Thursday, June 27, 2019

श्रीपाद वल्लभ चरित्र अमृत :- अध्याय -6

॥  श्री  गुरुवे  नम:  ॥  ॥  श्रीपादराजं  शरणं  प्रपद्ये  ॥  

अध्याय  -6  

नरसावधानींचे  वृत्त

दुसऱ्या  दिवशी  सकाळी  जपध्यानादि  पूर्ण  झाल्यावर  तिरुमलदास  म्हणाले.  ''बाबा  !  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  चराचर  सृष्टीचे   मूल  आहेत.  ते  वटवृक्षासारखे  आहेत.  त्यांचे  अंशावतार  सगळेच  विविधता  असलेल्या  पारंब्या  प्रमाणे  आहेत  (झाडातून  निघालेले  मूळ).  तेच  मूळ  परत  भूमीमध्ये  जाऊन  स्वतंत्र  तत्त्व  असल्यासारखे  दिसते,  परंतु  त्यांना  आधार  वटवृक्षच  असतो.  देवदानवापासून  समस्त  प्राणिमात्रांना  त्यांचाच  आधार  आहे.  त्यांच्याकडूनच  समस्त  शक्तींना  आश्रय  प्राप्त  होतो.  पुनरपि  त्या  शक्ति   त्यांच्यातच  विलीन  होत  असतात.  पर्वत  शिखरावर  पोहोचलेल्या  व्यक्तीस   सगळया  वाटा  एक  सारख्याच  वाटतात.  त्याच  प्रमाणे  सगळया  प्रकारच्या  सांप्रदायाचे  लोक  दत्ततत्त्वामधेच  समन्वय  पावतात.  प्रत्येक  प्राणीमात्रास  कांतीचे  एक  वलय  असते.  मी  पीठिकापुरत   रहात  असताना  तेथे  एक  योगी  आला.  तो  विग्रहाच्या  कांतीवलया  बद्दल  माहिती  सांगत  असे.  त्याला  व्यक्तीची  कांती  कोणत्या  रंगाची  असून  किती  दूरवर  व्यापून  आहे  ते  सांगता  येत  असे.  त्याने  श्री  कुक्कुटेश्वरालयात  येऊन  स्वयंभू  दत्ताची  सूक्ष्मकांती  किती  दूर  व्यापून  आहे  आणि  कोणत्या  रंगाची  आहे,  ह्याची  परिक्षा  करण्याचे  ठरविले  त्या  योग्यास  स्वयंभू  दत्ताच्या  ठिकाणी  श्रीवल्लभांचे  दर्शन  झाले.  त्यांच्या  मस्तकाच्या  भोवताली  विद्युल्लतेच्या  तुलनेची  धवलकांती  अप्रतिमपणे  व्यापून  होती.  त्या  धवल  कांतीच्या  भोवती  खालच्या  भागात  व्यापून  असलेल्या  निळया  रंगाच्या  कांतीचे  त्यास  दर्शन  झाले.  ती  मूर्ति  त्या  योग्यास  बघून  म्हणाली,  ''बाबा  !  दुसऱ्यांचे  सूक्ष्म  शरीर  किती  दूर  व्यापलेले  आहे  याची  माहिती  काढण्याच्या  प्रयत्नात  अमूल्य  जीवन  काळ  व्यर्थ  घालवू  नकोस.  प्रथम  तुझ्या  हिताचा  विचार  कर.  थोडयाच  दिवसात  तुझा  मृत्यू   होणार  आहे.  सद्गति  संपादन  करण्याचा  विचार  कर.  सर्व  सत्यांचा,  सर्व  तत्वमूलांचा  मूल  असलेला  दत्त  मीच  आहे.  ह्या  कलियुगांत  पादगया  क्षेत्रात  महासिध्दपुरुषांच्या,  महायोग्यांच्या,  महाभक्तांच्या  प्रेमभरित  आव्हानानेच  मी  येथे  अवतार  घेतला  आहे.''

स्वामींच्या  या  उपदेशाने  त्याच्यातील  पूर्व  वासनांचा  नाश  झाला.  सूक्ष्म  शरिराच्या  कांतीची  माहिती  मिळविण्याची  त्याची  शक्ति  श्रीवल्लभांतच  विलीन  झाली,  तो  श्रीवल्लभांचे  त्यांच्याच  स्वगृहात  दर्शन  घेऊन  धन्य  झाला.  स्वच्छ  अशी  धवलकांती  असलेले  श्रीवल्लभ  निर्मळ  असून,  संपूर्ण  योगावतार  आहेत.  निळया  रंगाची  कांती  असणारे  श्रीप्रभू  अनंत  प्रेमाने,  करुणेने  भरलेले  आहेत  आणि  ह्या  गुणांचे  हे  रंग  निदर्शक  आहेत.त्या  योग्याची  विश्रांती  झाल्यावर  श्रध्दापूर्ण  चर्चा  सुरू  झाली.  चतुर्वर्ण  विभाग  असलेल्या  सुक्ष्म  शरीराच्या  कांतीचा  भेददृष्टया  निर्णय  घ्यावा  कां  ?  किंवा  जन्मसिध्द  कुलगोत्राच्या  दृष्टीने  निर्णय  घ्यावा  ?  कोणत्या  वर्णाचा  जन्म  असला  तर  वेदोक्त  पध्दतीने  उपनयन  करावे  ?  कोणत्या  वर्णाच्या  लोकांचे  शास्त्रोक्त  म्हणजे  पुराणोक्त  उपनयन  करावे  ?  उपनयनात  भृकुटी  मध्ये  असलेल्या  तिसऱ्या  डोळयाचा  संबंध  असतो  कां  ?  नसेल  तर  कांही  विशेष  आहे  कां  ?  मेधावी  लोक  म्हणजे  काय  ?  अशी  चर्चा  बराच  वेळ  गरम  गरम  चालली  होती  परंतु  पंडितांचे  मतैक्य  होत  नव्हते.  

सत्यऋषिश्वर  या  नावाचे  मल्लादि  बापन्नावधानी  ''पीठिकापुर  ब्राह्मण  परिषदेंचे''  अध्यक्ष  होते.  त्यांना  बापन्ना  आर्य  असे  सुध्दा  लोक  श्रध्देने  म्हणत  असत.  ते  मुख्यत:  सूर्याची,  अग्निची  उपासना  करीत.  पीठिकापुरत  झालेल्या  एका  यज्ञाचे  अधिपत्य  करण्याची  त्यांना  विनंती  केली  होती.  यज्ञाच्या  शेवटी  कुंभवृष्टी  झाली,  अर्थात  वर्षा  झाली.  सकल  जन  समुदाय  आनंदला.  श्री  च्छवाई  नरसिंह  वर्मा  या  नावाच्या  क्षत्रिय  गृहस्थानी  श्री  सत्यऋषिश्वरांना  त्यांच्या  गावात  रहावे  अशी  विनंती  केली.  परंतु  यज्ञयागात  मिळालेले  धन  शिधा  तेवढेच  श्रीबापन्ना  आर्य  घेत  असत.  त्या  द्रव्यास  शुध्दी  नसेल  तर  ते  स्वीकार  करीत  नसत.  श्री  वर्मांच्या  विनंतीस  त्यांनी  नकार  दिला,  श्री  वर्मांची  अत्यंत  प्रिय  असलेली  कपिला  गाय  होती.  तीचे  नांव  गायत्री  असे  होते.  ती  भरपूर  दुध  देत  असे.  ती  अत्यंत  सुशील  आणि  साधु  स्वभावाची  होती.  एकदा  गायत्री  दिसेनासी  झाली.  कुठेतरी  हरवली.  रस्ता  विसरली  असे  वर्तमान  श्री  वर्मांना  कळाले.  श्री  बापन्ना  आर्य  ज्योतिष  शास्त्राचे  पंडित  असल्याने  वर्मांनी  त्यांना  गायत्रीच्या  क्षेम-कुशला  संबंधी  प्रश्न  केला.  तेंव्हा  ''श्यामलांबापुरम्  (सामर्लकोटा)  मध्ये  खानसाहेब  नावाचा  कसाई  आहे.  त्याच्याकडे  ती  आहे.  लगेच  न  गेल्यास  तिचा  वध  होण्याची  भीती  आहे  बापन्ना  आर्य  म्हणाले.  वर्मांनी  शामलांबापुरास  मनुष्यास  पाठवण्याच्या  प्रयत्नात  बापन्ना  आर्यांना  एक  अट  घातली.  बापन्ना  आर्यांच्या  वचनानुसार  गायत्री  मिळाली  तर,  वर्मानी  तीन  एकर  भूमी,  निवासास  योग्य  असे  घर  बापन्नाआर्यांना  त्यांच्या  पांडित्याचा  बहुमान  म्हणून  द्यावे.  बापन्ना  आर्यांनी  त्याचा  अंगिकार  न  केल्यास  गोहत्येचे  पातक  प्राप्त  होईल.  बापन्ना  आर्य  संकट  स्थितीत  पडले.  त्यांनी  हे  दान  जर  नाही  घेतले  तर,  वर्मा  त्या  गाईची  हत्या  होऊ  देतील.  त्यामुळे  गोहत्येचे  पातक  लागेल.  गोहत्या  पातकापेक्षा  पंडित  बहुमानाचा  स्विकार  करणेच  श्रेयस्कर  ठरले   आणि  गायत्रीची  रक्षा  झाली.  पीठिकापुरवासियांचे  नशीब  उघडले.  श्री  बापन्नावधानी  तीन  खंडी  धान्य  देणाऱ्या  भूमीचे  मालक  झाले.  त्यांना  निवसासाठी  घराची  व्यवस्था  झाली.  श्री  बापन्ना  आर्यांना  वेंकटावधानी  नावाचा  मुलगा  व  सुमती  नावाची  मुलगी  झाली.  तिच्या  जन्मपत्रिकेत  सर्व  शुभ  लक्षण  असून  ती  चालते  वेळी  महाराणीस  लाजवील  अशी  चाल  आणि  लचक  असल्या  कारणाने  सुमती  महाराणी  असे  तिचे  नामकरण  झाले.

श्रीबापन्ना  आर्यांची  कीर्ति  थोडयाच  काळात  दाही  दिशांना  पसरली.  घंडिकोटा  अडनावाचा  अप्पललक्ष्मी  नरसिंहराज  शर्मा  नावाचा  भारद्वाज  गोत्री,  अपस्तंभ,  वैदिकशाखेचा  एक  बालक

पीठिकापुरांत  आला.  त्यांच्या  घरी  कालाग्निशमन  नावाने  ओळखली  जाणारी  दत्ताची  मूर्ति  होती.  ती  दत्तमूर्ति  पुजेच्या  वेळी  स्पष्ट  बोलत  असे.  आदेश  सुध्दा  देत  असे.  लहाणपणीच  अप्पल  राजू  शर्माचे  मातृ –पितृ  छत्र  हरवले  असल्याने  तो  पोरका  झाला  होता.  पूजा  समयी  कालाग्निशमनाने  ''तू  पीठिकापुरत  जाऊन  हरितस  गोत्रिक,  अपस्तंभ  सूत्राच्या  वैदिक  शाखेचे  मल्लादि  बापन्नावधानी  यांच्या  कडे  विद्याभ्यास  करावा''  असा  आदेश  दिला.  श्री  बापन्ना  आर्यानी  दत्ताच्याआदेशानुसार  आपल्या  घरी  विद्यार्थी  म्हणून  आलेल्या  राजशर्मास  माधुकरी  न  मागू  देता,  आपल्याच  घरात  भोजनाची  व्यवस्था  केली.  श्री  बापन्ना  आर्य  शनिप्रदोष  समयास  शिवाराधना  करीत  असत.  घरातील  स्त्रिया  शनिप्रदोषादिवशी  शिवाचे  व्रत  करीत  असत.  पूर्वीच्या  काळी  नंदयशोदेने  शनिप्रदोष,  शिवाराधना  केल्यामुळेच  साक्षात्  श्रीकृष्णाचे  लालन  पालन  करण्याचा  सुयोग  घडून  आला.  बापन्ना  आर्याबरोबर  सुदैवाने  श्री  नरसिंह  वर्मा,  श्री  वेंकटप्पैय्या  श्रेष्ठी,  आणि  थोडे  प्रमुख  वैश्य  लोक  सहभागी  होत.

श्री  कुक्कुटेश्वर  स्वामींच्या  मुखातून  निघालेली  वाणी

सुमती  आणि  अप्पलराजुचा  विवाह 

एके  वेळी  शनिप्रदोश   शिवाराधना  झाल्या  नंतर,  श्री  कुक्कुटेश्वराच्या  शिवलिंगामधुन  विद्युत्कांति  प्रकाशत  होती.  त्यावेळी  त्यातून  वाणी  झाली.  ''बाबा  !  बापनार्या,  नि:संदेहपणे  तुझी  मुलगी  सुमती  महाराणीस  अप्पलराजु  शर्मास  देऊन  विवाह  कर,  त्यामुळे  लोककल्याण  होईल.  हा  दत्तप्रभूंचा  निर्णय  आहे.  ह्या  महानिर्णयाचे  उल्लंघन  करण्याचा  ह्या  चराचर  सृष्टीमध्ये  कुठल्याही  व्यक्तीस  अधिकार  नाही.''  ही  देववाणी  वेंकटप्पया  श्रेष्ठीला  नरसिंह  वर्माला,  तेथे  असणाऱ्या  सर्व  जन  समुदायास  ऐकण्यात  आली.  सगळे  आश्चर्यचकित  झाले.

गोदावरी  मंडलांतर्गत  आइनविल्ली  ह्या  गावातील  राजवर्माचे  बंधुमित्र  परिवारास  वर्तमान  पाठवले.  विवाहाचा  निर्णय  झाला.  राजशर्माला  घरदार  नव्हते.  त्यामुळे  थोडा  विचार  चालला  होता.  श्री  वेंकटप्पा  श्रेष्ठी  म्हणाले,  ''मला  पुष्कळ  घरे  आहेत  त्यापैकी  एखादे  मी  राजशर्मास  देईन.''  राजशर्मा  दान  घेण्यास  तयार  नव्हते.  श्री  श्रेष्ठींनी  राजशर्मांच्या  सोयऱ्यांबरोबर  बोलून  राजशर्माला  मिळणाऱ्या  वडिलोपार्जित  गृहभागाची  किंमत  लावली.  ती  एक  वराह  (जुन्या  काळातील  नाणे)  ठरविली  गेली.  श्री  श्रेष्ठींच्या  घराची  किंमत  बारा  वराह  निश्चित  केली.  अकरा  वराह  देण्यास  माझ्याकडे  एक  पै  पण  नाही  असे  राजशर्मा  म्हणाले.  तसे  असेल  तर  मी  माझ्या  घराची  किंमत  1  वराह  मात्रच  ठरवून  विकतो.''दान  घेण्यास  तुम्हास  संकोच  असेल  तर  1  वराह  मला  देऊन  हे  घर  विकत  घ्या''  असे  श्रेष्ठी  म्हणाले.  श्रेष्ठीनी  जे  सांगितले  ते  धर्मसम्मत  आहे  असा  सगळयांनी  होकार  दिला.  श्री  सुमती  महाराणी  आणि  श्री  अप्पल  लक्ष्मी  नरसिंह  शर्मा  यांचा  विवाह  महापंडितांच्या  वेदघोषाने,  मंगल  वाद्याच्या  गजरात  मोठ्या  थाटामाटात  पार  पडला.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  अवतार  अज्ञानाच्या  अंधकाराला  दूर  करण्यासच  झाला  आहे.  त्या  कारणाने  श्री  प्रभूंनी  कालदेवतेला,  कर्मदेवतेला  शाप  दिला.  त्या  शापास  अनुसरून  अज्ञानांधकाराचे  प्रतिक  स्वरूप  जन्मांध  शिशु,  आणि  अप्राकृतिक

प्रगतिचे  स्वरूप  दर्शविणारे  लंगडे  बालक  अशी  दोन  बालके  राजशर्मास  प्राप्त  झाली.  आपली  दोन्हि  मुले  अशा  रीतिने  अपंग  असल्याने  सुमति  आणि  राजशर्मा  अत्यंत  दु:खी  होते.  आइनविल्लि  गावांत  एक  प्रसिध्द  विघ्नेश्वराचे  देऊळ  आहे.  श्रीराज  शर्मा  यांच्या  दु:खाचा  परिहार  करण्यासाठी  त्यांचे  नातेवाईक  तेथील  महाप्रसाद  पीठिकापुरात  घेऊन  आले.  सुमती  आणि  राजशर्मानी  तो  प्रसाद  आदराने  घेतला.  त्या  दिवशीच  रात्री  सुमती  महाराणीला  स्वप्नात  ऐरावताचे  दर्शन  झाले.  नंतर  काही  दिवस  शंख,  चक्र,  गदा,  पद्म,  त्रिशूल,  विविध  देवतेचे,  ऋषींचे ,  सिध्दपुरुषांचे,  योग्यांचे  अशी  अनेक  दर्शने  तिला  स्वप्नात  होत  होती.  कांही  दिवसांनी  जागृतास्थेत  सुध्दा  तिला  दिव्य  दर्शन  होऊ  लागले.  डोळे  झाकले  कि  पडद्यावरील  चित्रपटासारखे  दिव्यकांतीमय  तपसमाधीत  मग्न  असलेले  योगी,  मुनी,  अद्भुत  दर्शन  देत.

देवतांचे  जन्मनक्षत्र  आणि  सुमतीच्या  प्रसवसमयाचे  नक्षत्रात

असलेला  संबंध 

सुमती  महाराणीने  आपल्या  पित्यास  दिव्य  अनुभवाबद्दल  सविस्तर  सांगितले.  ते  म्हणाले,  ''ही  सर्व  लक्षणे  महापुरुषाच्या  जननाचे  शुभसूचक  आहेत.''  सुमती  महाराणीचे  मामा  श्रीधर  पंडित  म्हणाले  ''बाई  !  सुमती  !  रवि  (सूर्य)  चे  जन्मनक्षत्र  विशाखाचा  आणि  श्रीरामावताराचा  संबंध  आहे.  कृतिका  हे  चंद्राचे  जन्मनक्षत्र  आहे.  ह्याचा  आणि  श्री  कृष्णावताराचा  संबंध  आहे.  पूर्वाषाढा  या  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  अंगारकाचा  श्रीलक्ष्मीनरसिंह  अवताराशी  संबंध  आहे.  श्रवण  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  बुधाचा,  बुध्दावताराशी  संबंध  आहे.  पूर्वाफाल्गुनी  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  गुरुचा  विष्णुअंशाशी  संबंध  आहे.  पुष्य  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  शुक्राचा  भार्गवरामाशी  संबंध  आहे.  रेवती  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  शनिचा  कुर्मावताराबरोबर  संबंध  आहे.  भरणी  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  राहूचा  वराह  अवताराशी  संबंध  आहे.  आश्लेषा  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  केतुचा,  मच्छावताराशी  संबंध  आहे.  तू  मला  प्रश्न  केलेला  समय  दैवी  रहस्याशी  संबंधित  आहे.  कोटयावधी  ग्रहांना,  नक्षत्रांना  ब्रह्मांडाच्या  स्थिती  गतीला  निर्देश  देणारे  दत्तप्रभूच  जन्मास  येतील  असे  मला  निश्चित  वाटते.''

दत्तप्रभु  हे  नित्य  वैभव  विभूति 

आपले  दिव्य  अनुभव  आणि  श्रीधर  पंडित  यांचे  मत  सुमती  महाराणीने  राजशर्मास  सांगितले.  तेव्हा  राजशर्मा  म्हणाले,  ''मी  पूजा  करते  समयी  कालाग्नीशमन  दत्तांना  विचारतो.  कालाग्नीशमन  दत्तात्रेयांची  पूजा  होत  असता  कोणत्याहि  माणसाने  ती  पाहू  नये  असा  नियम  आहे.  पूजेनंतर  दत्त  प्रभु  मानवाच्या  रूपात  समोर  बसून  बोलतात.  नंतर  परत  त्या  मूर्तिमध्ये  विलीन  होतात,  हा  रोजचा  आमचा  नियम  आहे.  सामान्य  विषय  किंवा  स्वार्थभरित  समस्या  आम्ही  दत्ताला  निवेदन  करीत  नाही.''  त्या  दिवशी  पूजे  समयी  दत्तमहाराज  प्रसन्न  होते.  पूजेनंतर  ते  मानवी  रूपात  समोर  बसले  आणि  श्रीधरा  !  या  !  असे  बोलविले.  दत्तमूर्तीमधून  एक  रूप  बाहेर  पडले  आणि  त्यांच्या  समोर  ध्यानस्थ  बसले.  परत  आपल्या  बोटाने  संकेत  करीत  श्रीधरा  !  या  !  असे  म्हणाले.  तत्काळ  ते  रूप त्यांच्यातच  विलीन  झाले.  राजशर्माला  हे  सगळेच  आश्चर्यजनक  होते.  श्रीदत्तप्रभू  म्हणाले,  ''तू  आता  पाहिलेले  रूप  येणाऱ्या  शताब्दीतील  येणारा  एकुलता  एक  अंशावतारच  आहे.  माझ्यात  लीन  झालेल्या  जीवनमुक्ताना  सुध्दा  मी  बोलावताच  यावे  लागते.  आणि  जा  अशी  आज्ञा  झाल्यास  पडद्याआड  झाल्यासारखे  जावे  लागते.  माझ्या  आज्ञेचे  पालन  करणे  त्यांना  चुकतच  नाही.  माझ्या  लीला  विभूति  केवळ  भूमिवरच  परिमित  नाहीत.  हे  ब्रह्मांड  सारेच  माझ्या  हातातील  खेळण्याच्या  चेंडुसारखे  आहे.  मी  एका  पायाने  लत्ताप्रहार  केल्यास  कोटयावधी  योजने  पार  करतो.  मी  जन्म  मृत्यूच्या  अतीत  आहे,  असे  म्हणत  श्री  प्रभूनी  राजशर्माच्या  भूमध्यांत  स्पर्श  केला.  लगेच  राजशर्माला  पूर्वजन्माची  स्मृति  झाली.  त्याने  एका  युगात  विष्णुदत्त  या  नावाने  जन्म  घेतला  असून  त्याची  पत्नी  सुमतीने  सोमदेवम्मा  नावाने  जन्म  घेतला  होता  असे  ज्ञात  झाले.  श्री  दत्तमहाराज  पुढे  म्हणाले,  मी  दत्त  या  रूपाने  दर्शन  देऊन  तुमची  काय  इच्छा  आहे  असे  विचारले  होते.  त्यावेळी  पितृश्राध्दाच्या  दिवशी  जेवायला  यावे  अशी  विनंती  तुम्ही  केली  होती.  सूर्याग्नि  बरोबर  मी  श्राध्दाचे  जेवण  केले.  तुमच्या  पितृदेवतांना  शाश्वत  ब्रह्मलोकांची  प्राप्ति  करून  दिली.  मी  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  नावाने  अवतार  घेऊन  गेल्या  100  वर्षापासून  ह्या  भूमीवर  योग्यांना,  महापुरुषांना  दर्शन  देतच  आहे.  पीठिकापुरत  सवितृकाठक  चयन  (होम)  भारद्वाज  महार्षिने  त्रेतायुगात  केला  होता.  तेव्हाचे  त्या  होमाचे  भस्म  पर्वतासारखे  जमून  बसले.  कालांतराने  ते  भस्म  द्रोणागिरी  पर्वतावर  शिंपडले  गेले.  मारूती  द्रोणागिरी  पर्वत  घेऊन  जात  असताना  एक  छोटा  भाग  गंधर्वपुरात  (गाणगापुर)  पडला.  गंधर्वनगर  भीमा,  अमरजा  पवित्र  नद्याचा  संगम  प्रदेश  आहे.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  अवातर  समाप्तिनंतर  मी  मीनअंश,  मीन  लग्नावर  करंज  नगरीत  शुक्ल  यजुर्वेदीय  वाजसनेय  माध्यंदिन  शाखेत,  नृसिंहसरस्वती  या  नांवाने  जन्म  घेऊन,  गंधर्वनगरात  अनेक  लीला  करीन.  श्री  शैल्यातील  कर्दळीवनात  300  वर्ष  तपोसमाधी  नंतर,  स्वामी  समर्थ  ह्या  नांवाने  प्रज्ञापुरात  निवास  करीन.  जेव्हा  शनि  मीनेत  प्रवेश  करेल  तेव्हा  त्या  शरिराचा  त्याग  करिन.''

दत्तप्रभुंचे  हे  वरील  वक्तव्य  राजशर्माने  आपल्या  धर्मपत्नीस  सांगितले.  त्यावेळी  सत्यऋषिश्वर   बापनार्य  म्हणाले  ''बाबा  !  राजशर्मा  !  तुझ्या  पूर्वीच्या  युगातील  जन्मात  श्री  दत्तप्रभूंना,  सूर्याला,  अग्निला  श्राध्द  भोजन  दिलेला  तू  पुण्यात्मा  आहेस.  ह्या  जन्मात  कोणत्याहि  रूपांत  दत्तमहाराज  भोजन  द्या  असे  विचारतील,  तो  दिवस  पितृश्राध्दाचा  असला  तरी  कसलाही  विचार  न  करता  ब्राह्मण  जेवायच्या  अगोदरच  श्री  दत्ताने  भोजन  विचारले  तर  जरूर  वाढावे.''  बाई  सुमती  !  ही  गोष्ट  लक्षात  ठेव .''

बाबा  !  शंकरभट्टा  !  दत्तप्रभुंच्या  लीला  अलौकीक  आहेत.  आतापर्यंत  कधीही  न  ऐकलेल्या  आणि  अपूर्व  आहेत.  महालया  अमावस्येचा  दिवस  होता.  राज  शर्मा  पितृश्राध्दाच्या  तयारीत  होते.  दारा  समोर  ''भवति  भिक्षांदेही''  असा  आवाज  ऐकला  आणि  त्या  अवधूताला  सुमती  महाराणीने  भिक्षा  घातली.  काही  मागणे  माग,  असे  म्हणणाऱ्या  अवधूताला  सुमती  म्हणाली.  ''बाबा  आपण  अवधूत  आहात.  आपले  वाक्य  म्हणजे  सिध्दवाक्यच  आहे.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  अवतार  लवकरच  या  भूमीवर  होईल  असे  विद्वान  लोक  सांगतात.  दत्तप्रभू  आता  कोणत्या  रूपात  संचार  करीत  आहेत?

या  शंभर  वर्षापूर्वीपासून  ह्या  भूमिवर  श्री  दत्तप्रभू  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  रूपात  फिरत  आहेत  असे  ज्ञातहोत  आहे.  आपण  मला  ''काहीतरी  माग''  असे  म्हटलेत.  मला  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  रूप  पहाण्याची  फार  तीव्र  इच्छा  आहे.''

श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  अविर्भाव  (प्राकटय) 

हे  शब्द  ऐकून  त्या  अवधूताने  भुवने  दणाणून  जाण्यासारखे,  भूकंप  आल्यासारखे  विकट  हास्य  केले.  सुमती  महाराणीला  तिच्या  सभोवतीचे  समस्त  विश्व  एका  क्षणातच  अदृष्य  झाल्यासारखे  वाटले.  समोर  16  वर्षे  वय  असलेला  सुंदर  बालक  यतीच्या  रूपात  प्रकट  झाला.  आणि  म्हणाला  ''आई  !  मीच  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  आहे.  मीच  दत्त  आहे.  अवधूतांच्या  रूपात  असतांना  श्रीवल्लभांचे  रूप  पहाण्याची  इच्छा  व्यक्त   केलीस.  ती  इच्छा  पूर्ण  करण्यास  तुला  श्रीवल्लभांच्या  रूपात  दर्शन  दिले.  श्रीवल्लभांच्या  रूपात  असलेल्या  मला  कोणतेही  मागणे  मागु  शकतेस.  तू  मला  जेऊ  घालून  तृप्त  केलेस.  जे  मागशील  ते  वरदान  द्यावे  अशी  इच्छा  आहे.  या  जगातील  लोकांनी  संकल्प  रूपाने  पापकर्म  केल्यास  पापांचे  फळच  प्राप्त  होते.  संकल्पाने  पुण्यकर्म  केल्यास  पुण्यकर्माचे  फळ  प्राप्त  होते.  निष्काम  कर्माचे  आचरण  केल्यास  त्याला  अकर्म  म्हणतात.  ते  सुकर्म  ही  नसते  अथवा  दुष्कर्म  ही  नसते.  अकर्मास  पुण्य  किंवा  पाप  असे  कोणतेच  फळ  नाही  म्हणून  दुसरेच  फळ  द्यावे  लागते.  ते  भगवंताधिन  असते.  अर्जुनाने  अकर्म  केल्यामुळेच  श्रीकृष्णाने  त्याला  कौरवांना  मारावयास  सांगितले.  तसे  मारल्यास  पाप  लागणार  नाही  असे  श्रीकृष्णाने  अर्जुनास  सांगितले  होते.  कौरवांचा  संहार  हा  भगवंत  निर्णयच  होता.  तुम्ही  दंपतींनी  पण  विशेष  असे  अकर्म  केले  आहे.  म्हणुन  लोकहितार्थाने  काही  तरी  प्रतिफळ  दिले  पाहिजे.  निसंदेहाने  तुझी  इच्छा  मला  सांग,  न  चुकता  ती  पुरवीन.'' 

श्री  दत्तांच्या  दर्शनानंतर  सुमती  महाराणीला  स्फुरलेला  संकल्प 

ती  दिव्यमंगल  मूर्ति  पाहून  सुमती  महाराणीने  पादाभिवंदन  केले.  श्रीवल्लभांनी  सुमती  महाराणीला  उचलून  उभे  केले  व  म्हणाले  ''आई  !  मुलाच्या  पाया  पडणे  हे  अयोग्य  आहे.  याने  मुलाचे  आयुष्य  क्षीण  होते.  तेंव्हा  सुमती  म्हणाली,  ''श्रीवल्लभ  प्रभू  !  आई  म्हणून  बोलाविलेत.  आपले  हे  सिध्दवाक्य  आहे  तेच  बोल  खरे  करावे.  तू  माझा  मुलगा  म्हणून  जन्मास  यावे.''  यावर  श्रीदत्त  प्रभूंनी  ''तथास्तु''  असा  आशिर्वाद  दिला  व  म्हणाले  ''मी  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  रूपाने  तुझ्या  गर्भात  येईन.  आईने  लेकरांच्या  पायावर  पडणे  हे  लेकराचे  आयुष्य  क्षीण  होणेच  होय.  म्हणून  मी  धर्मकर्माच्या  सुत्रांच्या  उलट  जात  नाही.  मी  पुत्र  रूपाने  16  वर्षापर्यंत  जीवन  व्यतित  करेन.''  त्यावर  सुमती,  म्हणाली  केवढा  हा  अविचार  16  वर्षापर्यंतच  आयुष्य  !''  असे  म्हणून  विलाप  करू  लागली.  त्यावर  श्रीचरणांनी  सांगितले,  ''आई  !  16  वर्षापर्यंत  तुम्ही,  सांगाल  तसे  ऐकून  राहीन.  ''प्राप्ते  तु  षोडशे  वर्षे  पुत्रं  मित्रवदाचरेत्''  असे  शास्त्र  वचन  आहे.  16  वर्षे  वय  असलेल्या  मुलाबरोबर  मित्रा  सारखेच  वागले  पाहिजे.  आपल्या  इच्छांचे  दडपण  त्याच्यावर  आणू  नये.  मला  लग्न  करण्यासाठी बंधन  घालू  नये.  मला  यति  होऊन  स्वेच्छेने  विहार  करण्याची  परवानगी  द्यावी.  माझ्या  या  संकल्पाच्या  विरुध्द  तुम्ही  बंधन  घातले  तर  मी  घरात  राहणार  नाही.''  असे  सांगून  त्वरित  दत्त  प्रभु  अदृश  झाले.

सुमती  महाराणी  अवाक   झाली.  तिला  कांहीच  कळेनासे  झाले.  घडलेला  सारा  वृतांत  तिने  आपल्या  पतीस  विवरण  करून  सांगितला.  तेवढयातच  अप्पलराजू  म्हणाले,  ''सुमती  विचार  करू  नकोस,  श्रीदत्त  महाराज  या  प्रकारे  आपल्या  घरी  भिक्षेस  येतील  असा  विषय  तुझ्या  वडीलांनी  सूचना  म्हणून  अगोदर  सांगून  =ठेवला  होता.  श्रीदत्त  हे  करुणेचा  महासागर  आहेत.  श्रीवल्लभांचा  जन्म  होऊ  दे,  नंतर  आपण  विचार  करू''  अप्पल  राजुच्या  घरी  अवधूत  आले  ही  वार्ता  सगळया  गावात  पसरली.  पितृदेवांची  अत्यंत  प्रमुख  असलेली  महालय  अमावस्येच्या  दिवशी  ब्राह्मण  जेवायच्या  आधी  अवधूतास  भिक्षा  दिली  ह्या  विषयाची  चर्चा  झाली.  श्री  बापन्नावधानी  म्हणाले.  ''श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  जन्म  होणार  हे  सगळेच  म्हणतात  !  अवधूतांना  साष्टांग  नमस्कार  करणे  विहीतच  आहे  !  त्यामध्ये  सुमतीचा  काहीच  दोष  नाही.  पुत्ररूपाने  जन्मल्यावर  त्याला  साष्टांग  नमस्कार  केल्यास  बालकाचे  आयुष्य  क्षीण  होते.  परंतु  अवधूत  वेषात  असतांना  साष्टांग  नमस्कार  करणे  चूक  नाही.''  या  प्रसंगाने  पीठिकापुरातील  सर्व  ब्राह्मणांची  इर्ष्या  वाढली  विशेषत्वाने  नरसावधानी  या  नावाच्या  पंडितांची.  अमावस्येच्या  दिवशी  सगळेच  पितृकार्यामध्ये  निमग्न  झालेले  होते.  भोक्त्याचा  दुष्काळच  होता,  ही  फार  मोठी   समस्याच  पडली.  श्री  बापन्नार्यांनी  अप्पलराजुच्या  घरी  मात्र  निर्विघ्नपणे  कार्य  पार  पडेल  असे  सांगितले.  श्री  राजशर्मा  कालाग्नी  शमनांचे  (दत्ताचे)  ध्यान  करीत  होते.  तितक्यात  भोक्त   म्हणुन  तीन  अतिथी  आले.  आणि  पितृकार्य  निर्विघ्नपणे  पार  पडले.

बाबा  !  शंकर  भट्टा  !  त्या  दिवशी  वैश्यांना  वेदोक्त्त  उपनयन  करण्याचा  अधिकार  आहे  का  ?  नाही  ?  असा  विषय  चर्चेत  मुख्यांश  होता.  ब्राह्मणांची  परिषद  जमली.  बंगाल  देशातील,  नवद्वीपाहून  आशुतोष  या  नावाचे  पंडित  पादगया  क्षेत्रास  आले  होते.  त्यांच्याकडे  अत्यंत  प्राचीन  नाडी  ग्रंथ  होते.  त्यांना  देखील  पंडित  परिषदेचे  आमंत्रण  होते.  बापन्नाचार्यांनी  सांगितले,  नियमनिष्ठेमध्ये  ब्राह्मण,  क्षत्रीय,  वैश्य  समानच  असतात.

श्रीपादांच्या  जन्मसमयी  दृग्गोचर  झालेले  अद्भूत  दृष्य 

इतक्यात  मी  म्हणालो  ''महाराज,  श्रीपाद  प्रभूंच्या  लीला  विस्तारपूर्वक  सांगून  मला  धन्य  करावे.''  अरे  शंकर  भट्टा  !  नरसावधानी  बापन्नार्यावर  क्रोधित  झाले  व  येनकेन  प्रकारेण  त्यांचा  अपमान  करण्याचे  त्यांनी  ठरविले .  त्यांची  (नरसावधानींची)  बगलामुखी  साधना  विफल  होण्याचे  एकमेव  कारण  बापन्नार्यच  आहेत  असे  त्यांच्या  मनाने  ठामपणे  घेतले  होते.  तांत्रिक  प्रयोगाने  बापन्नार्याने  त्यांची  मंत्रसिध्दि  निष्प्रभ  केली  असा  कुप्रचार  करण्यास  त्यांनी  सुरवात  केली.  नाडी  ग्रंथात  श्रीपाद  प्रभूंच्या  अवताराविषयी  जे  विवरण  होते  ते  त्यांना  विचलित  करीत  होते.  नाडीग्रंथ  हा  मुलत:  अविश्वसनीय  आहे.  बापन्नार्यानी  मत्स्याहारी  ब्राह्मणास  भोजन  दिले,  हा  अनाचार  घडला  असा  नरसावधानी  यांनी  वाद  मांडला.  मनुष्य  पूर्णब्रह्माचा  अवतार  कदापि  होऊ  शकत  नाही.  तर  तान्हे  बाळ  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  सर्वांतर्यामी,  सर्वज्ञ,  सर्वशक्तिमान  असे  श्रीदत्त  प्रभूंचे  कसे  बरे  अवतार  होऊ  शकतील  ?  श्रीपाद  प्रभूंनी  अगदी  लहान  असताना  केलेला  प्रणवोच्चार,  पाळण्यात  असताना  केलेला

शास्त्र  प्रसंग,  आणि  वयास  न  शोभणारे  प्रज्ञेचे  प्रदर्शन  नरसावधानींना  पटले  नाही.  एखादा  विद्वानब्राह्मण  श्रीपादाच्या  शरीतात  प्रवेश  करून  असे  बोलतो  आहे  असा  त्यांनी  प्रचार  केला.  श्री  कुक्कुटेश्वराच्या  मंदिरात  असलेले  स्वयंभू  तेच  खरे  दत्तात्रय  आहेत.  तेच  वर  प्रदान  करणारे आहेत. या बालकास दत्तस्वरूप मानने चुकीचे आहे .असा नारसावधनी यांनी सर्वांचा समज करून देण्याचा प्रयत्न केला.

श्रीपादांच्या  जन्मानंतर  सतत  नऊ  दिवसापर्यंत  ज्या  जागेवर  त्यांना  निजवत  असत  त्या  जागी  एक  तीन  फण्यांचा  नाग  आपला  फणा  उभारून  बाळावर  छाया  करीत  असे.  श्रीपाद  मातेच्या  गर्भातून  साधारण  बालका  प्रमाणे  जन्मास  न  येता  ज्योति  स्वरूपाने  अवतरले  होते.  जन्म  होता  क्षणीच  महाराणी  सुमती  मर्च्छित  झाल्या.  प्रसुतीगृहातून  मंगल  वाद्यांचा  ध्वनी  येऊ  लागला.  थोडया  वेळात  आकाशवाणी  झाली  व  सर्वाना  बाहेर  जाण्याचा  आदेश  झाला.  श्रीपादांच्या  सानिध्यात  चार  वेद, अठरा  पुराणे  आणि  महापुरुष  ज्योति  रूपाने  प्रगट  झाले  व  पवित्र  वेदमंत्रांचा  घोष  बाहेर  सर्वांना  ऐकू  येऊ  लागला.  थोडया  वेळाने  सर्वत्र  शांतता  पसरली.  या  अद्भूत  घटना  बापन्नार्याना  सुध्दा  अगम्य  व  आश्चर्यकारक  वाटल्या.

श्रीपादांच्या  बाललीला 

श्रीपाद  आता  एक  वर्षाचे  झाले  होते.  ते  आठ  दहा  महिन्यांचे  असतानाच  त्यांचे  आजोबा  बापन्नार्याबरोबर  पंडितपरिषदेस  जात  असत.  आजोबा  आपल्या  नातवाला  बरोबर  घेऊन  जात.  नरसावधानी  आपल्या  घरी  राजगिऱ्याचे  पीक  काढीत.  राजगिऱ्याची  भाजी  अत्यंत  रुचकर  असते.  गावातील  लोक  नरसावधानीना  ती  भाजी  देण्याची  विनंती  करीत.  परंतु  ते  ती  भाजी  कोणालाच  देत  नसत.  कोणाकडून  काही  विशेष  काम  करून  घ्यायचे  असल्यास  त्याला  ते  ती  भाजी  देत  व  इच्छित  काम  करून  घेत.  श्रीपादांनी  एकदा  आपल्या  आईस  राजगिऱ्याची  भाजी  करण्यास  सांगितले.  ती  भाजी  सुध्दा  नरसावधानीच्या  घरचीच  त्यांना  हवी  होती.  परंतु  हे  काम  कठीण   होते.  श्रीपाद  लहान  असतानाच  स्वेच्छेने  चालत  नरसावधानींच्या  घरी  जात  असत.  त्यांच्या  घरी  शास्त्राविषयी  चर्चा  करीत,  तसेच  चित्र-विचित्र  लीला  करीत.  पीठिकापुरत  एका  महापंडिताचा  मृत्यु  झाला  होता.  त्या  पंडिताचा  प्रेतात्मा  श्रीपादाकडून  विचित्र-कार्य  करवून  घेत  आहे.  या  बालकास  योग्य  ते  उपचार  न  करता  बापन्नाचर्य व  राजशर्मा  हे  दोघे  या  बालकास  दत्तावतारी  समजत  आहेत,  असे  नरसावधानी  सर्वाना  सांगत.  पीठिकापूर   हे  पादगया  क्षेत्र  असून पितृदेवांचे  प्रधान  स्थान  आहे.  विगत  आत्म्यांशी  संपर्क  साधून  संभाषण  करण्याचे  सामर्थ्य  असलेले  तत्त्ववेत्ते  येथे  राहात  असत.  श्रीपादांच्या  शरीरात  कोणत्यातरी  महापंडिताचा  आत्माच  वास  करीत  आहे  आणि  त्यांच्याकडून  अगम्य  अशा  लीला  करवून  घेत  आहे,  अशी  धारणा पीठिकापुरम मध्ये  दृढ   होत  होती.

तिरूमलदास पुढे म्हणाले ' मी  मलयाद्रीपुरमहून  पीठिकापुरम  येथे  आलो  तेव्हा  श्रीबापन्नार्य  आणि  राजशर्मा  यांच्या  घरचा  रजक  होतो.  नरसावधानीच्या  घरचा  जो  रजक  होता  तो  वृध्दावस्थेने  मरण  पावला  होता.  त्या  रजकाचा  मुलगा  वायसपूर  अग्रहार  (सध्याचेकाकिनाडा)  येथे  निघून  गेला  होता.  यामुळे  त्यांच्या  घरचे  रजकाचे  काम  मला  मिळाले  होते.  मी  लहानपणापासून  बापन्नार्युलुच्या  सहवासात  असल्याने  माझ्यातील  सतप्रवृत्ती जागृत  झाली  होती  व  अध्यात्माची  ज्योत  प्रज्वलित  झाली  होती.  ज्या  दिवशी  मी  नरसावधानींना  पहात  असे  त्या  दिवशी  मला  पोटाचा  विकार  होऊन  अन्न  ग्रहण  न  करण्याइतकी  माझी  दीन  अवस्था  होई.  नरसावधानीचे  कपडे  मी  स्वत:  न  धुता  माझा  मुलगा  रविदास  ते  धूत  असे.  सात्विक  प्रवृतीच्या  लोकांचेच  कपडे  मी  स्वत:  धूत  असे.

नरसावधानींचे  कपडे  मी  स्वत:  न  धूता  ते  माझा  मोठ  मुलगा  रविदास  धूतो,  ही  वार्ता  त्यांच्या  कानी  गेली.  त्यांचे  कपडे  मी  स्वत:  धूवावे  अशी  त्यांनी  आज्ञा  केली.  ती  आज्ञा  मानून  मी  नरसावधानीचे  कपडे  स्वत:  धुऊ  लागलो.  मी  कपडे  धूत  असताना  श्रीपादाचे  नाम  स्मरण  करीत  असे.  मी  धुतलेले  कपडे  घेऊन  रविदास  नरसावधानींकडे  गेला.  मी  धुतलेले  कपडे  जेंव्हा  सगळयांनी  घातले,  तेंव्हा  कोणालाच  काही  झाले  नाही.  परंतु  नरसावधानींनी  ज्या  वेळी  ते  कपडे  घातले,  तेंव्हा  त्यांना  त्यांच्या  अंगावर  विंचू,  गोम  सरपटत  असल्यासारखे  वाटले.  त्या  कपडयामध्ये  त्यांचे  शरीर  अग्नीवर  ठेवल्याप्रमाणे  पोळू  लागले.  नरसावधानींनी  मला  बोलवले  व  ते  रागाने  म्हणाले,  कोणत्यातरी  क्षुद्र  विद्येचा,  मंत्राचा  प्रयोग  मी  कपडयावर  केला  आहे.  त्या  अपराधाबद्दल  त्यांनी  माझी  न्यायाधिशाकडे  तक्रार  केली.  परंतु  चतुर  न्यायाधिशांनी  मला  निर्दोष  जाहीर  करून  सोडून  दिले.  मी  आनंदात  घरी  आलो.  थोडयाच  वेळात  श्रीपाद  प्रभू  एका  सोळा  वर्षाच्या  युवकाच्या  रूपात  आमच्या  घरी  आले.  श्रीपाद  प्रभू  वाटेल  त्या  रूपात  येऊन  भक्तांना  दर्शन  देत  असत.  मी  आश्चर्याने  म्हणालो,  ''महाराज  आपण  उत्तम  अशा  ब्राह्मण  कुलामध्ये  जन्मलेले  आहात,  तेंव्हा  आमच्या  सारख्या  रजकांच्या  वस्तीत  येणे  कांही  योग्य  नाही.''  तेव्हा  प्रभू  म्हणाले  ''नरसावधानीसारखे  पापाचे  गाठोडे   डोक्यावर  वाहणारे  ब्राह्मण  खरे  तर  रजकांपेक्षा  कमी  दर्जाचे  असतात.  परंतु  तुझ्यासारखे  ब्राह्मणांची  ओढ  असलेले  रजक  त्यांच्यापेक्षा  श्रेष्ठच  असतात.''  श्रीपादांचे  ते  शब्द  ऐकून  मी  त्यांच्या  चरणांवर  नतमस्तक  झालो  आणि  ढसा  ढसा  रडलो.  श्रीप्रभूंनी  माझ्याकडे  अमृतदृष्टीने  पाहिले  व  आपल्या  दिव्य  हाताचा  स्पर्श  करून  मला  उठवले.  नंतर  त्यांनी  आपला  उजवा  हात  माझ्या  शिरावर  ठेवला  आणि  त्याच  क्षणी  मला  पुर्वीचे  जन्म  आठवले .  माझ्यातील  योग  शक्तींना  चालना  मिळाली.  कुंडलिनी  शक्ती  सुध्दा  जागृत  झाल्याचा  अनुभव  येऊ  लागला.  श्रीपाद  प्रभू  हळू  हळू  पाऊले  टाकीत  अंतर्धान  पावले.

श्रीपाद  प्रभूंनी  आपल्या  आईजवळ  राजगिऱ्याची  भाजी  करून  देण्याचा  हट्ट  केला.  त्यांना  नरसावधानींच्या  घरातील  भाजी  हवी  होती.  परंतु  ती  गोष्ट  अशक्य  वाटत  होती.  या  वेळी  बापन्नार्य म्हणाले,  ''श्रीपादा  !  उद्या  सकाळी  मी  तुला  नरसावधानींच्या  घरी  घेऊन  जातो.  तू  स्वत:  त्यांना  राजगिऱ्याची  भाजी  देण्याची  विनंती  कर.  परंतु  जर  त्यांनी  ती  भाजी  देण्यास  नकार  दिला  तर  त्याभाजीसाठी  पुन्हा  कधी  हट्ट  करू  नकोस.''  दुसऱ्या  दिवशी  बापन्नार्य  बालक  श्रीपादाला  घेऊन  नरसावधानीकडे  गेले.  त्यांच्या  घरी  जाताच  बापन्नार्य  श्रीपादांना  म्हणाले,  ''श्रीपादा  !  मोठ्यांना   नमस्कार  करून  त्यांचे  आशिर्वाद  घ्यावेत.  नरसावधानी  बाहेर  ओसरीवर  बसले  होते.  त्यांची  लांब  शिखा  पाठीवर   रुळत  होती.  ती  नरसावधानींना  अत्यंत  प्रिय  होती.  श्रीपादांनी  नरसावधानींकडे  बघितले  व  दोन  हात  जोडून  त्यांना  नमस्कार  केला.  श्रीपादांची  तीक्ष्ण  नजर  नरसावधानींच्या  पाठीवर  विसावलेल्या  शिखेवर  पडली  आणि  काय  आश्चर्य  ती  आपोआप  गळून  खाली  पडली.  ती  पाहून  नरसावधानी  अगदी  गोंधळून  गेले.  या  वेळी  श्रीपाद  म्हणाले,  ''आजोबा  !  नरसावधानी  आजोबांची  अत्यंत  प्रिय  असलेली  शिखा  गळून  पडली.  आता  त्यांच्याकडे  राजगिऱ्यांची  भाजी  मागणे  योग्य  होईल  काय  ?  चला  आपण  घरी  जाऊ.''  श्रीपादांनी  राजगिऱ्याची  भाजी  पुन्हा  कधीही  विचारली  नाही.

श्रीपादांच्या  नमस्कारामुळे  झालेले  नुकसान  नरसावधानींच्या  लक्षात  आले.  ते  ध्यानात  बसले  असता  त्यांच्या  शरीरातून  त्यांच्या  सारखेच  दिसणारे  एक  तेजोवलय  बाहेर  पडले.  नरसावधानींनी  त्या  तेजोवलयास  विचारले  ''तू  कोण  ?  कोठे  चाललास  ?''  त्या  तेज:पुंज  नरसावधानी  सारखे  दिसणाऱ्या  आकृतीने  उत्तर  दिले  ''मी  तुझ्यात  राहणारे  पुण्यशरीर  आहे.  तू  आतापर्यंत  कितीतरी  वेद  पठन  केलेले  आहेस.  स्वयंभू  दत्तात्रेयांची  आराधना  केलीस,  परंतु  साक्षात  श्री  दत्तात्रेयांचे  अवतार  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  अपमान  केलास.  तुला  तुझ्या  शिखेवर,  राजगिऱ्याच्या  भाजीवर  असलेले  प्रेम,  आसक्तीच्या  एक  लक्षांश  प्रेम  जरी  श्रीपादांच्या  विषयी  असते  तर  तुझ्या  जन्माचे  सार्थक  झाले  असते.  परंतु  मोहपाशांनी  स्वत:स  बांधून  घेऊन  मोक्षाची  एक  दिव्य  संधि  घालवलीस  .  तू  लवकरच  दरिद्री  होशील.  त्या  दारिद्रयाचे  हरण  करण्यासाठी  श्रीपाद  प्रभूंनी  तुला  ''शाकदान''  मागितले  होते.  त्यांना  जर  तू  ते  दान  दिले  असतेस,  तर  तुला  आता  येणारे  दारिद्रय  न  येता  उत्तम  ऐश्वर्य  प्राप्त  झाले  असते.  तू  स्वत:  आपल्या  हातांनी  ही  संधि  दवडलीस.  श्रीपाद  प्रभू  करूणेचे  सागर  आहेत.  हा  अवतार  संपल्यावर  ते  दुसरा  नृसिंहसरस्वती  नांवाने  अवतार  ग्रहण  करतील.  त्यावेळी  तू  एक  दरिद्री  ब्राह्मणाच्या  रूपात  जन्म  घेशील.  त्या  जन्मात  सुध्दा  तू  घरी  राजगिऱ्याची  भाजी  पिकवशील.  त्यावेळी  योग्य  समय  पाहून  मी  पुन्हा  तुझ्या  शरीरात  प्रवेश  करीन.  त्यावेळी  श्रीपाद  प्रभू  तुझ्या  घरी  भिक्षेसाठी येतील.  तू  प्रेमाने  वाढलेली  भिक्षा  घेऊन  तुला  ते  ऐश्वर्य  प्रदान  करतील.  सध्या  मात्र  मी  तुझे  शरीर  सोडून  जात  आहे.  श्रीपाद  प्रभूंनी  केलेला  नमस्कार  तुला  नव्हता  तर  तुझ्यातील  पुण्य  स्वरूपात  वास्तव्य  करणाऱ्या  मला  होता. त्यांनी  मला,  तुला  सोडून  देऊन  त्यांच्या  स्वरूपात  लीन  होण्याची  आज्ञा  केली  होती.  त्यानुसार  मी  श्रीपादाच्या  स्वरूपात  लीन  होण्यास  जात  आहे.  आता  तुझ्या  शरीरात  केवळ  पाप  पुरुषच  उरला  आहे.''  असे  बोलून  तो  पुण्यात्मा  श्रीपादांमध्ये  विलीन  झाला.

कालांतराने  नरसावधानींची  प्रकृती  क्षीण  होत  गेली.  लोक  त्यांच्या  शब्दांचा  निरादर  करू  लागले.  त्यांच्या  चेहऱ्यावर  विलसणारे  विद्वत्तेचे  तेज  लोप  पावले.  याच  वेळी  पीठिकापूरात  विषूचि (कॉलराची)  साथ  पसरली.  यात  अनेक  ग्रामवासी  या  रोगास  बळी  पडले.  दूषित  पाण्यामुळे  हा  रोग  बळावत  असल्याचा  निष्कर्ष  गावातील  वैद्यांनी  काढला.  भयभीत  झालेल्या  ग्रामवासियांनी  यामहामारीच्या  रोगावर  शास्त्रीय  रीतिने  निर्मूलन  पध्दती  काढावी  अशी  प्रार्थना  श्री  बापन्नार्यांना  केली.  श्री  बापन्नार्यानी  आपल्या  अंतर  दृष्टीने  जाणले  की  महामारी  जलदोषाने  झालेली  नसून  वायुमंडल  कलुषित  झाल्याने  झाली  आहे.  परंतु  बापन्नार्याचे  हे  मत  गावातील  वैद्यांना  पटले  नाही.  ग्रामस्थानी  ग्रामदेवतेस  पशुबली  देऊन  तांत्रिकाकडून  विविध  प्रकारच्या  पूजा,  महामारीच्या  निर्मूलनासाठी   केल्या.  पशूचा  बळी  दिल्याने  त्यांच्यातील  प्राणशक्ती बळजबरीने  बाहेर  काढली  जाते  व  तिला  मंत्रोच्चाराने  वश  करून  घेतात.  प्राणशक्तीस  वृध्दिंगत  करण्यासाठी   योगाच्या  प्रक्रिया  किंवा  सात्विक  आराधनेचा  अवलंब  करणे  अधिक  योग्य  आहे  असे  श्री  बापन्नार्यांचे  मत  होते.  त्यांनी  ग्रामवासियांना  असे  सुचविले  परंतु  अंधश्रध्देने  त्यांनी  पशुबळी  देण्याचे  थांबवले  नाही.  गावातील  कांही  मंडळींनी  पशुबळीचा  विषय  श्रीपाद  प्रभूंपुढे  काढला.  त्यावर  श्रीपाद  म्हणाले  ''ग्रामदेवतेस  विनंती  केली  आहे  की  तिने  पशुबळीचा  स्वीकार  करू  नये.''  श्रीपादांच्या  आज्ञेनुसार  ग्रामदेवता  समुद्रस्नान  करण्यास  गेली  आहे.  आता  दूध  उतू  घालून  देवतेस  नैवेद्य  अर्पण  केल्यास  या  रोगराई  पासून  तुमची  सुटका  होईल.  कालिकेचे  रूप  धारण  केलेली  ग्राम  देवता  शांत  होईल.  ही  वार्ता  गावातील  सर्व  लोकांना  कळविण्यासाठी  एका  चर्मकारास  बोलावून  चर्मवाद्यावर  दवंडी  पिटविण्यास  सांगितले.  दवंडी  कोणी  पिटायची  असे  विचारल्यावर  श्रीपाद  म्हणाले  विषुचि  रोगाने  ग्रस्त  वेंकय्या  याने  दवंडी  पिटावी,  असा  माझा  निरोप  त्यास  सांगा.  ते  सर्व  ग्रामवासी  वेंकय्याजवळ  गेले,  तो  मरणासन्न   होता.  त्याला  हा  निरोप  देताच  तो  मुरच्छित  पडला.  एका  घटकेनंतर  जेव्हा  तो  शुध्दिवर  आला  तेव्हा  तो  पूर्णपणे  बरा  झाला  होता.  ही  बातमी  हा  हा  म्हणता  संपूर्ण  पीठापुरममध्ये  चर्चेचा  विषय  झाली.  व्यंकय्याने  गावात  फिरून  चोहिकडे  दवंडी  पिटली.  बापन्नार्यानी  आपल्या  सेवकास,  पाण्याने  भरलेले  एक  मोठे   भांडे  त्यांच्या  समोर  आणून  ठेवण्यास   सांगितले.  वायुमंडलातील  विषारी  किटाणूंचा  नाश  करण्यासाठी  योग्य  त्या  मंत्राचे  संधान  केले.  आणि  तत्काळ  हवेतील  विषारी  किटाणू  पाण्यात  टप  टप  येऊन  पडले.  अशा  प्रकारे  वायुमंडल  शुध्द  झाले  आणि  महामारी  रोगाचे  निर्मुलन  झाले.

श्रीपादांच्या  जन्मतिथीस  (वाढदिवसाच्या  दिवशी)  राजशर्मा  पत्निसह  श्रीपादांना  घेऊन,  बाळाचे  आजोबा  श्री  बापन्नार्य  यांच्याकडे  आले.  ज्या  ज्या  वेळी  बापन्नार्यानी  श्रीपादांच्या  चरणावरील  शुभचिन्हे  पहाण्याचा  प्रयत्न  केला,  त्या  त्या  वेळी  त्यांना  कोटी  कोटी  सूर्याच्या  तेजस्वितेचा  अनुभव  येई  व  ती  शुभचिन्हे  त्या  तीव्र  प्रकाशात  दिसत  नसत.  याचे  त्यांना  राहून  राहून  आश्चर्य  वाटे.  परंतु  त्या  दिवशी  उष:काली  साळीच्या  कोंडयावर  दिव्य  असे  पदचिन्ह  दिसले.  त्यांनी  आपली  कन्या  सुमतीस  विचारले,  ''बाळ  या  कोंडयावरुन  कोण  गेले.  तुमचा  लाडका  नातूच  येथून  गेला.  आणखी  कोण  बाबा''  सुमतीने  उत्तर  दिले.  ते  पदचिन्ह  षोडशवर्षीय  कुमाराच्या  पदचिन्हासारखे  होते.  आजोबांनी  श्रीपादांना  आपल्या  मांडीवर  घेतले  व  त्याच्या  चरण  कमलांचे  ते  निरिक्षण  करू  लागले.  या  वेळी  त्यांना  दिव्य  प्रकाश  न  दिसता  मीच  साक्षात  दत्तात्रेयांचा  अवतार  आहे  असे  सूचित  करणाऱ्या  सुस्पष्ट अशा  चिन्हांचे  दर्शन  झाले.  त्या  दिव्य  चरणांचे  बापन्नार्यांनी  कौतुकाने  चुंबन  घेतले.  हा  बालक  श्री  दत्तात्रेयाचा  अवतार  असल्याचा  त्यांचा  निर्धार  दृढ  झाला.  त्याच  वेळी  त्यांच्या  मुखातून  श्री  दत्ताच्यास्तुतीपर  पद  आपोआप  निघाले.  त्या  दिव्य  चरणांच्या  दर्शनाने  बापन्नार्याच्या  अंगी  अष्टभाव  सिध्द  झाले.  त्यांच्या  डोळयातून  आनंदाश्रू  वाहू  लागले.  ते  श्रीपादांच्या  गालावर  ओघळले  आणि  मोत्याच्या  बिंदु  सारखे  चमकत  होते.  आजोबानी  आपल्या  उपरण्याने  हळुवारपणे  श्रीपादाच्या  गालावरील  ते  थेंब  पुसले.  या  वेळी  श्रीपाद  म्हणाले.  आजोबा  तुम्ही  सौरमंडलातून  शक्तिपात   करून  ती  शक्ति  श्रीशैल्यस्थित  श्री  मल्लिकार्जुन  शिवलिंगात  आकर्षित  केली  होती.  त्याच  वेळी  सूर्यमंडलातील  ती  शक्ति  गोकर्ण  महाबळेश्वरी  व  पादगया  क्षेत्री  स्थित  असलेल्या  स्वयंभू  श्रीदत्तात्रेयांच्या  ठायी   सुध्दा  आकर्षित  झाली.  गोकर्ण  महाबळेश्वर  क्षेत्रास  अधिक  शक्तिसंपन्न   करण्याचा  संकल्प  आहे.  प्राणी  मात्रातून  जे  अनिष्ट  स्पंदन  बाहेर  पडतात  त्या  स्पंदनाना  माझ्यात  लय  पावून,  जे  माझे  साधक,  आश्रित  आहेत  त्यांच्या  प्रति  शुभ  स्पंदनांचे  प्रसारण  व्हावे  असा  माझा  संकल्प  आहे.  गोकर्ण  महाबळेश्वर  हे  परमेश्वराचे  ''आत्मलिंग''  आहे.  त्याच्या  केवळ  दर्शनाने  मुक्ति   साध्य  होते.  तसेच  श्रीशैल्याच्या  दर्शनाने  सुध्दा  मुक्तिचे   फळ  प्राप्त  होते.  येथील  मल्लिकार्जुनास  शक्तिसंपन्न  करण्याचा  संकल्प  आहे.  तुम्ही  सत्यऋषी  आहात.  मी  यतीच्या  रूपात  होतो  तेव्हा  आईने  मला  नमस्कार  केला,  त्यामुळे  मी  अल्पायुषी  होणार  असे  आपले  मत  होते.  परंतु  आईने  मला  श्रीपाद  रूपात  नमस्कार  केला  म्हणून  मी  अल्पायुषी  होणार  असे  म्हणालो  तेंव्हा  आपल्या  दोघांचेही  म्हणणे  खोटे  होऊ  नये  म्हणून  मी  केवळ  सोळा  वर्षे  पर्यंत  तुमच्या  घरी  राहण्याचे  ठरविले   आहे.  संसार  बंधनातून  मुक्तीची  इच्छा  करणाऱ्या  मुमुक्षूंना  अनुग्रह  देण्याचे  कार्य  पुढे  आहे.  मी  चिरंजीव  असावे  असा  तुमचा  संकल्प  आहे,  तो  मी  पूर्तीस  नेईन.  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  हे  स्वरूप  गुप्त  करेन.  नृसिंह   सरस्वती  हा  अवतार  घेतला  तरी  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  रूप  हेच  नित्य  सत्य  रूप  म्हणून  राहील.  नृसिंह  सरस्वतीचे  अवतारकार्य  पूर्ण  करून  श्रीशैल्यास  असलेल्या  कदलीवनात  तीनशे  वर्षे  पर्यंत  तपश्चर्या  करून  प्रज्ञापूर  (अक्कलकोट)  येथे  स्वामी  समर्थ  रूपात  प्रकट  होईन.  तेथील  वटवृक्षामध्ये  माझी  प्राण  शक्ति   प्रवेश  करवून  मल्लिकार्जुन  शिवलिंगात  विलिन  होईन.

बापन्नार्याना  हे  सगळे  आश्चर्यकारक  व  अद्भूत  असे  वाटले.  आजोबांच्या  घरी  पहिल्या  वर्षीचा  वाढदिवस  अति  आनंदात  व  थाटाने  साजरा  झाला.  पीठिकापुरमला   त्या  दिवशी  आणखी  एक  आश्चर्य  घडले.  नरसावधानी,  देवळाचे  पुजारी  आणि  अजून  कांही  मंडळी  कुक्कटेश्वराच्या  मंदिरात  दर्शनाला  गेले  असताना,  त्यांना  तेथे  स्वयंभू  दत्तात्रेयांची  मूर्ती  दिसली  नाही.  मंदिरातील  मूर्ती  दिसेनाशी  झाल्याची  वार्ता  गावात  दावानलासारखी  पसरली.  नरसावधानींच्या  विरूध्द  असलेला  एक  तांत्रिक  मूर्ती  अदृश्य  होण्याचे  कारण  नरसावधानींच  आहेत  असे  मोठ्या   तावातावाने  म्हणू  लागला.  नरसावधानी  क्षुद्र  विद्येचे  उपासक  आहेत  त्यांनीच  मूर्ती  अदृश्य  केली,  असा  प्रचार  गावात  करण्यास  त्याने  सुरुवात  केली. पिठपुर पीठापुरमच्या  ब्राह्मणांनी  नरसावधानींच्या  घराची  झडती  घेण्याचे  ठरविले .  ते  ब्राह्मण  श्री  बापनार्यांना  भेटले  व  झालेला  प्रकार  सांगितला.  तेव्हा  बापन्नार्य  त्या  ब्राह्मणास  म्हणाले,  सत्य  प्रत्ययास  येईपर्यंत  मौन  राहावे.  योग्य  वेळी  या  प्रश्नाचे  समाधान  होईल.  नरसावधानींच्या  घराची  झडती  घेऊन  संशयित  स्थळी  खोदकाम  केल्यावर  तेथे  मानव  कपाल  व  क्षुद्र  विद्येस  उपयोगी  पडणाऱ्या  कांही  वस्तु  सापडल्या,  परंतु  श्रीदत्तात्रेयांची  मूर्ती  मात्र  मिळाली  नाही.  श्री  नरसावधानी  मूर्तीच्या  चोरीच्या  आरोपापासून  मुक्त  झाले.  परंतु  ते  क्षुद्र  विद्येचे  उपासक  असल्याचे  सिध्द  झाले.  दिवसेंदिवस  त्यांची  प्रकृति  क्षीण  होत  होती.  त्यांच्याकडे  एक  वांझ  गाय  होती.  तिला  बैलाप्रमाणे  शेतीच्या  कामासाठी  वापरीत  व  वेळेवर  दाणा-पाणी  सुध्दा  देत  नसत.  एके  दिवशी,  नरसावधानींच्या  विरूध्द  असलेल्या  तांत्रिकाने  त्या  गायीच्या  शरीरात  क्षुधा शक्तीचे   आवाहान  केले.  त्यामुळे  त्या  गायीने  खुंटाचे  बंधन  तोडून  टाकून  ती  घरात  शिरली  व  घरच्या  लोकांना  शिंगाने  मारू  लागली.  नरसावधानींनी  अतिप्रेमाने  लावलेला  राजगिऱ्याच्या  भाजीचा  मळा  तिने  उध्वस्त  केला.  त्या  गायीच्याजवळ  जाऊन  तिला  दोरीने  बांधणे  कोणासच  शक्य  झाले  नाही.  त्याच  दिवशी  नरसावधानींच्या  घरी  त्यांच्या  आईचे  श्राध्द  होते.  श्राध्दाचा  संपूर्ण  स्वयंपाक  झाला  होता.  श्राध्दाच्या  ब्राह्मणांचे  भोजन  झाले  होते.  घरच्या  मंडळीचे  मात्र  जेवण  अजून  झाले  नव्हते.  त्या  गायीने  सारे  अन्न  व  वडे  खाऊन  टाकले.  याच  वेळी  बालक  श्रीपाद  प्रभु  आपल्या  वडिलांना  नरसावधानींच्या  घरी  घेऊन  जाण्याचा  हट्ट  करू  लागले.  श्रीराज  शर्मा  त्यांना  घेऊन  नरसावधानींच्या  घरासमोर  जाऊन  उभे  राहिले.  तेवढयात  ती  गाय  नरसावधानींच्या  घरातून  बाहेर  आली.  तिने  अंगणात  उभे  असलेल्या  श्रीपादांना  तीन  प्रदक्षिणा  घातल्या  व  नंतर  त्यांच्या  चरणी  नतमस्तक  झाली  व  त्याच  अवस्थेत  गतप्राण  झाली.

या  प्रसंगानंतर  गावातील  लोक  अनेक  मते  व्यक्त   करू  लागले.  गायीने  खाल्लेल्या  वडयामध्ये  विष  होते  व  ते  खाल्याने  गाय  मरण  पावली.  आता  नरसावधानींना  गोहत्येचे  पातक  लागेल  असे  नाना  लोकापवाद  उठू   लागले.  यामुळे  नरसावधानी  त्रस्त  झाले  होते.  त्या  गायीने  श्रीपादांना  तीन  प्रदक्षिणा  घातल्या  व  नंतर  त्यांच्या  चरणांवर  मस्तक  ठेऊन   प्राण  सोडले.  त्या  कारणाने  श्रीपाद  हे  दैवी  अवतार  असल्याची  सर्व  लोकांची  खात्री  झाली.  राजशर्माना  आयुर्वेद  शास्त्राचे  ज्ञान  होते.  ते  नरसावधानींच्या  विनंतीनुसार  त्यांचा  औषधोपचार  करीत  होते.  परंतु  त्यांच्या  दुर्धर  रोगावर  औषधाचा  कांही  परिणाम  दिसून  येत  नव्हता.  नरसावधानींची  प्रकृती  खालावतच  गेली  आणि  त्या  रोगातच  त्यांचा  एके  दिवशी  देहांत  झाला.

नरसावधानींच्या  मृत्यूमुळे  गावातील  लोक  श्री  राजशर्मानी  त्यांना  उत्तम  औषध  दिले  नाही.  त्यामुळे  ते  आपल्या  जीवास  मुकले  असे  बोलू  लागले.  कांहीजण  म्हणू  लागले  की  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  नरसावधानीकडे  रोज  जात  असत.  ते  जर  दत्तावतारी  असते  तर  नरसावधानींचा  मृत्यू  कसा  झाला  ?  अनेकांनी  गोहत्येचे  पातकच  त्यांच्या  देहांताचे  कारण  असल्याचा  निर्वाळा  दिला.  नरसावधानींच्या  कुटुंबियांचे  सांत्वन  करण्यासाठी  श्री  राजशर्मा  व  श्रीपाद  गेले  असताना  नरसावधानींच्या  पत्नीने  त्यांचा  हात  धरून  म्हटले  ''अरे  बाळा  श्रीपादा  !  चिमुटभर  सौभाग्याचे  वाण  घेण्यासाठी  मी  दूर  दूर  पर्यंत  हळदी  कुंकुवास  जात  होते.  तू  दत्तात्रेयच  आहेस  तर  नरसावधानी  आजोबाना  जिवंत  करणे  तुला  शक्य  नाही  का  ?''  असे  म्हणून  ती  माउली  रडू  लागली.  नवनीतासम  मृदु   हृदय  असलेल्या

श्रीपाद  प्रभूंनी  त्या  मातेचे  अश्रु  पुसले.  शवयात्रा  सुरू  झाली.  राजशर्मा  व  श्रीपाद  त्या  अंतिम  यात्रेत  सहभागी  झाले.  नरसावधानीच्या  ज्येष्ठ  पुत्राने  पित्याच्या  चितेस  अग्नी  देण्यासाठी अग्नी  हातात  घेतला.  त्याच  वेळी  श्रीपादांच्या  नयनांतून  दोन  थेंब  बाहेर  पडले.  याच  वेळी  मेघगर्जनेसारख्या  आवाजात  श्रीपाद  म्हणाले  ''अहाहा  !  मृत   झालेल्या  पित्याच्या  शरीरास  अग्नी  देणारे  पुत्र  तर  पाहिले.  परंतु  जिवंत  पित्यास  अग्नी  देणाऱ्या  पुत्रास  पाहिले  नाही.''  हे  वक्तव्य   ऐकून  स्मशानात  जमलेले  सारे  लोक  निस्तब्धतेने  श्रीपादांकडे  पाहू  लागले.  श्रीपादांनी  चितेवर  असलेल्या  नरसावधानींच्या  भ्रूमध्यावर  अंगुष्ठाने  स्पर्श  केला,  त्या  दिव्य  स्पर्शाने  नरसावधानींच्या  अंगात  चैतन्य  स्फुरू  लागले  आणि  आश्चर्य  असे  की  कांही  क्षणातच  ते  चितेवरून  खाली  उतरले.  त्यांनी  श्रीपाद  प्रभूंना  साष्टांग  नमस्कार  केला.  नंतर  ते  सर्व  लोकांबरोबर  घरी  परतले.  त्यांना  सजीव  घरी  आलेले  पाहून  त्यांच्या  पत्नीस  अत्यंत  आनंद  झाला.  श्रीपादप्रभूंच्या  अंगुष्ठ  स्पर्शाने  नरसावधानींना  कर्मसूत्राचे  सूक्ष्म  ज्ञान  आले.  त्यांच्या  घरातील  मृत   झालेली  वांझ  गाय,  ही  गत  जन्मातील  नरसावधानींची  माता  होती.  त्यांच्या  घरी  असलेला  बैल  हे  त्यांचे  पिताश्री  होते.  या  गोष्टीचा  बोध  नरसावधानींना  झाला.  मरते  समयी  त्या  गायीने  श्रीपाद  प्रभुंना  आपले  दुध  त्यांनी  प्यावे  अशी  विनंती  केली  होती.  पुढच्या  जन्मी  जेंव्हा  वांझ  म्हैस  म्हणून  ती  जन्माला  येईल  त्यावेळी  श्रीपाद  प्रभु  नृसिंहसरस्वती  अवतारात  तिचे  दुग्धपान  करतील.  हे  श्रीपादानी  गायीस  दिलेले  वचन  नरसावधानींना  कळले.  ज्या  तांत्रिकाने  नरसावधानींवर  प्रयोग  केला  होता,  त्याचा  मृत्यू  लवकरच  होणार  असून,  पुढच्या  जन्मी  तो  ब्रह्मराक्षसाच्या  योनीत  जन्म  घेणार  असून,  त्याच्यावर  यतिरूपात  असलेल्या  श्रीपादांचा  अनुग्रह  होईल  असे  सूक्ष्म  लोकातील  विषय  नरसावधानींना  श्रीपादाच्या  कृपाप्रसादाने  ज्ञात  झाले.  त्यांना  स्वत:च्या  पुढील  जन्माची  माहिती  सुध्दा  कळली.  पुढील  जन्मात  त्यांच्या  घरी  यतीरूपाने  श्रीपाद  प्रभु  येऊन  त्यांच्याकडून  राजगिऱ्याच्या  भाजीची  भिक्षा  स्वीकारून,  राजगिऱ्याचे  पीक  स्वहस्ते  नष्ट  करून,  त्याच्या  मुळाशी  असलेला  सोन्याच्या  नाण्यांनी  भरलेला  हंडा  त्यांना  देतील.  ही  भविष्यवार्ता  नरसावधानींना  श्रीपादांच्या  अंगुली  स्पर्शाने  कळली  होती.

श्रीपादांचा  चेहरा  अतिशय  सात्विक,  सुंदर,  दैदिप्यमान  असा  होता.  त्यांची  तुलनाच  होऊ  शकत  नाही.  श्रीपाद  प्रभुंनी  नरसावधानी  आणि  त्यांच्या  पत्नीस  केलेला  उपदेश,  त्यांचा  अनुग्रह  केलेली  विधाने  मी  तुला  उद्या  सांगेन.  आता  आपण  त्यांचे  स्मरण  करीत  भजनात  रंगून  जाऊ  या.  ज्या  ठिकाणी   त्यांचे  नामस्मरण,  भजन,  कीर्तन  होते,  त्या  ठिकाणी   श्रीपाद  प्रभु  सूक्ष्म  रूपाने  संचरण  करीत  असतात,  हे  अक्षर  सत्य  आहे

तिरुमलदासासारख्या  भक्ताच्या  सत  संगतीने  आनंदाने  आम्ही  पुलकित  झालो. 

॥  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  जय  जयकार  ॥

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