Sunday, March 10, 2019

ध्यान क्या है ?

आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र (प्रशासनिक सेवा) ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~:
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                    भाग--10 व 11
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परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म ज्ञानगंगा

पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन

     ---अ-मन में जीवन की एकता का बोध---

    मन की चार अवस्थाएं है--चेतन मन की अवस्था (State of Conscious Mind), अर्धचेतन मन की अवस्था (State of Sub-Conscious Mind), अवचेतन मन की अवस्था (State of Unconscious Mind) और अ-मन की अवस्था (State of No-Mind)।
       चेतन मन की अवस्था को हम सब अच्छी तरह से जानते हैं। मन की जिस अवस्था में हम दिन-रात काम करते हैं, व्यवसाय करते हैं, नौकरी करते हैं, उठते-बैठते, चलते-फिरते, जागते हैं, वह है--चेतन मन की अवस्था। अर्ध चेतन मन की अवस्था में व्यक्ति चेतन अवस्था से ज्यादा सच्चा और ईमानदार हो जाता है, वह बेहोशी में कुछ बडबडाता है, नशे की स्थिति में कुछ बोलता है--जो अधिकतर सच्चाई के निकट का होता है। ऐसी बेहोशी या नशे की दशा से मुक्त होने पर उसे कुछ भी स्मरण नहीं रहता क्योंकि उसका बोलना और कुछ करना उसके  Sub-Conscious State of Mind के क्षेत्र का विषय होता है जो होश की स्थिति में गायब हो जाता है। इसके पीछे का कारण यह नहीं है कि वह झूठ बोल रहा है, बल्कि यह है कि उसके मन का आयाम ही बदल गया है। होश में आने पर उसके मन का आयाम चेतन हो जाता है।
    अवचेतन या अचेतन मन की अवस्था यदि और गहरी और बड़ी हो जाती है तो व्यक्ति कोमा में जा सकता है। ऐसी स्थिति में फिर उसके चेतन अवस्था में लौटने की संभावना नाममात्र की ही रह जाती है। जब कोई व्यक्ति किसी को बहुत गहराई के अन्तराल में सम्मोहन विधि द्वारा ले जाता है तो वह अपने जीवन के पीछे की अवस्था में चला जाता है, युवावस्था, किशोरावस्था, शैशवास्था यहां तक कि जन्म के समय की भी अवस्था। ज्यादा सावधानी के द्वारा तो वह पिछले जन्म में और कई जन्म पीछे चला जाता है। लेकिन अर्धचेतन मन की अवस्था से ज्यादा कहीं गहरी अवस्था होती है अचेतन मन की अवस्था।
      मन की एक विशेषता या कहें कि कमी यह है कि वह किसी वस्तु को देखता है तो उसे तोड़कर देखता है। मन की इस प्रक्रिया में जीवन खण्ड-खण्ड हो जाता है।
      हमारा मन जिस वस्तु को देखता है, चाहे वह बडी हो या छोटी हो, उसे दो हिस्सों में बांटकर ही देखता है। एक साथ एक वस्तु को कभी नहीं देख पाता। वह देखेगा तो एक हिस्सा छिपा रहेगा। आज तक किसी व्यक्ति के मन ने किसी भी वस्तु को सम्पूर्णता में नहीं देखा। इसलिए जहाँ भी मन होगा, अपूर्ण अनुभव ही होगा क्योंकि मन की एक सीमा होती है। सीमा से परे जाकर वह कोई कार्य नहीं कर सकता। उसका अनुभव अपूर्ण होगा, विचार अपूर्ण होगा, अपूर्ण ही दृष्टि होगी। इसलिए मन के द्वारा हम जो निर्माण करते हैं, वह निर्माण काल्पनिक हो जाता है।
      हम लोग जो फेसबुक पर बात करते हैं, चर्चा करते हैं, जो लिखते हैं, पढ़ते हैं, वहस करते हैं और दावा करते हैं कि हम सही हैं, तुम गलत हो। हम अ-मन की अवस्था में हैं, हम आत्मा का साक्षात्कार कर चुके हैं, हम सूक्ष्म शरीर से सूक्ष्म जगत और लोक-लोकान्तरों में भ्रमण करते हैं। हमारी विधि सही है, उसमें अमुक विशेषता है। तुम्हारी विधि अपूर्ण है, उसमें अमुक कमी है, मैं तुम्हारी विधि से सहमत नहीं हूँ। उनसे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। अरे ! इसमें कौन-सी खास बात कह दी आपने ? जब शास्त्रों में एकता नहीं है, दर्शन में एकता नहीं है, तो व्यक्ति की बात में एकता कैसे हो सकती है ? साम्य हो भी कैसे सकता है ? अरे भाई ! विषमता ही तो सृष्टि की विशेषता है, असमानता ही तो विश्व की जान है। विभिन्नता ही, मत-भिन्नता ही तो प्रकृति का अस्तित्व है। जहाँ भिन्नता समाप्त हुई, वहीँ प्रलय निश्चित है।  त्रिगुणात्मिका प्रकृति की साम्यावस्था में ही तो प्रलय होती है। हम सब जानते हैं--हमारे विचार एक से नहीं हो सकते, हमारे कार्य-आचरण एक से नहीं हो सकते, हमारे मन एक से नहीं हो सकते। यहाँ तक कि हमारे शरीरों की बनावट भी एक सी नहीं हो सकती। हमारे चेहरे एक से नहीं हो सकते, नाक, कान, नेत्र, हाथ, पैर सब अलग- अलग होते हैं तो दो व्यक्तियों के विचार, सिद्धान्त, सोचने-विचारने के आयाम भी एक से कैसे हो सकते हैं ? इसलिए मन से निर्मित संसार में जितने भी शास्त्र हैं, जितने भी दर्शन हैं, वे एक तरह से व्यर्थ हैं, पूर्णता की ओर ले जाने वाले नहीं हैं।
      संसार में दो प्रकार के लेखन हुए हैं--पहला वह जो उन लोगों के वचन हैं जिन्होंने मन के अस्तित्व से अलग होकर आत्मा द्वारा पूर्ण को जाना है। दूसरा वह है जो उन लोगों के वचन हैं जिन्होंने मन को व्यवस्थित कर, शिक्षित कर, अध्ययन से, विचार से, चिंतन-मनन से, तर्क से, अनुभवों से मन को विकसित किया है और फिर जगत और माया को लिपिबद्ध किया। पहला लेखन 'धर्म' कहलाया और दूसरा लेखन 'दर्शन' या 'शास्त्र' कहलाया। धर्म और दर्शन में यही अन्तर है और यही कारण है कि जितने भी शास्त्र हैं, वे सब अधूरे हैं। वे कितनी भी ऊँची बात कहें, लेकिन होगी वह 'मन की ही बात'।
     अरस्तू कितना ही कहे, प्लेटो कितना ही कहे, कांट और हीगल भी कितना ही कहें, वे सब उनके विचार हैं, निष्कर्ष हैं, अनुभव है, लेकिन 'अनुभूति' नहीं। मन से जन्म लेता है-दर्शन और मन के ऊपर उठ जाने पर अर्थात्--अ-मन की अवस्था में जो उत्पन्न होता है, वह है धर्म। अ-मन की स्थिति में जो घटित होता है--वह है आत्मा की क्रिया और मन की उपस्थिति में जो घटित होता है--वह है--प्रतिक्रिया। प्रतिक्रिया क्रिया को देखकर जानबूझ कर की जाती है, इसलिए उसमें दुर्भावना आ जाती है, उसके उद्देश्य और प्रयोजन कलुष से भर जाते हैं। भारत का सनातन धर्म मन से ऊपर उठकर अ-मन की अवस्था में  उत्पन्न हुआ है। जबकि संसार के अन्य धर्म (उन्हें तो सही मायने धर्म ही नहीं कहा जा सकता) क्रिया की प्रतिक्रया स्वरुप उत्पन्न हुए हैं। इसलिए वे सब लड़ाते हैं। सनातन धर्म जोड़ता है--मानव से मानव को, मानव से प्राणिमात्र को और मानव से जड़ वस्तु को भी। सनातन धर्म के अनुसार  कण भी व्यर्थ नहीं है, कण-कण में ईश्वर है। अन्य धर्म आपस में लड़ते रहते हैं, लड़ाते रहते हैं, अपनी बात मनवाने के लिए शास्त्र नहीं, शस्त्र उठा लेते हैं। दर्शन में संघर्ष है, शास्त्रों में संघर्ष है, विचारों में संघर्ष है, क्रियाओं में संघर्ष है क्योंकि ये सब मन के धरातल से जन्मे हैं।
      धर्म उसी व्यक्ति के द्वारा जन्म लेता है, जिसका मन खो गया है, जो पूर्णत्व को जानता है। लेकिन जो धर्म को न समझने वाले लोग हैं, वे मन से समझते हैं। उनके पास इसके आलावा और कोई मार्ग नहीं है। यही कारण है कि मन से समझा जाने वाला धर्म सांप्रदायिक युद्ध का कारण बनता है। धर्म के स्वरुप और वास्तविक ध्यान के स्वरुप को जानने-समझने के लिए अ-मन की स्थिति को उपलव्ध होना अनिवार्य है।

आगे विषय जारी है--

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                           भाग--11
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-:'मन' को बीच से हटाने का कोई उपाय नहीं है, यदि कोई उपाय है तो वह है--केवल 'मन':-
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     धर्म जब जन्मता है तो पूर्ण रहता है लेकिन जब उसे लोगों द्वारा प्रचारित किया जाता है, तो वह अपूर्ण प्रचारित होता है क्योंकि प्रचार-प्रसार मन के माध्यम से होता है इसलिए वह अधूरा हो जाता है और अधूरा होते ही धार्मिक वक्तव्यों  में संघर्ष शुरू हो जाता है। बुद्ध और कृष्ण के बीच कोई संघर्ष नही है, मोहम्मद और महावीर के बीच भी कोई संघर्ष नहीं है लेकिन हिन्दू और मुसलमान के बीच संघर्ष है, मुसलमान और ईसाई के बीच संघर्ष है और ईसाई और हिन्दू के बीच भी संघर्ष है। जैन और बौद्ध के बीच भी यही स्थिति है। यही कारण है कि आज का मानव धर्म और संप्रदाय के नाम पर बंट गया है जिसका परिणाम हुआ है--सांप्रदायिक संघर्ष।
     जब मन का अस्तित्व नहीं रह जाता है तो स्थिति में वस्तु के भीतर जो छिपा हुआ अस्तित्वगत रहस्य है, वह प्रकट हो जाता है और उस वस्तु का 'सम्पूर्ण स्वरुप' सामने आ जाता है। जहाँ मन है, वहां एक वक्तव्य, एक विचार ही सत्य है और शेष वक्तव्य और शेष विचार असत्य हैं क्योंकि मन विभक्त करके देखता है। इसलिए मन की यह पहली अड़चन है।
     मन की दूसरी अड़चन इससे भी ज्यादा कठिन है और वह यह कि मन विरोध में विभक्त कर देखता है। मन जब भी दो चीजों को तोड़ता है तो दोनों के बीच उसे विरोध दिखलायी देता है। जैसे जीवन है, यदि जीवन को मन देखेगा तो उसे जीवन में दो भाग दिखलायी देंगे--जन्म और मृत्यु। मन कैसे मानेगा, कैसे स्वीकार करेगा कि जन्म और मृत्यु जो दो दीखते हैं--दर असल एक ही है। दोनों बिलकुल विपरीत हैं, एक कैसे हो सकते हैं ? कहाँ जन्म और कहाँ मृत्यु ? यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो जीवन में कोई कष्ट या दुःख है ही नहीं। जीवन में जन्म और मृत्यु एक ही वस्तु के दो नाम हैं। एक ही वस्तु का विस्तार है जो जन्म से शुरू होता है और मृत्यु में समाप्त होता है। जन्म और मृत्यु तो दो पड़ाव हैं, जो विस्तार है, उसी का नाम जीवन है। अगर जीवन का प्रारम्भ जन्म है तो मृत्यु उसकी पूर्णता है। जन्म और मृत्यु के बीच में यदि मन को न लाएं तो किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है।
      लेकिन मन को कैसे हटायें ?-- उसके लिए साधरण व्यक्ति के पास कोई उपाय नहीं है। यदि कोई उपाय है तो वह केवल 'मन' ही है। अच्छा और बुरा एक ही चीज़ का विस्तार है लेकिन इसे मन स्वीकार नहीं करेगा। दर असल यह दो की उपस्थिति दिखाई देती है, द्वैत की स्थिति' दिखलाई देती है-- वह वास्तव में मन की प्रतीति है। इसी प्रतीति को हटाने का उपाय, इसी प्रतीति को मिटाने की प्रक्रिया ही तो साधना है, यही तो ध्यान है। ध्यान के माध्यम से मन के परे जाने पर यह प्रतीति नष्ट हो जाती है और किसी भी वस्तु के वास्तविक स्वरुप के साक्षात्कार हो जाते हैं। सभी वस्तुएं एक ही अस्तित्व के साथ हैं लेकिन दो भागों में दृष्टिगोचर होना सृष्टि की लीला के दो छोर हैं।
     
आगे है--'मन की परिभाषा'

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