Tuesday, March 12, 2019

हम आनेवाली पीढ़ी को संस्कारवान कैसे बनायें ?

हम आनेवाली पीढ़ी को संस्कारवान कैसे बनायें ?????

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥

भावार्थ:-श्री रघुनाथजी प्रातःकाल उठकर माता-पिता और गुरु को मस्तक नवाते हैं और आज्ञा लेकर नगर का काम करते हैं। उनके चरित्र देख-देखकर राजा मन में बड़े हर्षित होते हैं॥

क्या आप अपने बच्चों को या पोते-पोतीयों को नैतिक और चरित्र और आचरण की शिक्षा कैसे दोगे? यह जटिल प्रश्न हैं और इस प्रश्न का उत्तर खोजना है,  नैतिकता से परिपूर्ण शिक्षा से ही बालक में प्रशंसनीय आचरण तथा नैतिक चरित्र का विकास हो सकता है, समाज में भारतीय प्रणाली के अनुसार बालक को शिक्षा का अधिकार है, और आपका का यह मुख्य कर्तव्य है।

इस महान कार्य की पूर्ति भी शिक्षा के वांछनीय उदेश्यों के बिना नहीं हो सकती, यदि शिक्षा के उद्देश्य धर्म तथा दर्शन पर आधारित होंगे तो उनका सम्बन्ध व्यक्ति के जीवन से अत्यन्त प्रशंसनीय होगा, ऐसे उदेश्यों द्वारा प्रदान की हुई शिक्षा से बालकों में उत्तम आचरण के द्वारा उत्तम चरित्र को विकसित करने की इच्छा दिन-प्रतिदिन उत्पन्न होती रहेगी।

शिक्षा के उदेशों का व्यक्ति के जीवन से अट्टू सम्बन्ध होता है, यदि शिक्षा के उद्देश्य व्यक्ति के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहेंगे तो निश्चित ही उसके व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास होता रहेगा, सफल जीवन के लिए यह भी आवश्यक है, कि प्रत्येक व्यक्ति अच्छे-बुरे, सत्य-असत्य, नैतिक-अनैतिक, हितकर तथा अहितकर कार्यों और विचारों में अन्तर समझ सकें, तथा उनका मुल्यांकन करके उचित निर्माण की क्षमता विकसित हो जाएगी, अन्यथा नहीं।

प्रत्येक व्यक्ति को आत्मसुरक्षा करना परम आवश्यक है, शिक्षा के अच्छे उदेश्य व्यक्ति में इतनी क्षमता पैदा कर सकते हैं कि वह जीवन की प्रत्येक आकस्मिक घटनाओ का सामना करके अपने आप की सुरक्षा कर सकता है, व्यक्ति कि यह इच्छा सदैव बनी रहती है कि वह एक ऐसे समाज का निर्माण करे जिसमें रहते हुए उसे अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिक से अधिक अवसर प्राप्त हो सकें, व्यक्ति की यह इच्छा उस समय पूरी हो सकती है जब उसके जीवन तथा शिक्षा के उदेश्यों में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो जाये।

शिक्षा के उदेश्य बालकों में सामाजिक भावना को विकसित करके उन्हें इस योग्य बना सकते हैं कि वे सामाजिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग लें सकें, यदि शिक्षा के उदेश्य वांछनीय है तो बालकों में सामाजिक भावना की वृद्धि अवश्य हो जाएगी, अन्यथा नहीं, भाई-बहनों, जिस प्रकार शिक्षा के उदेश्यों का व्यक्ति के जीवन से सम्बन्ध है, उसी प्रकार शिक्षा के उद्देश्यों का समाज की आवश्यकताओं से भी अटूट सम्बन्ध होता है।

मानव सभ्यता का इतिहास इस तथ्य की पुष्टि करता है जब भी कभी किसी समाज में शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण किया है, उसने सबसे पहले अपने आदर्शों तथा आवश्यकताओं को ही सामने रखा है, जैसा समाज होता है उसी के अनुसार शिक्षा के उदेश्यों की रचना हो जाती है, वर्तमान समाज के विभिन्न रूप है, प्रत्येक समाज ने अपने-अपने आदर्शों के अनुसार शिक्षा के उदेश्यों की रचना की है।

भौतिक जगत की तुलना में आध्यात्मिक सत्य मूल्यों को प्राप्त करना परम आवश्यक है, इस महान कार्य को उसी समय पूरा किया जा सकता है, जब शिक्षा का संगठन करते समय आध्यात्मिक मूल्यों को विकसित करने पर बल दिया जाये, इसी दृष्टि से आदर्शवादी समाज में विचार तथा बुद्धि को विशेष महत्व देते हुए आध्यात्मिक विकास के आदर्श को ध्यान में रखकर शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण किया जाता है।

इन उदेश्यों में चरित्र गठन तथा नैतिक विकास शिक्षा के मुख्य उदेश्य है, भौतिकवादी समाज में भौतिक सम्पन्नता को प्रमुख स्थान दिया जाता है, ऐसे समाज में नैतिक आदर्शों, आध्यात्मिक मूल्यों, रचनात्मक कार्यों तथा विवेक आदि के विकास पर कोई ध्यान न देते हुए शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण केवल भौतिक सुखों की उन्नति के लिए किया जाता है, जिससे वह समाज धनधान्य से परिपूर्ण हो जाये।

प्रयोजन वादी विचारधारा आदर्शवादी दर्शन के बिलकुल विपरीत हैं, प्रयोजनवादी, आदर्शवादीयों की भांति पारलोकिक जीवन को महत्व न देते हुए केवल भौतिक जगत को ही सब कुछ समझते हैं, प्रयोजनवादी इस बात में विश्वास नहीं करते कि अंतिम तथा आध्यात्मिक स्वरुप क्या है, वे आदर्शवादीयों की भांति पूर्व-निश्चित आदर्शों तथा मान्यताओं को स्वीकार नहीं करते।

उसका विश्वास है कि सत्य सदैव देश, काल तथा परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है, उनके अनुसार सत्य की कसौटी उनका पुननिरिक्षण है, अत: यदि कोई सत्य किसी परिस्थिति में सत्य सिद्ध नहीं होता, तो वह असत्य है, चूँकि प्रयोजनवादी के अनुसार सत्य परिवर्तनशील है, इसलिए प्रयोजनवादी समाज में विचार की अपेक्षा क्रिया तथा बुद्धि की अपेक्षा परिस्थिति को अधिक महत्व देते हुये केवल नविन मूल्यों के निर्माण करने को ही शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य माना जाता है।

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