मार_की_दस_प्रकार_की_सेना
- द्वारा #सयाजी_ऊ_बा_ख़िन
आपको बहुत सावधान रहना होगा आपको दृढ़ होकर अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, ताकि आप अपने अनुभव से सही अर्थ में अनिच्चा (अनित्य) को जान सकें।
आपको बहुत मेहनत करनी होगी - यही कारण है कि हम आपको बार-बार याद दिलाते हैं। साधना के मार्ग में कठिनाइयाँ आती हैं l
हमारे महान कल्याणमित्र , सया थेयग्जी के समय, छात्रों को ध्यान में विभिन्न कठिनाइयों का अनुभव होता था , जैसे कि ध्यान आलंबन को महसूस न कर पाना ।
जब उन्हें अपने सिर के शीर्ष पर अपना ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा गया, तो वे कुछ भी महसूस नहीं कर सके।
अनापना के दौरान वे नाक के आसपास के क्षेत्र को महसूस नहीं कर सके। कुछ लोग सांस लेते समय उनकी सांस महसूस नहीं कर सकते थे। कुछ ने कहा कि वे अपने शरीर को महसूस नहीं कर पा रहे । जब आप यहां हैं, आप भी इन बातों को अनुभव करगे l
कभी-कभी आप संवेदना महसूस करने में सक्षम नहीं होंगे और कभी अपनी एकाग्रता बनाए रखने में सक्षम नहीं होंगे।
कुछ लोग सोचते हैं कि उन्होंने निर्वाण को प्राप्त कर लिया हैं, जब वे अपने शरीर को महसूस नहीं कर पाते । यदि आप अपने शरीर की उपस्थिति महसूस नहीं कर सकते हैं, तो बस अपने हाथ से इसे मारिये , या अपने मुक्के से , और देखें। आचार्य से पूछने की कोई ज़रूरत नहीं है आपको स्वयं पता चल जाएगा कि क्या आपका शरीर है या नहीं l
ये अनिश्चितता बल्कि परेशानी ही हैं, क्या वे नहीं हैं? मानसिक विकृतियो का स्वभाव आपको मूर्ख बनाता है
ये लोगों के अंदर छिपे अवांछनीय अशुद्धियां हैं
वे हम में से हर एक में मौजूद हैं जब अनित्य का बोध होता है तब विकारो को निकलना पड़ता है; लेकिन वे निकलना नहीं चाहते, बदले में वे इस समझ को निकालना चाहते हैं l
अनित्य का निर्वाणक स्वभाव बहुत शक्तिशाली है, इसलिए मार (नकारात्मक शक्तियों का स्वामी ) इसके खिलाफ लड़ता है।
पधाना सूत्र (सुत निपात) में मार के दस सेनाओ का वर्णन हैं।
हमें इन दस सेनाओ से सावधान रहना होगा, क्योंकि वे ध्यान के लिये विनाशकारी हैं।
1) मार की पहली सेना - इन्द्रियों का सुख लेने की इच्छा है।
कुछ लोग ध्यान में आए हैं, लेकिन निर्वाण को बिल्कुल भी प्राप्त करने के लिए नहीं ।
वे अन्तर्निहित इरादों के साथ आते हैं, "यदि मैं सयाजी के करीब हो जाता हूं, जो उच्च पदों पर इतने सारे लोगों को जानते है, तो मुझे मेरी नौकरी में पदोन्नति मिल सकती है।"
ऐसे ही कुछ लोग हैं वे अपने दिल में लालच के साथ आते हैं ,वे अपने ध्यान में सफल नहीं हो सकते। कोई लालच नहीं होना चाहिए l
जब आप विपश्यना की विधि की याचना के लिए कहते हैं , "निब्बानस सच्चाकर्णतथ्या मे भन्ते " निर्वाण का दर्शन करने के लिए ...... मैं आपको चार आर्ये सत्यों को समझाने के लिए सिखाऊंगा, लेकिन अगर आपकी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं हैं, और इसके बारे में और समय लेना चाहते हैं , तो मैं क्या कर सकता हूँ?
2) मार की दूसरी सेना - एक शांत स्थान जैसे वन ,जंगल में ख़ुशी से रहने की अनिच्छा है।
कल किसी के भागने की योजना थी । वह जल्दी उठ गया और अपना सामान पैक किया। वह सोच रहा था, कि सात-साढ़े सात बजे की सामुहिक साधना की बैठक के बाद जब मैं चेकिंग कर रहा होऊंगा तब वह चला जायगा । पागल की भांति भाग कर, बस पकड़ कर घर
जाना चाहता था। उसने सोचा कि वह कुछ दिन बाद आकर अपना सामान ले जायेगा ।
सौभाग्यवश पता नहीं क्यों , मैंने उसे एक घंटे अधिष्ठान में बैठने
का निदेश दे दिया और उसे एक घंटा बैठना पड़ा। वह वहां फंस गया था ! वह हमें सूचित कर सकता था कि वह छोड़ना चाहता है या वह चुपचाप छोड़ कर जा सकता था। अधिष्ठान में बैठने के बाद, मार ने उसे छोड़ दिया, और अब वह शिविर छोड़कर जाना नहीं चाहता।
जब एक शांत जगह में रहने की अनिच्छा पैदा होती है, तो वह व्यक्ति भाग जाना चाहता है।
मार की दूसरी सेना एक शांत, एकांत स्थान में रहना नहीं चाहती क्योंकि भीतर से अशांति है।
3) मार का तीसरी सेना -भूख है , भोजन से संतुष्टि नहीं होना
एक छात्र भोजन से भरा बक्से के साथ आया और कहा कि वह खाने के बिना नहीं रह सकता है, इसलिए मैंने कहा, "उस मामले में आप खा सकते हैं, लेकिन एक, दो या तीन दिन रुक जाये और अपने आप को देखें।"
हालांकि, दस दिनों के दौरान वह भूख से पीड़ित नहीं था
एक अन्य छात्र ने कहा कि दिन में केवल दो बार खाने के बाद वह कमजोर हो जाएगा, और अपने सारे जीवन में, उन्होंने कभी भी ऐसा नहीं किया था। उसने खाने की इजाजत मांगी और मैंने कहा, "ले सकते हो , अगर जरूरत पड़ती है तो ।" जब वह यहां पहुंचा, तो उन्होंने पहले दिन, दूसरे दिन और बाकि सभी दिन ध्यान किया, और वह भूख से पीड़ित नहीं था
अगर ध्यान प्रगति पर है, तो भूखा नहीं लगती है, लेकिन जब ध्यान ठीक नहीं हो रहा है, तब अंदर का ही कुछ (विकार) है जो मनुष्य में भूख पैदा करता है । तब वह भूख को रोक नहीं सकता ।
एक बार जब साधक समाधी में स्थापित हो जाता है, तब वह भूख महसूस नहीं करता है।
4) मार का चौथी सेना - विभिन्न स्वाद और खाद्य पदार्थों के लिए तृष्णा है।
हम सबसे अच्छा भोजन प्रदान करते हैं ताकि हर कोई अच्छी तरह से खाए और इसका आनंद उठा सके l क्या होता है जब बहुत स्वादिष्ट भोजन खाया जाता है? क्या यह भोजन के लिए तृष्णा को और उत्तेजित नहीं करता है? क्या भोजन के स्वाद की किसी भी प्रकार से प्रशंसा किये बिना खाना संभव है?
केवल अर्हन्त ही ऐसा कर सकते है।
क्या इस शिविर में यहां आने का उद्देश्य तृष्णा (लालसा) व् मानसिक विकारो से छुटकारा पाना नहीं था?
यदि आप अपनी आँखें बंद रखेंगे तो कुछ भी नहीं देख पाएंगे , इसलिए आप दृश्यों के लिए तृष्णा और कामनाओ को नहीं जगाएंगे । कान के बारे में भी यही बात... टेप रिकॉर्डर या रेडियो गाने के साथ यहां कोई नहीं है आपको उन्हें सुनने की ज़रूरत नहीं है l गंध के बारे में भी यही बात... कोई भी यहाँ इत्र लगाये आसपास नहीं आता जाता, इसलिए किसी भी गंध के प्रति किसी भी तृष्णा और कामनाओ को जगाने की आवश्यकता नहीं है और l यहाँ कोई नहीं हैं जो आपको सुखद शारीरिक संवेदनाओ की अनुभूति करवाये
लेकिन जीभ- क्या स्वाद से बच सकती है? तभी यदि आप खाना नहीं खाते हैं, और उस मामले में डॉक्टर को आपको जीविका के लिए ग्लूकोज इंजेक्शन देना होगा। स्वाद तब आयेगा जब भोजन जीभ के संपर्क में आएगी, यदि आप कम स्वादिष्ट भोजन खा रहे हैं, तो लालसा और स्वाद के लिए तृष्णा कम हो जाएगी।
चूंकि आप लालसा की अपनी विकृति से छुटकारा पाने के लिए यहां आए हैं, इसलिए हमें सबसे अच्छा माहौल प्रदान करके आपकी मदद करनी चाहिए ताकि वे बढ़ न सकें, क्या हमें ऐसा करना नहीं चाहिये ?
आप उन्हें नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। एक तरफ हम लालसा को समाप्त नहीं करना चाहते हैं, और दूसरी ओर भोजन द्वारा इसे बढ़ाते हैं। हम एक शाम का भोजन प्रदान नहीं करते हैं l इसे न देकर के भोजन की लालसा को बहुत कम कर दिया है l यह हमारे लिए बेहतर है और आपके लिए भी बेहतर है, क्योंकि आप शाम के भोजन के बाद आलसी हो जाते हैं। तो आप इसके बिना रह सकते हैं l
यदि आप सुबह और दोपहर में अच्छी तरह से खाएं तो , दो समय का भोजन आपके शरीर की आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त हैं l
5) मार की पांचवीं सेना - थीन-मिद्द (तन मन का आलस) तंद्रा, ऊँघना है
आप इसे समझ सकते हैं
यहां तक कि महा-मोगलाना (बुद्ध के मुख्य शिष्यों में से एक) इससे पीड़ित हुये थे l
बैठे हुए आप में से कुछ सो सकते हैं। जब मैं अपने ध्यान शिविर के लिए गया था , तो मेरे साथ एक बूढ़ा आदमी था। हम ध्यान कक्ष में साया थेयग्जी के ध्यान केंद्र में बैठे थे और वह मेरे पीछे एक बड़ा योगी शाल पहनकर बैठा था । थोड़ी देर बाद, वह जोर से खर्राटे लेने लगा l आम तौर पर बहुत से लोग ऐसे नहीं बैठते हैं जो सोते हुये खर्राटे ले , लेकिन कई साधक है जो इस तरह बैठते हैं ,खर्राटे लेते हैं, ओर फिर जाग जाते है l
इसे थीन-मिद्द कहा जाता है (तन मन का आलस)
थीन-मिद्द से बचा नहीं जा सकता l जब स्मृति और संप्रज़न्य खूब तीक्षण और सूक्ष्म हो जाय तब
निर्वाण की शांतिपूर्ण प्रकृति महसूस होती है; तब हमारे कुशल ओर अकुशल संस्कारो में टकराव होता है, जो प्रतिक्रिया के रूप में गर्मी उत्पन्न करता है। जिससे व्यक्ति नींद और आलस से घिर जाता है l
यदि आप आलस ओर तंद्रा महसूस करते हैं, तो थोड़ा सा तेज सांस ले; आपने अपनी समाधि खो दी है l यह भीतर से एक दुलत्ती है, आपकी समाधी चली गई है l यदि आप अपनी समाधि खो देते हैं, तो फिर ध्यान को नासिका पर लगाये, थोड़ा सा तेज सांस ले, और शांत होने का प्रयास करें।
कभी-कभी जब अनित्य बोध पुष्ट हो जाता है, तो आप अपने शरीर में शारीरिक और मानसिक मिलाप का अनुभव करते हैं और आपकी अंतर्दृष्टि-अंतर्ज्ञान बहुत तेज और बहुत मजबूत होते हैं। फिर भीतर से एक बहुत मजबूत दुलत्ती लगती है l तब दबे हुए विकार उभर कर ऊपर आते हैं, और आप स्व-विस्मृति के विभ्रम में चले जाते हैं ,और आप अनित्य बोध की अपनी समझ खो बैठते हैं और विचलित हो जाते हैं। आप समझ नहीं पाते कि क्या हुआ, और फिर आपने आचार्य से पूछते है l
अगर ऐसा अचानक होता है, तो इसका सामना करने के दो तरीके हैं।
एक पद्धति यह हैं कि अपने को पुन: समाधि में स्थापित करने की कोशिश करना जैसा की आपको मैंने बताया है, या उठ कर बाहर जाये तब स्व-विस्मृति की प्रतिक्रिया समाप्त हो जायेगी ।
जब यह प्रतिक्रिया होती है तब सो मत जाओ। मैं आपको निपटने के तरीके प्रदान करता हूं l यह महत्वपूर्ण व्यहारिक अनुभव हैंl आलस ओर तंद्रा तब होती है जब अकुशल संस्कार उभर के उपर आते है l
इसके बाद हमें अनित्य बोध को मजबूती से लागू करना होगा
यह अनित्य सिर्फ कहने भर के लिए नहीं होना चाहिए, ओर न सिर्फ मुंह से।
संवेदनाओं की जानकारी के साथ शरीर की बदलती प्रकृति का वास्तविक ज्ञान होना चाहिए।
यदि आप इस तरह से अभ्यास करते हैं, तो आप उभर कर जीत सकते हैं।
6) मार का छठी सेना- अकेला नहीं होना चाहता , एकांत से डरता है।
कुछ लोग एक कमरे में नहीं बैठते हैं, लेकिन कमरे बदलते रहते हैं, साथी की तलाश में रहते हैं और अकेले डरे हुए महसूस करते हैं।
एक महिला छात्र एकांत से डरती थी। उसका घर बहुत बड़ा था , लेकिन उसने किसी भी कमरे में अकेले रहने की हिम्मत नहीं की; उसे हर समय एक साथी की जरूरत रहती थी l वह यहां आयी और अपने साथ एक नौकरानी भी लाई। उसने अपने कमरे में ध्यान के दौरान रोशनी को रखने के लिए मेरी अनुमति मांगी, तो मैंने उसे ऐसा करने की अनुमति दे दी।
इतना ही नहीं, लेकिन जब उसे ध्यान सिखाया गया तो किसी को उसके पास काफी करीब बैठना पड़ा। उसने अकेले बैठने की हिम्मत नहीं की l जब वह अकेली होती थी तब उसका सारा शरीर लाल हो जाता था l शिविर में रहने के बाद, उसे थोड़ा बेहतर अनुभव हुआ । अगले शिविर में वह खुद अंधेरे में छोटी सी कोठरी में थी। वह हर महीने दस दिनों के लिए नियमित रूप से आती थी, और इससे उसे काफी लाभ हुआ। पहले वह डरने में पहले स्थान पर थी लेकिन अब उसका डर चला गया है।
7) मार के सातवी सेना- विचिकित्सा- संदेह है, कि क्या कोई ध्यान में सफल हो सकता है या नहीं ?
मुझे लगता है कि सबके बारे में यह सच्चाई है कि- हर कोई सोच रहा है कि क्या उसका ध्यान सफल होगा या नहीं। (वह लड़की हंस रही है।)
"आप सफल हो सकती हैं"l
महत्वपूर्ण बात यह है कि अकुशल क्लेशों को मिटाना है
जो (अकुशल-संस्कार), और क्लेश (मानसिक विकृति) हमारे अंदर सन्निहित हैं।
यही बात महत्वपूर्ण है।
8) मार की आठवीं सेना- गर्व, अहंकार है l जब साधना सफल होने लगती है तब गर्व और अभिमान जागता है।,
जब ध्यान में सुधार होता है, तो कोई इसे अंदर तक महसूस कर सकता है।
विकार हलके हो जाते है और साधक गर्वित और अभिमानी हो जाता है, और उसे लगता है, "वह साथी बहुत अच्छा नहीं कर रहा है। क्यों न मैं उसकी मदद करूँ। "
मैं यह अपने व्यक्तिगत अनुभव से कह रहा हूं।
काफी समय पहले जब यह ध्यान केंद्र शुरू किया गया था, यहाँ कोई धम्म कक्ष नहीं था। यहां एक दस वर्ग फुट की झोपड़ी थी, जो यहां थी l जब हमने जमीन खरीदी थी। एक दिन एक छात्र सुबह की बैठक के बाद बाहर आया और बोला, "देखो।" उसने अपनी लुंगी उपर बाँध रखी थी l और उसकी जांघों और पैरो की चमड़ी पर सुजन के निशान थे, जैसे कोई पंख उधेडी हुई बतख l उसने लुंगी उपर कि और शान से हमें दिखाया, "कृपया देखें ,आप सब भी कड़ी मेहनत करें, कृपया कड़ी मेहनत करें।" "उसे भीतर से बड़ी शक्तिशाली दुल्लती लगी थी।"
"अगले दिन वह ध्यान नहीं कर सका। वह किसी भी संवेदना को महसूस नहीं कर सका और सयाजी के पास मार्गदर्शन के लिए पहुंचा । जब वह दुसरो को उपदेश दे रहा था , उसमें अहंकार था, उसमें "मैं" था, "मैं अच्छा कर रहा हूं। ऐसे लोग, कहीं भी नहीं पहुँचते है। "वह बहुत अच्छा फुटबाल खिलाडी था , क्रोधी स्वभाव का, हर समय लड़ने को तैयार । जब एक बहुत ही खराब स्वभाव वाले व्यक्ति को बहुत गर्मी का अंदर से संस्कार उखड़ता है, तो वह शरीर की सतह पर फूट कर प्रगट होता है।
यही कारण है कि मैं आप सबको दुसरो को उपदेश न देने के लिए कहता हूं।
यदि आप मुझसे कुछ पूछना चाहते हैं तो मुझसे पूछें, यदि आप कुछ कहना चाहते हैं, तो मुझे बताएं
यदि आप अपने अभ्यास में प्रगति करते हैं, तो चुप रहे और अपने ध्यान के साथ आगे बढ़ें।
9) मार की नौवीं सेना – आचार्य से सम्बंधित विषयों के बारे में जानी जाती है, बहुत उपहार प्राप्त करना, बहुत आदर और सम्मान प्राप्त करना।
मुझे बहुत सम्मान और उपहार मिलते हैं l मुझे अहंकारी नहीं होने के लिए खुद को नियंत्रित करना होगा l यहाँ देखो, यह अहंकार पैदा होने की संभावना नहीं है? मुझे स्वयं की रक्षा करनी है l
हमने इस काम (साधना )को अकाउंटेंट जनरल के कार्यालय के लोगों के लिए यहां प्रारंभ किया था, ताकि वे अपने खाली समय में ध्यान कर सकें, लेकिन यहां उनमें से बहुत कम लोग आते है। हमने इसे धन के आधार पर शुरू नहीं किया, बल्कि धर्म के आधार पर शुरू किया है ।
कार्यालय का कोई भी कार्यकर्ता जो दस दिनों के लिए ध्यान करता है वह इसका सदस्य बन जाता है। दस दिनों का ध्यान ही प्रवेश शुल्क है। क्या यह अच्छी बात नहीं है? सदस्यता शुल्क के रूप में एक पैसे का भी भुगतान करने की आवश्यकता नहीं है। बस निरंतर ध्यान करें, अपने अभ्यास की रक्षा करें, इसे खोना मत। हमने वहाँ से शुरू किया था और यहाँ पर आ गए हैं। पैसा यह सब नहीं कर सकता। यह धर्म ही था जिसने यह सब किया। हम इस पर विश्वास करते हैं, और हमारे पास कोई पैसा भी नहीं है।
यह केंद्र मेरा नहीं है ओर न ही, ऊ बा खिन को इस पर गर्व करना चाहिए, "कि यह ऊ बा ख़िन का ध्यान-केंद्र है। यह मेरा नहीं है बल्कि यह लेखापाल जनरल के कार्यालय के विपश्यना एसोसिएशन से संबंधित है। अगर वो मुझे बाहर निकालते है तो मुझे जाना होगा। देखो, कितना अच्छा है ! मेरे पास यह नहीं है, मुझे हर साल फिर से निर्वाचित होना होगा। यदि वे मुझे फिर से चुनते हैं तो, मैं यहाँ दुबारा होंऊगा l यदि वे कहते हैं कि उन्हें मुझसे बेहतर कोई ओर मिल गया है, और उस व्यक्ति को चुन लेते है, तो यह मेरे लिए खत्म हो गया है, या समिति के कुछ सदस्यों मुझे पसंद नहीं करते, तो वे कह सकते हैं कि मैं बहुत ज्यादा बोलता हूँ, और वे किसी और को चुन ले, तो मुझे छोड़कर जाना होगा, मै इस केंद्र का मालिक नही हूँ "l
10) *मार की दसवीं सेना- झूठे धर्म का अनुयायी होना*, एक नये और विशेष धर्म का निर्माण करना , लाभ सत्कार प्राप्त करने के लिए , अपने आप की प्रशंसा करना और दूसरों की निंदा करना।
यही कारण है कि मैं दूसरों के बारे में बहुत ज्यादा नहीं कहना चाहता हूं। दूसरों को हमारे बारे में बोलने दें, जैसा वे हमारे बारे में अच्छा समझे l क्या यह सही नहीं है?
कुछ आचार्य उपहार प्राप्त करने में लिप्त रहते हैं, ताकि उन्हें ओर अधिक छात्र प्राप्त हो सकें l
वे वही सिखाते हैं जो छात्र चाहते हैं- झूठी शिक्षाएं, शिक्षाएं जो बुद्ध की शिक्षाऐ नहीं हैं- सिर्फ इसलिए कि वे उपहार और सम्मान चाहते हैं ?
वे सच्चे धर्म के साथ काम करना बंद कर देते हैं। यही मार की दसवीं सेना है l
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मुक्ति मार्ग के अवलंबी विपश्यना साधको को मार(विकार की अभिव्यक्ति) से सदैव सतर्क रहना चाहिए।
इसे जीतने का उपाय बड़ा सरल है, और वह यही है की प्रतिक्षण सचेत रहे।
जागरूक हो गए तो इतने में मार सेना विलीन हो गयी। इस चोर के पावं नहीं होते। घर वाला जागा की चोर भगा। बड़ा सरल उपाय है। कोई भी प्रयोग करके देख सकता है।
जब कभी मन में प्रबल काम वासना जागे, तो मात्र क्षण भर के लिए आदमी सचेत होकर केवल इस तथ्य को जान ले की ओह! मुझमे यह काम वासना उठ रही है, और बस इतना देखना- जानना मात्र हुआ की काम वासना छुइ-मूइ के पत्तों की भांति दुबक गयी, जैसे थी ही नहीं।
यही दशा क्रोध की है, अहंकार की है, ईर्ष्या की है। जैसे उठे वैसे देख लो। ये वही विलुप्त हो जाएंगे।
पर लोग देखते कब है? जैसे ही कोई विकार उठता है, वैसे ही उस विकार के अधीन हो जाते है, और उस समय तो जागरूकता का नामोनिशान भी नहीं होता। बस केवल वही विकार सिर पर सवार रहता है और सिर उस विकार रुपी पानी के नीचे डूबा रहता है। बहुत समय बीत जाने के बाद जब होश आता है तब आदमी उस विकार रूपी मार के अधीन की गयी मूर्खताओं का स्मरण करके पछताता है। परंतु तब क्या हो?
यह जागरूक रहने का हथियार तो तभी कारगर होता है जबकि दुश्मन धावा बोल कर सिर पर चढ़ रहा हो।
बाद में पश्चाताप करना बिलकुल निरर्थक है।
अत आओ इस मार-बंधन से मुक्त हों और धर्म साधना के मार्ग पर चलते हुवे अपना मंगल साध ले। इसी में सब का कल्याण समाया हुआ है।
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