Tuesday, March 5, 2019

।। शिव ।। शब्द का महिमा

' शिव '  शब्द नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्मा का वाचक है , यह उच्चारण मे बहुत ही सरल , अत्यन्त मधुर और स्वभाविक ही शान्तिप्रद है । शिव शब्द की उत्पत्ति ' वश कान्तौ ' धातु से हुई  है जिसका तात्पर्य यह है कि जिसे सब चाहते हैं । सब क्या चाहते हैं - सभी चाहते हैं आनन्द ( सुख और आनन्द मे फर्क होता है ) और यह आनन्द भी कैसै चाहते हैं ,  ' अखण्ड ' हमेशा रहने वाला खण्ड खण्ड वाला नही अखण्ड अानन्द ।  शिव नाम का अर्थ ही अखण्ड आनन्द हुआ - जहां आनन्द है वहीं शान्ति है , परम आनन्द तो परम मंगल , परम कल्याण है अतएव ' शिव ' शब्द का अर्थ परम मंगल ,परम कल्याण समझना चाहिये ।

                                   शिवतत्त्व को जानने के बाद फिर कुछ जानना शेष नही रह जाता , यह बात माता पार्वती यथार्थरूप मे जानती थीं अतएव वे किसी के भी बहकावे मे नही आईं । यहां तक कि स्वंय महादेव के भी कहने पर वे अपने सिद्धान्त से तिलमात्र भी नही टलीं तथा शिवप्राप्ति के लिये घोर तप करती रहीं । माता मैनका ने  स्नेहकातरा हो कर ' उ ' ( वत्से ) ' मा ' ( एैसा तप न करो ) कहा तप से उनका नाम ' उमा ' हो गया ।

                                     शिव वस्तुतः निर्गुण हैं , वे तो करुणावश हो सगुण हो जाते हैं । चित्त के देवता वासुदेव हैं , बुद्धि के देवता ब्रह्मा हैं - यद्यपि तीनो देव एक ही हैं परंतु अहंकार के देवता रुद्र को ही ब्रह्मवेत्ताओ ने प्रधान , ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ माना  हैं । योगीयों का अनुभव है कि सबसे पहले ब्रह्मग्रंथि ( बुद्धि ) का छेदन होता है फिर विष्णुग्रंथि ( चित्त ) का छेदन होता है और अन्त मे रुद्रग्रंथि ( अहंकार ) टूटती है ।

यत्सूक्ष्मं तद्वैद्युतम् , तद्वैद्युतम् तत परं ब्रह्म , यत्ं परं ब्रह्म स एक:
य एकः स रुद्रः यो रुद्र: स ईशान: य ईशानः स भगवान् महेश्वर: । 

सर्वगं  सर्वकर्तारं  सर्व  सर्वाभासकम्  । सर्वालम्बनं  शान्तं  शिव  पूर्ण  भजाम्यहम् ।।
बिना यस्य कृपां नैव जीवनां मोक्षसम्भव: । कथं त शँकरं त्यक्तवा देहं मोहमयं भजे ।।

                               ।। महादेव ।।

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