।। अादि - अनादि - महादेव ।।
अनेकानेक रत्नों से सुशोभित भारतीय संस्कृति रत्नाकरवत् है , जिसमे अनगिनत कलकल निनादिनी स्त्रोतस्विनी की अजल धाराँए विलीन होती रही हैं । भारतीय सनातन संस्कृति जीवन एवं जगत के व्यापक आदर्शो का समष्टि रूप है - इसका मूलाधार धर्म के ताने बाने से विनिर्मित है ।
धर्म प्रमुख होने के कारण यह सनातन संस्कृति देवोन्मुख है और इसकी व्याप्ति प्रसार के कारण विदेशी संस्कृतियां भी इसमे अन्तर्भूत होती गयीं । इसी सनातन संस्कृति के अन्तर्गभ मे समन्वयवादिता का लक्ष्य निहित होने से विभिन्न मत-मतांतर तथा देवी देवता एक सूत्र मे निबद्ध होते गये ।
धर्म - संस्कृति का अँकुर होता है , वास्तव मे तो संस्कृति का अस्तित्व ' धर्म निरपेक्ष ' हो ही नही सकता - ' एकोऽहम् बहुस्याम् ' का अभिप्राय भी समन्वित संस्कृति से ही प्रचलित है । ' संस्कृति ' ब्रह्म की अभिव्यंजना करती है - भारतीय साहित्य के साक्ष्य पर इसी ब्रह्म का आदि अनादि रूप महादेव ' शिव ' कहा जा सकता हैं । बाह्यकल्प के शुरुआत मे सर्वप्रथम जो दिव्य अण्ड प्रकट हुआ ( पश्चिम के मतानुसार The Big bang theory ) जिसमे सत्यस्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म का अन्तर्यामी रूप मे आविर्भाव हुआ और उसी से ब्रह्मा तथा स्थाणु नामधारी ' शिव ' का प्रादुर्भाव हुआ ( महा.भा.आदि पर्व १/३०/३२ )
इन्ही आध्यात्मिक तत्त्वों के दर्शन - ऋग्वेद की ऋचाओं मे होता है , वैदिक संहिताओ मे शिव , रुद्र , शँकर , शर्व आदि नामो से अभिहित होता है । इन्होने ही देवताओं को निर्मित किया ' इत कृणोति देवान् ' , जहां ' श्रेयस्करत्वात् ' शिव मंगलकारी चित्रित होते हैं तो वे पापहंन्ता भी हैं - यह बालिद्वीप की अर्चना है
शिव कर्त्ता शिवो धाता शिवो दत्तवरप्रद: ।
शिवो रक्षतु मां नित्यं शिवा नमोऽस्तुते ।।
यद्यपि वैदिक साहित्य मे ३३ कोटि देवता वर्णित है परंतु ' एक: सदविप्रा: बहुधा वदन्ति ' श्रृत्यनुसार एक ही ब्रह्म की फलकांक्षी मनीषियों ने विभिन्न कल्पनाँए कर लीं । भर्तृहरि ने ' शिव ' को ही एकमात्र देवता माना है ' एको देवो केशवो वा शिवो व - यस्मात् जायते स ब्रह्मा , येन पाल्यते स विष्णु: , येन संहरते स रुद्र: ' जिसकी पुष्टि विष्णुपुराण ' सृष्टि स्थित्यन्तकरणाद् ब्रह्माविष्णुशिवात्मिकाम् ' भी करता है ।
छांदस शास्त्र मे रुद्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण देव - महादेव हैं , जिनका विशेषत: तीन स्थलो मे वर्णन है (१) ' इमा रुद्राय..... ' , (२) ' श्रेष्ठो जातस्य रुद्र श्रियासि..... ' (३) ' इमा रुद्राय स्थिर:....। यजुर्वेद के पहले सोलह अध्याय ही रुद्राध्याय हैं जिनमे उनका श्रेयस्कर सौम्यरूप - पापनिहंता , पुण्यफल दाता है तो अथर्ववेद मे वे ही शिव भयावह शक्ति के कारण पूज्य हैं । शतपथ ब्राह्मण मे वही रुद्र अग्निरूप और पशुरूप मे परिवर्तित हो ' पशुनां पति रुद्रोऽग्निरिति ' तथा ' रोद्रो वै पशव: ' हो जाते हैं ।
जितना विवेचन , आकलन , विश्लेषण ,मन्थन ' शिवतत्त्व ' का हुआ है उतना शायद ही किसी अन्य दिव्य तत्त्व का हुआ हो । उपनिषदों मे रुद्र - शिव एक ही हैं ' एकोहि रुद्रा द्वितीया च तस्थुर्व ' । रुद्र ही समस्त प्राणियो मे स्थित सर्वव्याप्त , सर्वशक्तिमान , कल्याणकारी , सर्वरूपधारी देव - महादेव रूप मे प्रतिष्ठित हैं जिनका देवत्व एवं दिव्यता सर्वतोमुखी है ।
।। महादेव ।।
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