ।

 यथा--अश्वमेध--(22.29), पुरुषमेध या नरमेध (30.31), सर्वमेध (32.33), पितृमेध (35.29) । 

कतिपय भारतीय और पाश्चात्त्य विद्वानों को भ्रान्ति है कि "मेध" शब्द केवल बलि या वध का वाचक है । यह शब्द मेधृ संगमे च धातु से बना है,

 जिसका अर्थ है---संगम (गुणों से युक्त होना), मेधा (ज्ञानवृद्धि) और हिंसा । अतः केवल हिंसा अर्थ को लेकर सर्वत्र बलि देना अर्थ करना अज्ञानता है । 

कालिदास ने भी मेध शब्द का प्रयोग किया है----"प्रजायै गृहमेधिनाम्" (रघुवंश) अर्थात् सन्तान के लिए गृहमेधी (गृहस्थी) होना । गृहमेध का अर्थ घर को बलि देना अर्थ नहीं हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों को देखने से ज्ञात होता है कि मेध शब्द का प्रयोग उन्नति, प्रगति, तेजस्विता आदि के लिए होता था । यजुर्वेद में मेध शब्द का अर्थ घी, अन्न और भोज्य पदार्थ तथा पौष्टिक पदार्थ बताए गए हैं। अतः जौ, चावल और पुरोडाश को मेध बताया है ।

यजुर्वेद में अश्वमेध आदि शब्द राष्ट्रिय उन्नति और प्रगति के लिए है ।यथा पितृमेध या पितृयज्ञ का अभिप्राय है---माता-पिता की सेवा-शुश्रूषा और उन्हें अन्नादि से तृप्त रखना । मेध शब्द का प्रयोग श्रीवृद्धि, समृद्धि, उन्नति आदि के लिए होता था । 

शतपथ और तैत्तिरीय आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में अश्वमेध की अनेक पारिभाषिक व्याखायाएँ की गई हैं ।इसके अनुसार अश्वमेध का अर्थ है--राष्ट्र की श्रीवृद्धि , राष्ट्र को धन-धान्य से समृद्ध करना, राष्ट्र को तेजस्वी ऊर्जस्वी और ब्रह्मवर्चस्वी बनाना । 

इसी प्रकार पुरुषमेध (नरमेध) का अर्थ है--- देश के पुरुष शक्ति सेना शक्ति की सर्वागीण उन्नति ।

 सर्वमेध का अर्थ है---प्रजामात्र की सर्वतोमुखी उन्नति । अत एव गोपथ ब्राह्मण में कहा है कि 

सर्वमेध अर्थात् सर्वजन समुन्नति के द्वारा राजा सर्वराट् (सबका अधिपति) हो जाता है ।

गोमेध का अभिप्राय है ---गोवंश की रक्षा करना और पशु-समृद्धि ।

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केतु के गुण अवगुण -*


*केतु के गुण अवगुण -*

*ज्योतिष शास्त्र के अनुसार केतु एक छाया ग्रह है जो स्वभाव से पाप ग्रह भी है। केतु के बुरे प्रभाव से व्यक्ति को जीवन में कई बड़े संकटों का सामना करना पड़ता है। हालांकि यही केतु जब शुभ होता है तो व्यक्ति को ऊंचाईयों पर भी ले जाता है। केतु यदि अनुकूल हो जाए तो व्यक्ति आध्यात्म के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त करता है। आमतौर पर माना जाता है कि हमारी जन्मकुंडली हमारे पिछले जन्म के कर्मों तथा इस जन्म के भाग्य को बताती है। फिर भी ज्योतिषीय विश्लेषण कर हम अशुभ ग्रहों से होने वाले प्रभाव तथा उनके कारणों को जानकर उनका सहज ही निवारण कर सकते हैं।*

*राहू एवं केतु छाया ग्रह माने गए है जिनका स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं होता है। इन्हें इनके कार्य करने की वास्तविक शक्ति कुंडली में अन्य ग्रहों के सम्मिलित प्रभाव से मिलती है। ज्योतिष में माना जाता है कि किसी जानवर को परेशान करने पर, किसी धार्मिक स्थल को तोड़ने अथवा किसी रिश्तेदार को सताने, उनका हक छीनने की सजा देना ही केतु का कार्य है। झूठी गवाही व किसी से धोखा करना भी केतु के बुरे प्रभाव को आमंत्रित करता है।*

*जब भी व्यक्ति पर केतु का अशुभ प्रभाव शुरू होने वाला होता है तो उसके अंदर कामवासना एकदम से बढ़ जाती है। किसी अन्य पापग्रह यथा राहू, मंगल की युति मिलने पर व्यक्ति किसी महिला/ लड़की से दुष्कर्म तक करने का जोखिम उठा सकता है। इसके अलावा मुकदमेबाजी, अनावश्यक झगड़ा, वैवाहिक जीवन में अशांति, भूत-प्रेत बाधाओं द्वारा परेशान होना भी केतु के ही कारण होता है। शारीरिक प्रभावों में व्यक्ति को पथरी, गुप्त व असाध्य रोग, खांसी तथा वात एवं पित्त विकार संबंधी रोग हो जाते हैं।*

*सभी ग्रहों में राहु-केतु मायावी ग्रह हैं इन पर सटीक फलित करना अत्यधिक जटिल है। राहु पर थोडा बहुत लिखा हुआ मिल भी जाता है, लेकिन जब केतु की बात आती हैं उस समय या तो राहु के समान उसके फल बतायें गये हैं या मंगल के गुणों की समानता दे दी जाती है। लेकिन मेरे अनुभव में केतु के बिल्कुल अलग फल है। केतु सभी ग्रहों में सबसे तीक्ष्ण व पीडा दायक ग्रह है। मायावी होने के कारण प्राय: केतु में लगभग सभी ग्रहों की झलक देखने को मिल जाती है। सूर्य के समान जलाने वाला, चंद्र के समान चंचल, मंगल के समान पीडाकारी, बुध के समान दूसरे ग्रहों से शीघ्र प्रभावित होने वाला, गुरु के समान ज्ञानी, शुक्र के समान चमकने वाला एवं शनि के समान एकांतवासी ग्रह है। केतु के कुछ अनुभव सिद्ध फल-*

*1- केतु हमेशा अपना प्रभाव दिखाता ही है। केतु का प्रभाव जिस भाव पर होगा जातक को उस भाव से सम्बंधित अंग में किसी प्रकार की चोट या निशान, तिल, वर्ण अवश्य देगा।*

*2-  केतु पर यदि षष्ठेश का प्रभाव हो तो पीडा दायक रोग होते हैं। यदि साथ में मारकेश का भी प्रभाव होतो ऐसा केतु ऑपरेशन आदि करवाता हैं अथवा अंगहीन बनाता है।*

*3- केतु का प्रभाव लग्न या तृतिय स्थान पर हो तथा कुछ क्रूर या पापी ग्रह का प्रभाव भी हो तो ऐसे जातक अत्यधिक गुस्सैल व अनियंत्रित होते हैं। ऐसे जातक जल्दबाज होते हैं जिनके कारण अधिकतर गलत निर्णय लेते हैं। यदि केतु पर पाप प्रभाव अधिक हो तो ऐसे जातक हत्या तक कर बैठते है।*

*4- केतु का नवम, दशम व एकादश प्रभाव शुभ होता है इसके अतिरिक्त बुध व गुरु की राशि में स्थित केतु भी मारक प्रभाव न रखकर व्यक्ति को उच्च शिक्षा देने वाला या सफल बनाने वाला होता  है। ऐसे जातक प्रबुध होते है, डॉक्टर, वकील या रक्षा विभाग में प्रयास करने से सफलता शीघ्र प्राप्त होती है।*

*5- केतु के अंदर अध्यात्मिक शक्ति होती है, शास्त्रों में वर्णित है की गुरु संग केतु की युति मोक्ष दायक होती है। अत: शुभ केतु का प्रभाव व्यक्ति को धर्म से जोडता है। लग्न या नवम भाव पर केतु का शुभ प्रभाव होतो ऐसे लोग कट्टर धर्मी होते हैं।*

*6- केतु का संकेत चिन्ह झंडा होता है जो की उच्चता का सूचक है। योगकारक ग्रह के संग या लग्नेश संग केतु का प्रभाव व्यक्ति को प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्रदान करता हैं।*

*केतु को सूर्य व चंद्र का शत्रु कहा गया हैं। केतु मंगल ग्रह की तरह प्रभाव डालता है। केतु वृश्चिक व धनु राशि में उच्च का और वृष व मिथुन में नीच का होता है।*

*जन्म कुंडली में लग्न, षष्ठम, अष्ठम और एकादश भाव में केतु की स्थिति को शुभ नहीं माना गया है | इसके कारण जातक के जीवन में अशुभ प्रभाव ही देखने को मिलते है |*

*जन्मकुंडली में केतु यदि केंद्र-त्रिकोण में उनके स्वामियों के साथ बैठे हों या उनके साथ शुभ दृष्टि में हों तो योगकारक बन जाते हैं। ऐसी स्थिति में ये अपनी दशा-भुक्ति में शुभ परिणाम जैसे लंबी आयु, धन, भौतिक सुख आदि देते हैं।*

*केतु के कारक है -मोक्ष, पागलपन, विदेश प्रवास, कोढ़, आत्महत्या, दादा-दादी, गंदी जुबान, लंबे कद, धूम्रपान, जख्म, शरीर पर धब्बे, दुबलापन, पापवृत्ति , द्वेष, गूढ़ता, जादूगरी, षडयंत्र, दर्शनशास्त्र, मानसिक शांति, धैर्य, वैराग्य, सरकारी जुर्माने, सपने, आकस्मिक मौत, बुरी आत्मा, वायुजनित रोग, जहर, धर्म, ज्योतिष विद्या, मुक्ति, दिवालियापन, हत्या की प्रवृत्ति , अग्नि-दुर्घटना आदि का कारक केतु ग्रह है।*

*सूर्य जब केतु के साथ होता है तो जातक के व्यवसाय, पिता की सेहत, मान-प्रतिष्ठा, आयु, सुख आदि पर बुरा प्रभाव डालता है।*

*चंद्र यदि केतु के साथ हो और उस पर किसी अन्य शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो व्यक्ति मानसिक रोग, वातरोग, पागलपन आदि का शिकार होता है।*

*वृश्चिक लग्न में यह योग जातक को अत्यधिक धार्मिक बना देता है।*

*मंगल केतु के साथ हो तो जातक को हिंसक बना देता है। इस योग से प्रभावित जातक अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं रख पाते और कभी-कभी तो कातिल भी बन जाते हैं।*

*बुध केतु के साथ हो तो व्यक्ति लाइलाज बीमारी ग्रस्त होता है। यह योग उसे पागल, सनकी, चालाक, कपटी या चोर बना देता है। वह धर्म विरुद्ध आचरण करता है।*

*केतु गुरु के साथ हो तो गुरु के सात्विक गुणों को समाप्त कर देता है और जातक को परंपरा विरोधी बनाता है। यह योग यदि किसी शुभ भाव में हो तो जातक ज्योतिष शास्त्र में रुचि रखता है।*

*शुक्र केतु के साथ हो तो जातक दूसरों की स्त्रियों या पर पुरुष के प्रति आकर्षित होता है।*

*शनि केतु के साथ हो तो आत्महत्या तक कराता है। ऐसा जातक आतंकवादी प्रवृति का होता है। अगर बृहस्पति की दृष्टि हो तो अच्छा योगी होता है।*

*किसी स्त्री के जन्म लग्न या नवांश लग्न में केतु हो तो उसके बच्चे का जन्म आपरेशन से होता है। इस योग में अगर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो कष्ट कम होता है।*

*भतीजे एवं भांजे का दिल दुखाने एवं उनका हक छीनने पर केतु अशुभ फल देना है। कुत्ते को मारने एवं किसी के द्वारा मरवाने पर, किसी भी मंदिर को तोड़ने अथवा ध्वजा नष्ट करने पर इसी के साथ ज्यादा कंजूसी करने पर केतु अशुभ फल देता है। किसी से धोखा करने व झूठी गवाही देने पर भी केतु अशुभ फल देते हैं।*

*अत: मनुष्य को अपना जीवन व्यवस्िथत जीना चाहिए। किसी को कष्ट या छल-कपट द्वारा अपनी रोजी नहीं चलानी चाहिए। किसी भी प्राणी को अपने अधीन नहीं समझना चाहिए जिससे ग्रहों के अशुभ कष्ट सहना पड़े।*

*समय रहते यदि शुभ-अशुभ योगों को पहचान लिया जाए तो जीवन को सभी ओर सकारात्मक दिशा देने में आसानी हो सकती है।केतु के अधीन आने वाले जातक जीवन में अच्छी ऊंचाइयों पर पहुंचते हैं, जिनमें से अधिकांश आध्यात्मिक ऊंचाईयों पर होते हैं।*

*केतु ग्रह के उपाय -दान और वैदिक मंत्र :-*
*केतु शांति हेतु लहसुनिया रत्न धारण करने का विधान है।*
*केतु ग्रह की उपासना के लिए निम्न में किसी एक मंत्र का नित्य श्रद्धापूर्वक निश्चित संख्या में जप करना चाहिए।*
*जप का समय रात्रि ८ बजे के बाद तथा कुल जप-संख्या 17000 है।*
*हवन के लिए कुश का उपयोग करना चाहिए।*

*वैदिक मंत्र-*
*ॐ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। सुमुषद्भिरजायथाः॥*
*बीज मंत्र- जप-संख्या 17000*
*पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रहमस्तकम्।*
*रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥*
*बीज मंत्र-जप-संख्या 17000*
*ॐ स्रां स्रीं स्रौं सः केतवे नमः।*
*सामान्य मंत्र-जप-संख्या 17000*
*ॐ कें केतवे नमः।*

*केतु ग्रह का दान :-केतु की प्रसन्नता हेतु दान की जाने वाली वस्तुएँ इस प्रकार बताई गई हैं-*

*वैदूर्य रत्नं तैलं च तिलं कम्बलमर्पयेत्।शस्त्रं मृगमदं नीलपुष्पं केतुग्रहाय वै॥*

*वैदूर्य नामक रत्न, तेल, काला तिल, कंबल, शस्त्र, कस्तूरी तथा नीले रंग का पुष्प दान करने से केतु ग्रह साधक का कल्याण करता है।*

*अश्वगंधा की जड़ को नीले धागे में बांधकर मंगलवार को धारण करने से भी केतु ग्रह के अशुभ प्रभाव कम होने लगते है |*

*केतु से पीड़ित व्यक्ति को मंदिर में कम्बल का दान करना चाहिए*

*तंदूर में मीठी रोटी बनाकर 43 दिन कुत्तों को खिलाएँ या सवा किलो आटे को भुनकर उसमे गुड का चुरा मिला दे और ४३ दिन तक लगातार चींटियों को डाले,रोज कौओं को रोटी खिलाएं।*

*अपना कर्म ठीक रखे तभी भाग्य आप का साथ देगा और कर्म ठीक हो इसके लिए आप मन्दिर में प्रतिदिन दर्शन के लिए जाएं।*

*माता-पिता और गुरु जानो का सम्मान करे ,अपने धर्मं का पालन करे, भाई बन्धुओं से अच्छे सम्बन्ध बनाकर रखें।*

*यदि सन्तान बाधा हो तो कुत्तों को रोटी खिलाने से घर में बड़ो के आशीर्वाद लेने से और उनकी सेवा करने से सन्तान सुख की प्राप्ति होगी।*

*गौ ग्रास. रोज भोजन करते समय परोसी गयी थाली में से एक हिस्सा गाय को, एक हिस्सा कुत्ते को एवं एक हिस्सा कौए को खिलाएं आप के घर में हमेशा बरक्कत रहेगी।*

Wednesday, February 27, 2019

Mettā works—how does it work?

💐 Mettā works—how does it work? 

If the mind is pure and one is generating vibrations of mettā, these vibrations can go anywhere, whether to this loka or that loka, this lower field or that higher field—anywhere. 

If we direct our vibrations towards a certain being, certainly it moves towards that being. 

And when it reaches that individual, the being comes into contact with this vibration, and feels very happy, because the vibrations are vibrations of Dhamma, of peace, of harmony.  

When you donate something in the name of someone who has passed away, with the wish, "May the merit of my donation go to so-and-so," then your volition of mettā, this vibration, moves to that person and they will get elated by those vibrations. And because these vibrations are with the base of Dhamma, something or other will happen which will take him or her towards Dhamma. 

🌷 Whether in this life or in a future life, it helps him or her towards Dhamma, then this is how we are helping those who are in lower fields or even in higher fields.

गीता सार संग्रह

*🌟गीता सार संग्रह 🌟*

तुम क्यों व्यर्थ चिंता करते हो? तुम क्यों भयभीत होते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा का न कभी जन्म होता है और न ही यह कभी मरता है।

परिवर्तन संसार का नियम है, एक पल में आप करोड़ों के स्वामी हो जाते हो और दूसरे पल ही आपको ऐसा लगता है कि आपके पास कुछ भी नहीं है।

अपने आप को भगवान के हवाले कर दो, यही सर्वोत्तम सहारा है, जिसने इस शस्त्र-हीन सहारे को पहचान लिया है वह भय, चिंता और दु:खों से मुक्त हो जाता है।

जो कुछ भी आज तुम्हारा है, कल किसी और का था और परसों किसी और का हो जाएगा, इसलिए माया के चकाचौंध में मत पड़ो। माया ही सारे दु:ख, दर्द का मूल कारण है।

न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो, यह शरीर पांच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश) से बना है और एक दिन यह शरीर इन्हीं में विलीन हो जाएगा।

जो हुआ वह अच्छा ही हुआ है, जो हो रहा है वह अच्छा ही हो रहा है और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा। बीते समय के लिए पश्चाताप मत करो, आने वाले समय के लिए चिंता मत करो, जो समय चल रहा है केवल उसी पर ध्यान केन्द्रित करो।

तुम्हारा अपना क्या है, जिसे तुम खो दोगे? तुम क्या साथ लाए थे जिसका तुम्हें खोने का डर है? तुमने क्या जन्म दिया जिसके विनाश का डर तुम्हें सता रहा है? तुम अपने साथ कुछ भी नहीं लाए थे। हर कोई खाली हाथ ही आया है और मरने के बाद खाली हाथ ही जाएगा।

*।। जय श्री कृष्ण ।।*

निरपेक्ष* भक्ती

अंतरबाह्य शुध्द असलेल्या आपल्या कमालीच्या तेजःपुंज पतिव्रता मातेला अध्यात्माच्या सर्वोच्च शिखरावर असुनही दत्तमहाराज म्हणाले,"माते,तुझ्या पदरी पुण्याचा अफाट साठा
आहे पण त्याने तू जीवनमुक्त होणार नाहीस.त्या पुण्याईच्या जोरावर फार तर पुढील जन्म उत्तम कुळात मिळेल पण तुला
आत्मदर्शन अजून झाले नाही.ते गुरुकृपेशिवाय शक्य नाही. म्हणून तू परम निष्ठेने सद्गुरुंना शरण जा.ते तुला जन्म-मरणा-
च्या यातायातीतून सोडवतील.मन निर्विकार,निर्भय,निर्विकल्प,
निर्मोह,निःसंशय, निरहंकार,निरपेक्ष झाल्याशिवाय सद्गुरू भेटत नाहीत आणि सद्गुरुंवाचून कधीही आत्मोध्दार होत नाही.
मित्रमैत्रिणींनो, कणभर उपासनेचा माणसाला केवढा मणभर
अहंकार असतो.मुळात *निष्काम* उपासना करणारे थोडेच.
प्रत्येक स्तोत्र म्हंटल्यावर,पूजा केल्यावर फळाची अपेक्षा असते
च."माझ्याकडे लक्ष असूदे रे बाबा" असे तरी म्हणण्याची गरज
काय? "सकल जगाचा करितो सांभाळ! तुज मोकलील ऐसे नाही!"दुर्मिळ मनुष्य योनी ही जीवनमुक्त होण्यासाठी मिळाली
आहे.त्यासाठी प्रखर उपासना करून आपली अध्यात्मिक बॅन्क पूर्ण पुण्याने भरायची असते.पण आपण सारखे सारखे
ऐहिक कारणासाठी उपसा करीत राहिलो तर आत्मदर्शनासाठी
सद्गुरु कसे भेटणार? "मनःशांती साठी कोणते स्तोत्र म्हणू?"
" लक्ष्मीप्राप्तीसाठी काय उपासना करू?" " किती वेळा स्तोत्र
म्हणू?" हे सारे निरर्थक प्रश्न आहेत. अध्यात्माची केमिस्ट
सारखी दुकाने नसतात.हा त्रास झाला की हे स्तोत्र.तो रोग झाला की ती पूजा.अशी कामनिक उपासना पुण्यक्षय करते.
प्रेमाने भगवत् चरित्र वाचले की *तो* कल्याण करतोच. "हरी 
मुखे म्हणा!हरी मुखे म्हणा! पुण्याची गणना! कोण करी!" 
म्हणून अध्यात्मात *निरपेक्ष* भक्ती असावी.अजपाजप श्रेष्ठ.
एक वेळ अशी येईल की "राम जपे नाम! हम बैठे आराम" 🙏

तिरूपति-बालाजी की पौराणिक कथा

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तिरूपति-बालाजी की पौराणिक कथा

वैंकटेश भगवान को कलियुग में बालाजी नाम से भी जाना गया है। पौराणिक गाथाओं और परम्पराओं से जु़डा संक्षिप्त इतिहास यहां प्रस्तुत है- प्रसिद्ध पौराणिक सागर-मंथन की गाथा के अनुसार जब सागर मंथन किया गया था तब कालकूट विष के अलावा चौदह रत्‍‌न निकले थे। ...

वैंकटेश भगवान को कलियुग में बालाजी नाम से भी जाना गया है। पौराणिक गाथाओं और परम्पराओं से जु़डा संक्षिप्त इतिहास यहां प्रस्तुत है-

प्रसिद्ध पौराणिक सागर-मंथन की गाथा के अनुसार जब सागर मंथन किया गया था तब कालकूट विष के अलावा चौदह रत्‍‌न निकले थे। इन रत्‍‌नों में से एक देवी लक्ष्मी भी थीं। लक्ष्मी के भव्य रूप और आकर्षण के फलस्वरूप सारे देवता, दैत्य और मनुष्य उनसे विवाह करने हेतु लालायित थे, किन्तु देवी लक्ष्मी को उन सबमें कोई न कोई कमी लगी। अत: उन्होंने समीप निरपेक्ष भाव से खड़े हुए विष्णुजी के गले में वरमाला पहना दी। विष्णु जी ने लक्ष्मी जी को अपने वक्ष पर स्थान दिया।

यह रहस्यपूर्ण है कि विष्णुजी ने लक्ष्मीजी को अपने ह्वदय में स्थान क्यों नहीं दिया? महादेव शिवजी की जिस प्रकार पत्‍‌नी अथवा अर्धाग्नि पार्वती हैं, किन्तु उन्होंने अपने ह्वदयरूपी मानसरोवर में राजहंस राम को बसा रखा था उसी समानांतर आधार पर विष्णु के ह्वदय में संसार के पालन हेतु उत्तरदायित्व छिपा था। उस उत्तरदायित्व में कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं हो इसलिए संभवतया लक्ष्मीजी का निवास वक्षस्थल बना।

 

एक बार धरती पर विश्व कल्याण हेतु यज्ञ का आयोजन किया गया। तब समस्या उठी कि यज्ञ का फल ब्रम्हा, विष्णु, महेश में से किसे अर्पित किया जाए। इनमें से सर्वाधिक उपयुक्त का चयन करने हेतु ऋषि भृगु को नियुक्त किया गया। भृगु ऋषि पहले ब्रम्हाजी और तत्पश्चात महेश के पास पहुंचे किन्तु उन्हें यज्ञ फल हेतु अनुपयुक्त पाया। अंत में वे विष्णुलोक पहुंचे। विष्णुजी शेष शय्या पर लेटे हुए थे और उनकी दृष्टि भृगु पर नहीं जा पाई। भृगु ऋषि ने आवेश में आकर विष्णु जी के वक्ष पर ठोकर मार दी। अपेक्षा के विपरीत विष्णु जी ने अत्यंत विनम्र होकर उनका पांव पक़ड लिया और नम्र वचन बोले- हे ऋषिवर! आपके कोमल पांव में चोट तो नहीं आई? विष्णुजी के व्यवहार से प्रसन्न भृगु ऋषि ने यज्ञफल का सर्वाधिक उपयुक्त पात्र विष्णुजी को घोषित किया। उस घटना की साक्षी विष्णुजी की पत्‍‌नी लक्ष्मीजी अत्यंत क्रुद्व हो गई कि विष्णुजी का वक्ष स्थान तो उनका निवास स्थान है और वहां धरतीवासी भृगु को ठोकर लगाने का किसने अधिकार दिया? उन्हें विष्णुजी पर भी क्रोध आया कि उन्होंने भृगु को दंडित करने की अपेक्षा उनसे उल्टी क्षमा क्यों मांगी? परिणामस्वरूप लक्ष्मीजी विष्णुजी को त्याग कर चली गई। विष्णुजी ने उन्हें बहुत ढूंढा किन्तु वे नहीं मिलीं।

अंतत: विष्णुजी ने लक्ष्मी को ढूंढते हुए धरती पर श्रीनिवास के नाम से जन्म लिया और संयोग से लक्ष्मी ने भी पद्मावती के रूप में जन्म लिया। घटनाचक्र ने उन दोनों का अंतत: परस्पर विवाह करवा दिया। सब देवताओं ने इस विवाह में भाग लिया और भृगु ऋषि ने आकर एक ओर लक्ष्मीजी से क्षमा मांगी तो साथ ही उन दोनों को आशीर्वाद प्रदान किया।

लक्ष्मीजी ने भृगु ऋषि को क्षमा कर दिया किन्तु इस विवाह के अवसर पर एक अनहोनी घटना हुई। विवाह के उपलक्ष्य में लक्ष्मीजी को भेंट करने हेतु विष्णुजी ने कुबेर से धन उधार लिया जिसे वे कलियुग के समापन तक ब्याज सहित चुका देंगे। ऐसी मानता है कि जब भी कोई भक्त तिरूपति बालाजी के दर्शनार्थ जाकर कुछ चढ़ाता है तो वह न केवल अपनी श्रद्धा भक्ति अथवा आर्त प्रार्थना प्रस्तुत करता है अपितु भगवान विष्णु के ऊपर कुबेर के ऋण को चुकाने में सहायता भी करता है। अत: विष्णुजी अपने ऐसे भक्त को खाली हाथ वापस नहीं जाने देते हैं।

जिस नगर में यह मंदिर बना है उसका नाम तिरूपति है और नगर की जिस पहाड़ी पर मंदिर बना है उसे तिरूमला (श्री+मलय) कहते हैं। तिरूमला को वैंकट पहाड़ी अथवा शेषांचलम भी कहा जाता है। यह पहड़ी सर्पाकार प्रतीत होती हैं जिसके सात चोटियां हैं जो आदि शेष के फनों की प्रतीक मानी जाती हैं। इन सात चोटियों के नाम क्रमश: शेषाद्रि, नीलाद्रि, गरू़डाद्रि, अंजनाद्रि, वृषभाद्रि, नारायणाद्रि और वैंकटाद्रि हैं।

बिल्व पत्र की विशेषता

बिल्व पत्र की विशेषता
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भगवान शिव की पूजा में बिल्व पत्र यानी बेल पत्र का विशेष महत्व है। महादेव एक बेलपत्र अर्पण करने से भी प्रसन्न हो जाते है, इसलिए तो उन्हें आशुतोष भी कहा जाता है।

बिल्व तथा श्रीफल नाम से प्रसिद्ध  यह फल बहुत ही काम का है। यह जिस पेड़ पर लगता है वह शिवद्रुम भी कहलाता है। बिल्व का पेड़ संपन्नता का प्रतीक, बहुत पवित्र तथा समृद्धि देने वाला है। 

बेल के पत्ते शंकर जी  का आहार माने गए हैं, इसलिए भक्त लोग बड़ी श्रद्धा से इन्हें महादेव के ऊपर चढ़ाते हैं। शिव की पूजा के लिए बिल्व-पत्र बहुत ज़रूरी माना जाता है। शिव-भक्तों का विश्वास है कि पत्तों के त्रिनेत्रस्वरूप् तीनों पर्णक शिव के तीनों नेत्रों को विशेष प्रिय हैं।

भगवान शंकर का प्रिय
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भगवान शंकर को बिल्व पत्र बेहद प्रिय हैं। भांग धतूरा और बिल्व पत्र से प्रसन्न होने वाले केवल शिव ही हैं। शिवरात्रि के अवसर पर बिल्वपत्रों से विशेष रूप से शिव की पूजा की जाती है। तीन पत्तियों वाले बिल्व पत्र आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, किंतु कुछ ऐसे बिल्व पत्र भी होते हैं जो दुर्लभ पर चमत्कारिक और अद्भुत होते हैं।

बिल्वाष्टक और शिव पुराण
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बिल्व पत्र का भगवान शंकर के पूजन में विशेष महत्व है जिसका प्रमाण शास्त्रों में मिलता है। बिल्वाष्टक और शिव पुराण में इसका स्पेशल उल्लेख है। अन्य कई ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। भगवान शंकर एवं पार्वती को बिल्व पत्र चढ़ाने का विशेष महत्व है।

 मां भगवती को बिल्व पत्र
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श्रीमद् देवी भागवत में स्पष्ट वर्णन है कि जो व्यक्ति मां भगवती  को बिल्व पत्र अर्पित करता है वह कभी भी किसी भी परिस्थिति में दुखी नहीं होता। उसे हर तरह की सिद्धि प्राप्त होती है और कई जन्मों के पापों से मुक्ति मिलती है और वह भगवान भोले नाथ का प्रिय भक्त हो जाता है। उसकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं और अंत में मोक्ष की प्राप्ति होती है।

बिल्व पत्र के प्रकार
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बिल्व पत्र चार प्रकार के होते हैं – अखंड बिल्व पत्र, तीन पत्तियों के बिल्व पत्र, छः से 21 पत्तियों तक के बिल्व पत्र और श्वेत बिल्व पत्र। इन सभी बिल्व पत्रों का अपना-अपना आध्यात्मिक महत्व है। आप हैरान हो जाएंगे ये जानकर की कैसे ये बेलपत्र आपको भाग्यवान बना सकते हैं और लक्ष्मी कृपा दिला सकते हैं।

अखंड बिल्व पत्र
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इसका विवरण बिल्वाष्टक में इस प्रकार है – ''अखंड बिल्व पत्रं नंदकेश्वरे सिद्धर्थ लक्ष्मी''। यह अपने आप में लक्ष्मी सिद्ध है। एकमुखी रुद्राक्ष के समान ही इसका अपना विशेष महत्व है। यह वास्तुदोष का निवारण भी करता है। इसे गल्ले में रखकर नित्य पूजन करने से व्यापार में चैमुखी विकास होता है।

तीन पत्तियों वाला बिल्व पत्र
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इस बिल्व पत्र के महत्व का वर्णन भी बिल्वाष्टक में आया है जो इस प्रकार है- ''त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम् त्रिजन्म पाप सहारं एक बिल्वपत्रं शिवार्पणम'' यह तीन गणों से युक्त होने के कारण भगवान शिव को प्रिय है। इसके साथ यदि एक फूल धतूरे का चढ़ा दिया जाए, तो फलों  में बहुत वृद्धि होती है।

इस तरह बिल्व पत्र अर्पित करने से भक्त को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। रीतिकालीन कवि ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है- ''देखि त्रिपुरारी की उदारता अपार कहां पायो तो फल चार एक फूल दीनो धतूरा को'' भगवान आशुतोष त्रिपुरारी भंडारी सबका भंडार भर देते हैं।

आप भी फूल चढ़ाकर इसका चमत्कार स्वयं देख सकते हैं और सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। तीन पत्तियों वाले बिल्व पत्र में अखंड बिल्व पत्र भी प्राप्त हो जाते हैं। कभी-कभी एक ही वृक्ष पर चार, पांच, छह पत्तियों वाले बिल्व पत्र भी पाए जाते हैं। परंतु ये बहुत दुर्लभ हैं।

10 छह से लेकर 21 पत्तियों वाले बिल्व पत्र
ये मुख्यतः नेपाल  में पाए जाते हैं। पर भारत में भी दक्षिण में कहीं-कहीं मिलते हैं। जिस तरह रुद्राक्ष कई मुखों वाले होते हैं उसी तरह बिल्व पत्र भी कई पत्तियों वाले होते हैं।

श्वेत बिल्व पत्र
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जिस तरह सफेद सांप, सफेद टांक, सफेद आंख, सफेद दूर्वा आदि होते हैं उसी तरह सफेद बिल्वपत्र भी होता है। यह प्रकृति  की अनमोल देन है। इस बिल्व पत्र के पूरे पेड़ पर श्वेत पत्ते पाए जाते हैं। इसमें हरी पत्तियां नहीं होतीं। इन्हें भगवान शंकर को अर्पित करने का विशेष महत्व है।

कैसे आया बेल वृक्ष
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बेल वृक्ष की उत्पत्ति के संबंध में 'स्कंदपुराण' में कहा गया है कि एक बार देवी पार्वती ने अपनी ललाट से पसीना पोछकर फेंका, जिसकी कुछ बूंदें मंदार पर्वत पर गिरीं, जिससे बेल वृक्ष उत्पन्न हुआ। इस वृक्ष की जड़ों में गिरिजा, तना में महेश्वरी, शाखाओं में दक्षयायनी, पत्तियों में पार्वती, फूलों में गौरी का वास माना गया है।

बिल्व-पत्र तोड़ने का मंत्र
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बिल्व-पत्र को सोच-विचार कर ही तोड़ना चाहिए। पत्ते तोड़ने से पहले यह मंत्र बोलना चाहिए-

अमृतोद्भव श्रीवृक्ष महादेवप्रिय: सदा। 
गृह्यामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात्॥ 

अर्थ- अमृत से उत्पन्न सौंदर्य व ऐश्वर्यपूर्ण वृक्ष महादेव को हमेशा प्रिय है। भगवान शिव की पूजा के लिए हे वृक्ष में तुम्हारे पत्र तोड़ता हूं।

पत्तियां कब न तोड़ें
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विशेष दिन या पर्वो के अवसर पर बिल्व के पेड़ से पत्तियां तोड़ना मना है। शास्त्रों के अनुसार इसकी पत्तियां इन दिनों में नहीं तोड़ना चाहिए-
सोमवार के दिन चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या की तिथियों को। संक्रांति के पर्व पर।

अमारिक्तासु संक्रान्त्यामष्टम्यामिन्दुवासरे । 
बिल्वपत्रं न च छिन्द्याच्छिन्द्याच्चेन्नरकं व्रजेत ॥ 
(लिंगपुराण)

अर्थ
अमावस्या, संक्रान्ति के समय, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों तथा सोमवार के दिन बिल्व-पत्र तोड़ना वर्जित है।

क्या चढ़ाया गया बिल्व-पत्र भी चढ़ा सकते हैं
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शास्त्रों में विशेष दिनों पर बिल्व-पत्र चढ़ाने से मना किया गया है तो यह भी कहा गया है कि इन दिनों में चढ़ाया गया बिल्व-पत्र धोकर पुन: चढ़ा सकते हैं।

अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्यापि पुन: पुन:। 
शंकरायार्पणीयानि न नवानि यदि चित्॥ 
(स्कन्दपुराण, आचारेन्दु)

अर्थ- अगर भगवान शिव को अर्पित करने के लिए नूतन बिल्व-पत्र न हो तो चढ़ाए गए पत्तों को बार-बार धोकर चढ़ा सकते हैं।

विभिन्न रोगों की कारगर दवा
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बिल्व-पत्र-बिल्व का वृक्ष विभिन्न रोगों की कारगर दवा है। इसके पत्ते ही नहीं बल्कि विभिन्न अंग दवा के रूप में उपयोग किए जाते हैं। पीलिया, सूजन, कब्ज, अतिसार, शारीरिक दाह, हृदय की घबराहट, निद्रा, मानसिक तनाव, श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर, आंखों के दर्द, रक्तविकार आदि रोगों में बिल्व के विभिन्न अंग उपयोगी होते हैं। इसके पत्तो को पानी से पकाकर उस पानी से किसी भी तरह के जख्म को धोकर उस पर ताजे पत्ते पीसकर बांध देने से वह शीघ्र ठीक हो जाता है।

पूजन में महत्व
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वस्तुत: बिल्व पत्र हमारे लिए उपयोगी वनस्पति है। यह हमारे कष्टों को दूर करती है। भगवान शिव को चढ़ाने का भाव यह होता है कि जीवन में हम भी लोगों के संकट में काम आएं। दूसरों के दु:ख के समय काम आने वाला व्यक्ति या वस्तु भगवान शिव को प्रिय है। सारी वनस्पतियां भगवान की कृपा से ही हमें मिली हैं अत: हमारे अंदर पेड़ों के प्रति सद्भावना होती है। यह भावना पेड़-पौधों की रक्षा व सुरक्षा के लिए स्वत: प्रेरित करती है। पूजा में चढ़ाने का मंत्र-भगवान शिव की पूजा में बिल्व पत्र यह मंत्र बोलकर चढ़ाया जाता है। यह मंत्र बहुत पौराणिक है।

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्।
त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥

अर्थ- तीन गुण, तीन नेत्र, त्रिशूल धारण करने वाले और तीन जन्मों के पाप को संहार करने वाले हे शिवजी आपको त्रिदल बिल्व पत्र अर्पित करता हूं।

रुद्राष्टाध्यायी के इस मन्त्र को बोलकर बिल्वपत्र चढ़ाने का विशेष महत्त्व एवं फल है।
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नमो बिल्ल्मिने च कवचिने च नमो वर्म्मिणे च वरूथिने चनमः श्रुताय च श्रुतसेनाय च नमो दुन्दुब्भ्याय चा हनन्न्याय च नमो घृश्णवे॥
दर्शनं बिल्वपत्रस्य स्पर्शनम्‌ पापनाशनम्‌। अघोर पाप संहारं बिल्व पत्रं शिवार्पणम्‌॥त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुधम्‌। त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्‌॥
अखण्डै बिल्वपत्रैश्च पूजये शिव शंकरम्‌। कोटिकन्या महादानं बिल्व पत्रं शिवार्पणम्‌॥गृहाण बिल्व पत्राणि सपुश्पाणि महेश्वर। 
अभिषेक तिवारी
8989628972
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हिदु धर्म और पीपल

हिदु धर्म और पीपल 
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पीपल को वृक्षों का राजा कहते है। इसकी वंदना में एक श्लोक देखिए:-
मूलम् ब्रह्मा, त्वचा विष्णु,
सखा शंकरमेवच ।
पत्रे-पत्रेका सर्वदेवानाम,
वृक्षराज नमोस्तुते ।।

हिदु धर्म में पीपल के पेड़ का बहुत महत्व माना गया है। शास्त्रों के अनुसार इस वृक्ष में सभी देवी-देवताओं और हमारे पितरों का वास भी माना गया है।

पीपल वस्तुत: भगवान विष्णु का जीवन्त और पूर्णत:मूर्तिमान स्वरूप ही है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है की वृक्षों में मैं पीपल हूँ।

पुराणो में उल्लेखित है कि
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मूलतः ब्रह्म रूपाय मध्यतो विष्णु रुपिणः।
 अग्रतः शिव रुपाय अश्वत्त्थाय नमो नमः।। 
अर्थात इसके मूल में भगवान ब्रह्म, मध्य में भगवान श्री विष्णु तथा अग्रभाग में भगवान शिव का वास होता है।

शास्त्रों के अनुसार पीपल की विधि पूर्वक पूजा-अर्चना करने से समस्त देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं।
कहते है पीपल से बड़ा मित्र कोई भी नहीं है, जब आपके सभी रास्ते बंद हो जाएँ, आप चारो ओर से अपने को परेशानियों से घिरा हुआ समझे, आपकी परछांई भी आपका साथ ना दे, हर काम बिगड़ रहे हो तो 
आप पीपल के शरण में चले जाएँ, उनकी पूजा अर्चना करे , उनसे मदद की याचना करें  निसंदेह कुछ ही समय में आपके घोर से घोर कष्ट दूर जो जायेंगे।

धर्म शास्त्रों के अनुसार हर व्यक्ति को जीवन में पीपल का पेड़ अवश्य ही लगाना चाहिए । पीपल का पौधा लगाने वाले व्यक्ति को जीवन में किसी भी प्रकार संकट नहीं रहता है। पीपल का पौधा लगाने के बाद उसे रविवार को छोड़कर नियमित रूप से जल भी अवश्य ही अर्पित करना चाहिए। जैसे-जैसे यह वृक्ष बढ़ेगा आपके घर में सुख-समृद्धि भी बढ़ती जाएगी।  पीपल का पेड़ लगाने के बाद बड़े होने तक इसका पूरा ध्यान भी अवश्य ही रखना चाहिए, लेकिन ध्यान रहे कि पीपल को आप अपने घर से दूर लगाएं, घर पर पीपल की छाया भी नहीं पड़नी चाहिए।

मान्यता है कि यदि कोई व्यक्ति पीपल के वृक्ष के नीचे शिवलिंग स्थापित करता है तो उसके जीवन से बड़ी से बड़ी परेशानियां भी दूर हो जाती है। पीपल के नीचे शिवलिंग स्थापित करके उसकी नित्य पूजा भी अवश्य ही करनी चाहिए। इस उपाय से जातक को सभी भौतिक सुख सुविधाओं की प्राप्ति होती है।

सावन मास की अमवस्या की समाप्ति और सावन के सभी शनिवार को पीपल की विधि पूर्वक पूजा करके इसके नीचे भगवान हनुमान जी की पूजा अर्चना / आराधना करने से घोर से घोर संकट भी दूर हो जाते है।

यदि पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर रविवार को छोड़कर नित्य हनुमान चालीसा का पाठ किया जाए तो यह चमत्कारी फल प्रदान करने वाला उपाय है।

पीपल के नीचे बैठकर पीपल के 11 पत्ते तोड़ें और उन पर चन्दन से भगवान श्रीराम का नाम लिखें। फिर इन पत्तों की माला बनाकर उसे प्रभु हनुमानजी को अर्पित करें, सारे संकटो से रक्षा होगी।

पीपल के चमत्कारी उपाय
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शास्त्रानुसार प्रत्येक पूर्णिमा पर प्रातः 10 बजे पीपल वृक्ष पर मां लक्ष्मी का फेरा लगता है। इसलिए जो व्यक्ति आर्थिक रूप से मजबूत होना चाहते है वो इस समय पीपल के वृक्ष पर फल, फूल, मिष्ठान चढ़ाते हुए धूप अगरबती जलाकर मां लक्ष्मी की उपासना करें, और माता लक्ष्मी के किसी भी मंत्र की एक माला भी जपे । इससे जातक को अपने किये गए कार्यों के सर्वश्रेष्ठ फल मिलते है और वह धीरे धीरे आर्थिक रूप से सक्षम हो जाता है ।

पीपल को विष्णु भगवान से वरदान प्राप्त है कि जो व्यक्ति शनिवार को पीपल की पूजा करेगा, उस पर लक्ष्मी की अपार कृपा रहेगी और उसके घर का ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होगा। 

व्यापार में वृद्धि हेतु प्रत्येक शनिवार को एक पीपल का पत्ता लेकर उस पर चन्दन से स्वस्तिक बना कर उसे अपने व्यापारिक स्थल की अपनी गद्दी / बैठने के स्थान के नीचे रखे । इसे हर शनिवार को बदल कर अलग रखते रहे । ऐसा 7 शनिवार तक लगातार करें फिर 8वें शनिवार को इन सभी पत्तों को किसी सुनसान जगह पर डाल दें और मन ही मन अपनी आर्थिक समृद्धि के लिए प्रार्थना करते रहे, शीघ्र पीपल की कृपा से आपके व्यापार में बरकत होनी शुरू हो जाएगी ।

जो मनुष्य पीपल के वृक्ष को देखकर प्रणाम करता है, उसकी आयु बढ़ती है 
जो इसके नीचे बैठकर धर्म-कर्म करता है, उसका कार्य पूर्ण हो जाता है।

पीपल के वृक्ष को काटना 
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जो मूर्ख मनुष्य पीपल के वृक्ष को काटता है, उसे इससे होने वाले पाप से छूटने का कोई उपाय नहीं है। (पद्म पुराण, खंड 7 अ 12)

हर रविवार पीपल के नीचे देवताओं का वास न होकर दरिद्रा का वास होता है। अत: इस दिन पीपल की पूजा वर्जित मानी जाती है
यदि पीपल के वृक्ष को काटना बहुत जरूरी हो तो उसे रविवार को ही काटा जा सकता है।

शनि दोष में पीपल 
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शनि की साढ़ेसाती और ढय्या के बुरे प्रभावों को दूर कर,शुभ प्रभावों को प्राप्त करने के लिए हर जातक को प्रति शनिवार को पीपल की पूजा करना श्रेष्ठ उपाय है। 

यदि रोज (रविवार को छोड़कर) पीपल पर पश्चिममुखी होकर जल चढ़ाया जाए तो शनि दोष की शांति होती है l

शनिवार की सुबह गुड़, मिश्रित जल चढ़ाकर, धूप अगरबत्ती जलाकर उसकी सात परिक्रमा करनी चाहिए, एवं संध्या के समय पीपल के वृक्ष के नीचे कड़वे तेल का दीपक भी अवश्य ही जलाना चाहिए। इस नियम का पालन करने से पीपल की अदृश्य शक्तियां उस जातक की सदैव मदद करती है।

ब्रह्म पुराण' के 118 वें अध्याय में शनिदेव कहते हैं- 'मेरे दिन अर्थात् शनिवार को जो मनुष्य नियमित रूप से पीपल के वृक्ष का स्पर्श करेंगे, उनके सब कार्य सिद्ध होंगे तथा  उन्हें ग्रहजन्य पीड़ा नहीं होगी।'

शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष का दोनों हाथों से स्पर्श करते हुए 'ॐ नमः शिवाय।' का 108 बार जप करने से दुःख, कठिनाई एवं ग्रहदोषों का प्रभाव शांत हो जाता है।

हर शनिवार को पीपल की जड़ में जल चढ़ाने और दीपक जलाने से अनेक प्रकार के कष्टों का निवारण होता है ।

 ग्रहों के दोषों में पीपल 
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ज्योतिष शास्त्र में पीपल से जुड़े हुए कई आसान किन्तु अचूक उपाय बताए गए हैं, जो हमारे समस्त ग्रहों के दोषों को दूर करते हैं। जो किसी भी राशि के लोग आसानी से कर सकते हैं। इन उपायों को करने के लिए हमको अपनी किसी ज्योतिष से कुंडली का अध्ययन करवाने की भी आवश्यकता नहीं है।

पीपल का पेड़ रोपने और उसकी सेवा करने से पितृ दोष में कमी होती है । शास्त्रों के अनुसार पीपल के पेड़ की सेवा मात्र से ही न केवल पितृ दोष वरन जीवन के सभी परेशानियाँ स्वत: कम होती जाती है

पीपल में प्रतिदिन (रविवार को छोड़कर) जल अर्पित करने से कुंडली के समस्त अशुभ ग्रह योगों का प्रभाव समाप्त हो जाता है। पीपल की परिक्रमा से कालसर्प जैसे ग्रह योग के बुरे प्रभावों से भी छुटकारा मिल जाता है। (पद्म पुराण)

असाध्य रोगो में पीपल
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पीपल की सेवा से असाध्य से असाध्य रोगो में भी चमत्कारी लाभ होता देखा गया है ।
 
यदि कोई व्यक्ति किसी भी रोग से ग्रसित है
 वह नित्य पीपल की सेवा करके अपने बाएं हाथ से उसकी जड़ छूकर उनसे अपने रोगो को दूर करने की प्रार्थना करें तो जातक के रोग शीघ्र ही दूर होते है। उस पर दवाइयों का जल्दी / तेज असर होता है । 

यदि किसी बीमार व्यक्ति का रोग ठीक ना हो रहा हो तो उसके तकिये के नीचे पीपल की जड़ रखने से बीमारी जल्दी ठीक होती है ।

निसंतान दंपती संतान प्राप्ति हेतु पीपल के एक पत्ते को प्रतिदिन सुबह लगभग एक घंटे पानी में रखे, बाद में उस पत्ते को पानी से निकालकर किसी पेड़ के नीचे रख दें और पति पत्नी उस जल का सेवन करें तो शीघ्र संतान प्राप्त होती है । ऐसा लगभग 2-3 माह तक लगातार करना चाहिए ।
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पितृ दोष है या नहीं स्वयं जानें*

*पितृ दोष है या नहीं स्वयं जानें*

*हिन्दू धर्म में ज्योतिष को वेदों का छठा अंग माना गया है और किसी व्यक्ति की जन्म-कुण्डली देखकर आसानी से इस बात का पता लगाया जा सकता है कि वह व्याक्ति पितृ दोष से पीडित है या नहीं क्यों कि यदि व्यक्ति के पितृ असंतुष्ट होते हैं, वे अपने वंशजों की जन्म -कुण्डंली में पितृ दोष से सम्बंधित ग्रह-स्थितियों का सृजन करते हैं।*

*भारतीय ज्योतिष-शास्त्र के अनुसार जन्म-पत्री में यदि सूर्य-केतु या सूर्य-राहु का दृष्टि या युति सम्बंध हो, जन्म-कुंडली के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम व दशम भावों में से हो, तो इस प्रकार की जन्म-कुण्डली वाले जातक को पितृ दोष होता है। कुंडली के जिस भाव में ये योग होता है, उससे सम्बंधित अशुभ फल ही प्राथमिकता के साथ घटित होते हैं।*

*उदारहण के लिए यदि सूर्य-राहु अथवा सूर्य-केतु का अशुभ योग- प्रथम भाव में हो, तो वह व्यक्ति अशांत, गुप्त चिंता, दाम्पत्य एवं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियाँ होती हैं क्योंकि प्रथम भाव को ज्योतिष में लग्न कहते है और यह शरीर का प्रतिनिधित्व करता है।*

*दूसरे भाव में हो, तो धन व परिवार से संबंधित परेशानियाँ जैसे कि पारिवारिक कलह, वैमनस्य व आर्थिक उलझनें होती हैं।*

*तृतीय भाव मे होने पर साहस पराक्रम में कमी भाई बहन से वैमनस्य।*

*चतुर्थ भाव में हो तो भूमि, मकान, सम्पत्ति, वाहन, माता एवं गृह सुख में कमी या कष्ट होते हैं।*

*पंचम भाव में हो तो उच्च विद्या में विघ्न व संतान सुख में कमी होने के संकेत होते हैं।*

*छठे भाव मे होने पर गुप्त शत्रु बाधा पहुँचाते है कोर्ट कचहरी में पड़ने की संभावना बढ़ती है।*

*सप्तम भाव में हो तो यह योग वैवाहिक सुख व साझेदारी के व्योवसाय में कमी या परेशानी का कारण बनता है।*

*अष्टम भाव मे यह योग बनने से पिता से मतभेद पैतृक संपत्ति की हानि।*

*नवम भाव में हो, तो यह निश्चित रूप से पितृदोष होता है और भाग्य की हानि करता है।*

*दशम भाव में हो तो सर्विस या कार्य, सरकार व व्यवसाय संबंधी परेशानियाँ होती हैं।*

*एकादश एवं द्वादश भाव मे होने पर बने बनाए कार्य का नाश आय से खर्च अधिक होने पर आर्थिक उलझने बनती है।उपरोक्तानुसार किसी भी प्रकार की ग्रह-स्थिति होने पर अचानक वाहनादि के कारण दुर्घटना का भय, प्रेत बाधा, ज्वर, नेत्र रोग, तरक्की में रुकावट या बनते कार्यों में विघ्न, अपयश, धन हानि व मानसिक रोगों से सम्बं धित अनिष्ट फल प्राप्तक होते हैं।*

*पितृ दोष दो प्रकार से प्रभावित करता है।*

*अधोगति वाले पितरों के कारण और उर्ध्वगति वाले पितरों के कारण। अधोगति वाले पितरों के दोषों का मुख्य कारण परिजनों द्वारा किया गया गलत आचरण, परिजनों की अतृप्त इच्छाएं, जायदाद के प्रति मोह और उसका गलत लोगों द्वारा उपभोग होने पर, विवाहादि में परिजनों द्वारा गलत निर्णय, परिवार के किसी प्रियजन को अकारण कष्ट देने पर पितर क्रुद्ध हो जाते हैं , परिवार जनों को श्राप दे देते हैं और अपनी शक्ति से नकारात्मक फल प्रदान करते हैं।*

*उर्ध्व गति वाले पितर सामान्यतः पितृदोष उत्पन्न नहीं करते , परन्तु उनका किसी भी रूप में अपमान होने पर अथवा परिवार के पारंपरिक रीति- रिवाजों का निर्वहन नहीं करने पर वह पितृदोष उत्पन्न करते हैं। इनके द्वारा उत्पन्न पितृदोष से व्यक्ति की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति बिलकुल बाधित हो जाती है , फिर चाहे कितने भी प्रयास क्यों ना किये जाए,कितने भी पूजा पाठ क्यों ना किये जाएँ, उनका कोई भी कार्य ये पितृदोष सफल नहीं होने देता।*

*उपाय ज्ञानी आचार्य द्वारा नारायनबली एवं पितृ गायत्री के सवा लाख जप और इनका दशांश हवन कराने से लाभ मिलता है।अन्य सामान्य उपाय*

*1. सोमवती अमावस्या को (जिस अमावस्या को सोमवार हो) पास के पीपल के पेड के पास जाइये,उस पीपल के पेड को एक जनेऊ दीजिये और एक जनेऊ भगवान विष्णु के नाम का उसी पीपल को दीजिये,पीपल के पेड की और भगवान विष्णु की प्रार्थना कीजिये,और एक सौ आठ परिक्रमा उस पीपल के पेड की दीजिये,हर परिक्रमा के बाद एक मिठाई जो भी आपके स्वच्छ रूप से हो पीपल को अर्पित कीजिये। परिक्रमा करते वक्त :ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय" मंत्र का जाप करते जाइये। परिक्रमा पूरी करने के बाद फ़िर से पीपल के पेड और भगवान विष्णु के लिये प्रार्थना कीजिये और जो भी जाने अन्जाने में अपराध हुये है उनके लिये क्षमा मांगिये। सोमवती अमावस्या की पूजा से बहुत जल्दी ही उत्तम फ़लों की प्राप्ति होने लगती है। एक और उपाय है कौओं और मछलियों को चावल और घी मिलाकर बनाये गये लड्डू हर शनिवार को दीजिये।*

*2. शनिवार के दिन सूर्योदय से पूर्व कच्चा दूध तथा काले तिल नियमित रूप से पीतल के वृक्ष पर चढ़ाएं।*

*3. सोमवार के दिन आक के 21 फूलों से भगवान शिव जी की पूजा करने से भी पितृ दोष की शान्ति होती है।*

*4. अपने वंशजों से चांदी लेकर नदी में प्रवाहित करने तथा माता को सम्मान देने से परिजन दोष का समापन होता है।*

*5. परिवार के प्रत्येक सदस्य से धन एकत्र करके दान में देने तथा घर के निकट स्थित पीपल के पेड़ की श्रद्धापूर्वक देखभाल करने से दोष से छुटकारा मिलता है।*

*6. पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में विधिवत इमली का बांदा लाकर घर में रखने से पितृ दोष दूर होते हैं।*

*7. अपने इष्टदेव की नियमित रूप से पूजा-पाठ करने तथा कुत्ते को भोजन कराने से दोष का समापन होता है।*

*8. हनुमान जी की पूजा करने तथा बंदरों को चने और केले खाने को दें। भ्राता दोष से मुक्ति मिल जाएगी।*

*9. ब्रह्मा गायत्री का जप अनुष्ठान कराने से पितृ दोष से छुटकारा मिलता है।*

*10. घर की बड़ी-बूढ़ी स्त्री का नित्य चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद लें। मातृ दोष दूर हो जाएगा।*

*11. उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद या उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में ताड़ के वृक्ष की जड़ को घर ले आएं। उसे किसी पवित्र स्थान पर स्थापित करने से पितृ दोष दूर होता है।*

*12. प्रत्येक मास की अमावस्या को अंधेरा होने पर बबूल के वृक्ष के नीचे भोजन खाने से पितृ दोष नष्ट हो जाता है।*

*13. गाय को पालकर उसकी सेवा करें। मातृ दोष से मुक्ति मिलेगी।*

*14. प्रतिदिन देशी फिटकरी से दांत साफ करने से भगिनी दोष समाप्त हो जाता है।*

*15. किसी धर्मस्थान की सफाई आदि करके वहां पूजन करें प्रभु ऋण से छुटकारा मिल जाएगा।*

*16. वर्ष में एक बार किसी व्यक्ति को अमावस्या के दिन भोजन कराने, दक्षिणा एवं वस्त्र देने से ब्राह्मïण दोष का निवारण होता है।*

*17. अमावस्या के दिन घर में बने भोजन का भोग पितरों को लगाने तथा पितरों के नाम से ब्राह्मïण को भोजन कराने से पितृ दोष दूर हो जाते हैं।यदि छोटा बच्चा पितृ हो तो एकादशी या अमावस्या के दिन किसी बच्चे को दूध पिलाएं तथा मावे की बर्फी खिलाएं।श्राद्ध पक्ष में प्रतिदिन पितरों को जल और काले तिल अर्पण करने से पितृ प्रसन्न होते हैं तथा पितृ दोष दूर होता है।*

*18. सात मंगलवार तथा शनिवार को जावित्री और केसर की धूप घर में देने से रुष्ट पितृ के प्रसन्न होने से पितृ दोष से मुक्ति मिल जाती है।*

*19. अपने घर से यज्ञ का अनुष्ठान कराने से स्वऋण दूर होता है।*

*20. प्रतिदिन प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व उठकर सूर्यदेव को नमस्कार करके यज्ञ करने से पितृ दोष से छुटकारा मिल जाता है।*

*21. नाक-कान छिदवाने से भागिनी दोष का निवारण होता है।*

*22. देशी गाय के गोबर का कंडा जलाकर उसमें नित्य काले तिल, जौ, राल, देशी कपूर और घी की धूनी देने से पितृ दोष का समापन हो जाता है।*

*23. बेटी को स्नेह करने तथा चांदी की नथ पहनाने से भगिनी दोष से मुक्ति मिल जाती है।*

*24. भिखारी को भोजन और धन आदि से संतुष्ट करें। भ्राता दोष दूर हो जाएगा।*

*25. पशु-पक्षियों को रोटी आदि खिलाने से सभी प्रकार के दोषों का शमन हो जाता है।*
*🙏🏻🌹जय श्री महाकाल🌹🙏🏻*

प्राण क्या है ? उसका स्वरूप क्या है

प्राण क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? 
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हमने बहोत बार अपने जीवन में व्यवहारिक रूपसे "प्राण" शब्द का उपयोग किया है , परंतु हमे प्राण के वास्तविकता के बारमे शायद ही पता हो , अथवा तो हम भ्रांति से यह मानते है की प्राण का अर्थ जीव या जीवात्मा होता है , परंतु यह सत्य नही है , प्राण वायु का एक रूप है , जब हवा आकाश में चलती है तो उसे वायु कहते है , जब यही वायु हमारे शरीर में 10 भागों में काम करती है तो इसे "प्राण" कहेते है , वायु का पर्यायवाचि नाम ही प्राण है ।

मूल प्रकृति के स्पर्श गुण-वाले वायु में रज गुण प्रदान होने से वह चंचल , गतिशील और अद्रश्य है । पंच महाभूतों में प्रमुख तत्व वायु है । वात् , पित्त कफ में वायु बलिष्ठ है , शरीर में हाथ-पाँव आदि कर्मेन्द्रियाँ , नेत्र - श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रियाँ तथा अन्य सब अवयव -अंग इस प्राण से ही शक्ति पाकर समस्त कार्यों का संपादन करते है . वह अति सूक्ष्म होने से सूक्ष्म छिद्रों में प्रविष्टित हो जाता है । प्राण को रुद्र और ब्रह्म भी कहते है ।

प्राण से ही भोजन का पाचन , रस , रक्त , माँस , मेद , अस्थि , मज्जा , वीर्य , रज , ओज , आदि धातुओं का निर्माण, फल्गु ( व्यर्थ ) पदार्थो का शरीर से बाहर निकलना , उठना , बैठना , चलना , बोलना , चिंतन-मनन-स्मरण-ध्यान आदि समस्त स्थूल व् सूक्ष्म क्रियाएँ होती है . प्राण की न्यूनता-निर्बलता होने पर शरीर के अवयव ( अंग-प्रत्यंग-इन्द्रियाँ आदि ) शिथिल व रुग्ण हो जाते है . प्राण के बलवान् होने पर समस्त शरीर के अवयवों में बल , पराक्रम
आते है और पुरुषार्थ, साहस , उत्साह , धैर्य ,आशा , प्रसन्नता , तप , क्षमा आदि की प्रवृति होती है .
शरीर के बलवान् , पुष्ट , सुगठित , सुन्दर , लावण्ययुक्त , निरोग व दीर्घायु होने पर ही लौकिक व आध्यात्मिक लक्ष्यों की पूर्ति हो सकती है . इसलिए हमें प्राणों
की रक्षा करनी चाहिए अर्थात शुद्ध आहार , प्रगाढ़ निंद्रा , ब्रह्मचर्य , प्राणायाम आदि के माध्यम से शरीर को प्राणवान् बनाना चाहिए . परमपिता परमात्मा
द्वारा निर्मित १६ कलाओं में एक कला प्राण भी है . ईश्वर इस प्राण को जीवात्मा के उपयोग
के लिए प्रदान करता है . ज्यों ही जीवात्मा किसी शरीर में प्रवेश करता है , प्राण भी उसके साथ
शरीर में प्रवेश कर जाता है तथा ज्यों ही जीवात्मा
किसी शरीर से निकलता है , प्राण भी उसके साथ निकल जाता है . श्रुष्टि की आदि में परमात्मा ने सभी जीवो को सूक्ष्म शरीर और प्राण दिया जिससे जीवात्मा प्रकृति से संयुक्त होकर शरीर धारण करता है । सजीव प्राणी नाक से श्वास लेता है , तब वायु कण्ठ में जाकर विशिष्ठ रचना से वायु का
दश विभाग हो जाता है। शरीर में विशिष्ठ स्थान और कार्य से प्राण के विविध नाम हो जाते है । प्रस्तुत चित्र में प्राणों के विभाग , नाम , स्थान , तथा कार्यों का वर्णन किया गया है .

मुख्य प्राण
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१. प्राण ,

२. अपान,

३. समान,

४. उदान

५. व्यान

और उपप्राण भी
पाँच बताये गए है ,

१. नाग

२. कुर्म

३. कृकल

४. देवदत

५. धनज्जय

५ बताए गए है जिनके नाम इस प्रकार है ,

और उपप्राण पांच बताये गए है ,

१. नाग

२. कुर्म

३. कृ

४. देवदत

५. धनज्जय

मुख्य प्राण और उपप्राण का स्वरूप ?
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मुख्य प्राण :-

१. प्राण :- इसका स्थान नासिका से ह्रदय तक है . नेत्र , श्रोत्र , मुख आदि अवयव इसी के सहयोग से कार्य करते है . यह सभी प्राणों का राजा है . जैसे राजा अपने अधिकारीयों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है , वैसे ही यह भी अन्य अपान आदि प्राणों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है

२. अपान :- इसका स्थान नाभि से पाँव तक है , यह गुदा इन्द्रिय
द्वारा मल व वायु को उपस्थ ( मुत्रेन्द्रिय) द्वारा मूत्र व वीर्य को योनी द्वारा रज
व गर्भ का कार्य करता है .

३. समान :- इसका स्थान ह्रदय से नाभि तक बताया गया है. यह खाए हुए अन्न को पचाने तथा पचे हुए अन्न से रस , रक्त आदि धातुओं को बनाने का कार्य करता
है .

४. उदान :- यह कण्ठ से सिर ( मस्तिष्क ) तक के अवयवों में रहेता है , शब्दों का उच्चारण , वमन ( उल्टी ) को निकालना आदि कार्यों के अतिरिक्त यह अच्छे कर्म करने वाली जीवात्मा को अच्छे लोक ( उत्तम योनि ) में , बुरे कर्म करने वाली जीवात्मा को बुरे लोक ( अर्थात सूअर , कुत्ते आदि की योनि )
में तथा जिस आत्मा ने पाप - पुण्य बराबर किए हों ,
उसे मनुष्य लोक ( मानव योनि ) में ले जाता है ।

५. व्यान :- यह सम्पूर्ण शरीर में रहेता है । ह्रदय से मुख्य १०१ नाड़ीयाँ निकलती है , प्रत्येक नाड़ी की १००-१०० शाखाएँ है तथा प्रत्येक शाखा की भी ७२००० उपशाखाएँ है । इस प्रकार कुल ७२७२१०२०१ नाड़ी
शाखा- उपशाखाओं में यह रहता है। समस्त शरीर में रक्त-संचार , प्राण-संचार का कार्य यही करता है तथा अन्य प्राणों को उनके कार्यों में सहयोग भी देता है ।

उपप्राण :-
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१. नाग :- यह कण्ठ से मुख तक रहता है । उदगार (डकार ) , हिचकी आदि कर्म इसी के द्वारा होते है ।

२. कूर्म :-
इसका स्थान मुख्य रूप से नेत्र गोलक है , यह नेत्रा गोलकों में रहता हुआ उन्हे दाएँ -बाएँ , ऊपर-नीचे घुमाने की तथा पलकों को खोलने बंद करने की किया करता है । आँसू भी इसी के सहयोग से निकलते है ।

३. कूकल :- यह मुख से ह्रदय तक के स्थान में रहता है तथा जृम्भा ( जंभाई =उबासी ) , भूख , प्यास आदि को उत्पन्न करने का कार्य करता है ।

४. देवदत्त :- यह नासिका से कण्ठ तक के स्थान में रहता है । इसका कार्य छिंक , आलस्य , तन्द्रा , निद्रा आदि को लाने का है ।

५. धनज्जय :- यह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक रहता है , इसका कार्य शरीर के अवयवों को खिचें रखना
, माँसपेशियों को सुंदर बनाना आदि है । शरीर में से जीवात्मा के निकल जाने पर यह भी बाहर निकल जाता है , फलतः इस प्राण के अभाव में शरीर फूल जाता है ।

जब शरीर विश्राम करता है , ज्ञानेन्द्रियाँ , कर्मेन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है , मन शांत हो जाता है । तब प्राण और जीवात्मा जागता है । प्राण के संयोग से जीवन और प्राण के वियोग से मृत्यु होती है ।

जीव का अंन्तिम साथी प्राण है ।
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अतिमहत्वपूर्ण जानकारी*

*अतिमहत्वपूर्ण जानकारी*
एक: एक केवल ईश्वर है।यही अनेकों नाम से प्रसिद्ध है ।
एक: माया या प्रकृति।
एक देवॠषि  नारद।
दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी।
दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।
दो पदार्थ :शुद्ध और अशुद्ध ।
तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, गैस।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।
तीनसृष्टिभेद:प्राकृत, वैकृत तथा प्राकृत वैकृत ।
चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार धर्मधर्माचरण : विद्या, दान,तप,और सत्य ।
चार ब्रह्मचर्यवृत्तियां: सावित्र,प्राजापत्य,ब्राम्ह और बृहत्।
चार गृहस्थवृत्तियां: वार्ता, संचय,शालीन् और शिलोञ्छ ।
चार वानप्रस्थवृत्तियां  :वैखानस,बालखिल्य,औदुम्बर और फेनफ।
चार व्याहृतियां:  भू,भुव:,स्व:,तथा मह:।
चार ॠषि: सनत् सनन्दन,सनातन, सनत्कुमार चारसंन्यासवृत्तियां :कुटीचक,बहूदक,हंस,औरनिष्क्रिय(परमहंस )
चार विद्यायें:  आन्वीक्षिकी,त्रयी,वार्ता औरदण्डनीति ।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।
चार अन्त:करण मन,बुद्धि, चित्त तथा अंहकार।
पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच  उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य।

सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।

आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।

दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।

उक्त जानकारी वेदों के आधार पर.
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*पाखंडी ज्योतिषियों की खीचड़ी -*


*पाखंडी ज्योतिषियों की खीचड़ी -* 

ज्योतिष का धर्म के जन्मना जातिवाद सिद्धांतों के साथ समन्वय करके ही विवाहेच्छुकों की कुंडलीमिलान व अष्टकुटमेल आदि करना शास्त्र सम्मत हैं। पहिले ज्योतिषियों को यह जानना आवश्यक हैं कि जन्मना जात्यंतर्गत ब्राह्मणलड़के के साथ ब्राह्मणलड़की, क्षत्रियलड़के के साथ क्षत्रियलड़की, वैश्यलड़के के साथ वैश्यलड़की, शूद्रलड़के के साथ शूद्रालड़की, 
इस तरह अनुलोम तथा प्रतिलोम व मिश्रवर्णसंकर  जातकों के लड़के लडकीयाँ अपनी अपनी ही जाति,अनुलोमजाति, प्रतिलोमजाति तथा मिश्रवर्णसंकर जाति में ही समन्वयरिति से मेलापक हो वही धर्मशास्त्र-संगत सैद्धांतिक-न्याय हैं। परंतु धंधेबाज-ज्योतिषियों ग्राहकों की भीड़भाँड का ही आग्रह करने लगकर समानजाति का समन्वय नहीं करते। द्वापरतक ब्राह्मण और क्षत्रियों का वैश्यतक अनुलोम समन्वय मान्य था क्योंकि क्षत्रिय और वैश्य स्वधर्म के पथपर रहकर उचित समयमर्यादा में अपने जनेऊ-संस्कार करवाकर अपने वर्णोचित द्विजधर्म का यथायोग्य पालन करते थे। कलियुग में तो व्रात्यों के संतान के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध अवैध हैं।  (इस तरह समानगोत्र समानप्रवर के विवाहसम्बन्ध अवैध हैं-जनित संतान चांडालत्व को प्राप्त होती हैं)।  ऐसा भी नहीं कि व्यवसाय के स्थान पर ही यह हो रहा हैं परंतु हद तो यह हैं कि वोट्सएप पर यह खीचडी़-धंधा बडी जोरी से चल रहा हैं। हम अद्यावधि चारवर्ष तक  सोशियल सम्पर्क में आएँ अनेक ग्रूपों में रहचूके हैं वहाँ यह धंधेबाज लड़के लड़कीयों की कुड़ली डालते रहते थे और पाखंडी खीचड़ीबाजों अपनी ज्योतिषविद्या के घमंड में अवैधसम्बन्ध भी मिला देते थे। वारंवार यह दैखकर हमने अनेकोवार इन खीचड़ीबाजों को सावध किया हैं, हमारे साथ ग्रूपों में बहस होती रहती थी हमसे थककर हमें ही ग्रूप से विलग करने लगे थे तब से किसी भी ग्रूप में हम टीकना ही नहीं चाहते । परंतु यह खीचड़ीबाज अभि भी कुछ हद तक वोट्सएप आदि  मैसन्जर के माध्यम से केवल व केवल अपनी विद्या को मलिन करते हुए समाज में बहुत भारी मात्रा से *#वर्णसंकरता* फैलाने के काम में लगे हैं। 
इन लूटैरों से सावधान रहीये नहीं तो अपने ही लड़के लड़कीयों को ये धूर्तों भगवा भी देंगे।

भारत और इंडिया में अंतर !!!!!!!

भारत और इंडिया
में अंतर !!!!!!!

अंग्रेजो ने एक ऐसा इंडिया
का निर्माण किया जो भारत
से घृणा करता है,जिसके लिए 
भारत की हर बात अंधविश्वास,
अवैज्ञानिकता,दकियानूसी सोच 
और पिछड़ेपन का प्रतीक है, 
जो इतनी अधिक हीन भावना 
से ग्रस्त है कि उसके लिए 
अमेरिका,यूरोप स्वर्ग है।

संविधान में bold अक्षरों
में लिख दिया,
"India that was Bharat"
भारत कहीं खो गया !😢

इंडिया की हर सोच प्रगति
की निशानी वहाँ के औरतों
के नंगेपन में उसे नारी स्वतंत्रता 
का दर्शन होता है।

एक अवैज्ञानिक भाषा अंग्रेजी 
उसे विश्वभाषा दिखाई देती है।

वहाँ का अज्ञान उसकी दृष्टि में 
विज्ञान है।

इंडिया की क्रूरता में उसके 
साहस और उसकी कायरता
में अहिंसा का दर्शन होता है। 

इंडिया लूट से एकत्रित संपत्ति 
की ओर न देख वह उसे एक 
विकसित राष्ट्र कहता है।

अंग्रेज जाते जाते एक संधि के 
अनुसार यहाँ के गाँधी-नेहरु को 
सत्ता सौंप गए लेकिन विभाजन 
से पीड़ित हमलोगोंको का ध्यान 
इस ओंर नही गया। 

अंग्रेजो के जाने को ही
हमने आजादी मान ली।

15 अगस्त 1947 से पहले 
भारत अंग्रेजो का गुलाम था 
और आज इंडिया का गुलाम है। 

व्यक्ति हो या देश जब अपनी 
प्रकृति का विरोध करने लगता 
है,तो वह बीमार हो जाता है। 

जब तक वह अपनी या देश की 
प्रकृति को नहीं समझता स्वस्थ 
नही हो सकता।

भारत ऋषि प्रधान राष्ट्र था; 

ऋषि अर्थात जिन्होंने जड़
से ऊपर एक चेतन तत्त्व का 
साक्षातकार किया था उनका 
उद्देश्य शरीर की सीमा में अपने 
आपको बांधने की प्रवृत्ति से 
मनुष्य को मुक्त करना रहा। 

भोग में डूबा व्यक्ति शरीर की 
सीमा से मुक्त नही हो सकता,
इसलिए ऋषियों ने त्याग को 
महत्व दिया और भोग की 
निःसारता को समझ उसे
त्यागना ही उचित समझा। 

भौगोलिक दृष्टि से भारत का 
सम्बंध जितने भी देश से रहा
हो लेकिन भारत की संस्कृति 
का प्रभाव पूरी दुनिया पर था।

भारत पर अंग्रेजों,मुगलों का 
आक्रमण केवल एक देश का 
दुसरे देश पर आक्रमण ही नही 
था अपितु यह असुरों का ऋषि 
संस्कृति पर आक्रमण था। 

असुर अर्थात शरीर को ही
सब कुछ मानने वाले।

शरीर को ही सबकुछ मानने
से शरीर को भोगों से तृप्त करने 
के लिए अधिक से अधिक भोग 
जुटाना ही एक मात्र उद्देश्य रह 
जाता है।

इसके लिए अधिक से अधिक 
लोगों के अधिकार छीनना 
अधिकाधिक को अपने वश
में करना बहुत बड़ा गुण मन 
जाता है।

यह अत्यन्त स्वाभाविक है
की जहाँ त्याग की प्रवृत्ति वाले 
अधिक हो वहाँ भोग की सामग्री 
प्रचुर मात्रा में ही होगी इसलिए 
भारत पर हमेशा से असुरों का 
आक्रमण होता रहा और कई 
बार असुरों का राज्य स्थापित 
हो गया। 

#इंडिया_असुरों_को_आदर्श
#मानने_वालों_का_देश_है। 

रामायण का युद्ध सरल था 
क्योंकि उसमे एक पक्ष में धर्म 
था और एक पक्ष में अधर्म था 
जबकि महाभारत का युद्ध 
जटिल था।

उसमे दोनों पक्ष में अपने ही 
प्रियजन थे। 

आज भी यही स्थिति हमारी है,
आज भारत का युद्ध इंडिया से 
है इसलिए यह युद्ध बहुत ही 
जटिल है। 

ब्रेनवाश होने और मेकाले की 
शिक्षा गले में उतारने  से बहुत 
से युवा उस अंग्रेजो के बनाये 
इंडिया के खेमे में है।

जयति पुण्य सनातन संस्कृति★
जयति पुण्य भूमि भारत★

सदा सर्वदासुमंगल★
जय भवानी★
जय श्री राम★

गुरुप्रतिपदा व श्री नृसिंहसरस्वतीस्वामी महाराज शैल्यगमन

गुरुप्रतिपदा व श्री नृसिंहसरस्वतीस्वामी महाराज  शैल्यगमन

गुरु प्रतिपदा या दिवशी श्रीनृसिंह सरस्वती स्वामी महाराज कर्दळी वनात गुप्त झाले निजगमनास जातांना स्वतःच्या निर्गुण पादुका स्वामींनी श्री क्षेत्र गाणगापूर येथे सेवेकरिता ठेवल्या.
माघ कृष्ण प्रतिपदा. या तिथीला अतीव प्रेमादराने"श्रीगुरुप्रतिपदा" असे संबोधले जाते. त्याचे कारणही तसेच आहे. द्वितीय श्रीदत्तावतार भगवान श्री नृसिंहसरस्वती सरस्वती स्वामी महाराजांनी याच पावन तिथीला शैल्यगमन केले होते. श्रीगुरुप्रतिदा हा खूप वैशिष्ट्यपूर्ण उत्सव आहे. याच पुण्यपावन तिथीला अनेक उत्सव असतात. अशा सर्व सुयोगांमुळे श्रीगुरुप्रतिपदा ही फार विशेष पुण्य-तिथी असून सर्वच गुरु संप्रदायांमध्ये मोठ्या प्रमाणावर साजरी होते. 
आजच्या तिथीला भगवान श्रीमन्नृसिंह सरस्वती स्वामी महाराजांनी श्रीक्षेत्र गाणगापूर येथे आपल्या 'निर्गुण पादुका' स्थापन करून शैल्यगमन केले होते. म्हणून हा उत्सव गाणगापूरला खूप भव्य दिव्य स्वरूपात साजरा होत असतो हा दिवस श्री क्षेत्र गाणगापूर येथे फार मोठ्या प्रमाणात साजरा होतो.

गाय से जुड़ी कुछ रोचक जानकारी ।

गाय से जुड़ी कुछ रोचक जानकारी ।
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1. गौ माता जिस जगह खड़ी रहकर आनंदपूर्वक चैन की सांस लेती है । वहां वास्तु दोष समाप्त हो जाते हैं । 
      
2. जिस जगह गौ माता खुशी से रभांने लगे उस जगह देवी देवता पुष्प वर्षा करते हैं । 

3. गौ माता के गले में घंटी जरूर बांधे ; गाय के गले में बंधी घंटी बजने से गौ आरती होती है । 

4. जो व्यक्ति गौ माता की सेवा पूजा करता है उस पर आने वाली सभी प्रकार की विपदाओं को गौ माता हर लेती है । 

5. गौ माता के खुर्र में नागदेवता का वास होता है । जहां गौ माता विचरण करती है उस जगह सांप बिच्छू नहीं आते । 

6. गौ माता के गोबर में लक्ष्मी जी का वास होता है ।

7. गौ माता कि एक आंख में सुर्य व दूसरी आंख में चन्द्र देव का वास होता है ।

8. गौ माता के दुध मे सुवर्ण तत्व पाया जाता है जो रोगों की क्षमता को कम करता है। 

9. गौ माता की पूंछ में हनुमानजी का वास होता है । किसी व्यक्ति को बुरी नजर हो जाये तो गौ माता की पूंछ से झाड़ा लगाने से नजर उतर जाती है । 

10. गौ माता की पीठ पर एक उभरा हुआ कुबड़ होता है , उस कुबड़ में सूर्य केतु नाड़ी होती है । रोजाना सुबह आधा घंटा गौ माता की कुबड़ में हाथ फेरने से रोगों का नाश होता है । 

11. एक गौ माता को चारा खिलाने से तैंतीस कोटी देवी देवताओं को भोग लग जाता है ।

12. गौ माता के दूध घी मख्खन दही गोबर गोमुत्र से बने पंचगव्य हजारों रोगों की दवा है । इसके सेवन से असाध्य रोग मिट जाते हैं ।

13. जिस व्यक्ति के भाग्य की रेखा सोई हुई हो तो वो व्यक्ति अपनी हथेली में गुड़ को रखकर गौ माता को जीभ से चटाये गौ माता की जीभ हथेली पर रखे गुड़ को चाटने से व्यक्ति की सोई हुई भाग्य रेखा खुल जाती है । 

14. गौ माता के चारो चरणों के बीच से निकल कर परिक्रमा करने से इंसान भय मुक्त हो जाता है ।

15. गौ माता के गर्भ से ही महान विद्वान धर्म रक्षक गौ कर्ण जी महाराज पैदा हुए थे। 

16. गौ माता की सेवा के लिए ही इस धरा पर देवी देवताओं ने अवतार लिये हैं । 

17. जब गौ माता बछड़े को जन्म देती तब पहला दूध बांझ स्त्री को पिलाने से उनका बांझपन मिट जाता है । 

18. स्वस्थ गौ माता का गौ मूत्र को रोजाना दो तोला सात पट कपड़े में छानकर सेवन करने से सारे रोग मिट जाते हैं । 

19. गौ माता वात्सल्य भरी निगाहों से जिसे भी देखती है उनके ऊपर गौकृपा हो जाती है । 
20. काली गाय की पूजा करने से नौ ग्रह शांत रहते हैं । जो ध्यानपूर्वक धर्म के साथ गौ पूजन करता है उनको शत्रु दोषों से छुटकारा मिलता है । 

21. गाय एक चलता फिरता मंदिर है । हमारे सनातन धर्म में तैंतीस कोटि देवी देवता है ,
हम रोजाना तैंतीस कोटि देवी देवताओं के मंदिर जा कर उनके दर्शन नहीं कर सकते पर गौ माता के दर्शन से सभी देवी देवताओं के दर्शन हो जाते हैं । 

22. कोई भी शुभ कार्य अटका हुआ हो बार बार प्रयत्न करने पर भी सफल नहीं हो रहा हो तो गौ माता के कान में कहिये रूका हुआ काम बन जायेगा !

 23. गौ माता सर्व सुखों की दातार है । 

हे मां आप अनंत ! आपके गुण अनंत ! इतना मुझमें सामर्थ्य नहीं कि मैं आपके गुणों का बखान कर सकूं ।

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🌷जय गाय माता दी 🌷
      🌿🙏🌿
  🌷जय श्री कृष्णा🌷