हरि अनंत हरिकथा अनंता,माता कौशल्या को ब्रह्मरूप दर्शन,,,,जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता, ते जन वंचित किए विधाता!!!!!
भगवान शंकर पार्वती को श्रीराम की कथा सुनाते हुए कहने लगे कि प्रकट होते समय भगवान ने चतुर्भुज रूप दिखाया था लेकिन मां के कहने पर शिशुलीला करने लगे। इसके बाद जब थोड़ा बड़े हुए तब उन्हें कई और लीलाएं करनी थीं इसलिए एक बार पुनः ब्रह्म का रूप देखाया। इसी प्रसंग को गोस्वामी तुलसीदास ने बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।
भगवान के शिशु रूप का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं-
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला, अति प्रिय मधुर तोतले बोला।
चिक्कन कच कंुचित गभुआरे, वहु प्रकार रचि मातु संवारे।
पीत झगुलिया तनु पहिराई, जानु पानि विचरनि मोहि भाई।
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा, सो जानइ सपनेहुं जेहि देखा।
सुख संदोह मोह पर ग्यान गिरा गोतीत।
दंपति परम प्रेम बस कर सिसु चरित पुनीत।
भगवान के शिशु रूप में सुंदर कान और बहुत ही सुंदर गाल हैं। मधुर तोतले शब्द बहुत ही प्यारे लगते हैं। जन्म के समय से ही उगे हुए चिकने और घुंघराले बाल हैं जिनको माता कौशल्या ने बहुत प्रकार से बनाकर संवार दिया है। उन्होंने शरीर पर पीली झंगुली पहनाई है। उनका घुटनों और हाथों के बल चलना बहुत अच्छा लगता है। उनके रूप का वर्णन वेद और शेष भी नहीं कर सकते उसे वही जानता है जिसने कभी स्वप्न में भी देखा हो। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जो भगवान सुख के पुंज (समूह) है, मोह से परे तथा ज्ञान, वाणी और इन्द्रियों से अतीत है वे दशरथ और कौशल्या (दम्पति) के अत्यंत प्रेम के वश में होकर पवित्र बाल लीला कर रहे हैं।
एहि विधि राम जगत पितु माता, कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता।
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी, तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी।
रघुपति विमुख जतन कर कोरी, कवन सकइ भव बंधन छोरी।
जीव चराचर बस कै राखे, सो माया प्रभु सों भय भाखे।
भृकुटि विलास नचावइ ताही, अस प्रभु छांड़ि भजिअ कहु काही।
मन क्रम वचन छाड़ि चतुराई, भजत कृपा करिहहिं रघुराई।
भगवान शंकर पार्वती से कहते हैं कि हे पार्वती। इस प्रकार जगत के माता-पिता श्रीराम अयोध्या वासियों को सुख देते हैं। उन्होंने कहा जिन लोगों ने श्रीराम के चरणों में प्रीति जोड़ ली है, उनकी यह प्रत्यक्ष गति है। श्री रघुनाथ जी से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करे लेकिन उसका इस संसार से बंधन कौन छुड़ा सकता है। वह माया, जिसने सब चराचर जीवों को अपने वश में कर रखा है, वह भी प्रभु से भय खाती है। भगवान उस माया को भृकुटि अर्थात अपनी भौहांे के इशारे पर नचाते हैं। ऐसे प्रभु को छोड़कर कहो और किसका भजन किया जाए। इसलिए मन, वचन और कर्म की चतुरता छोड़कर श्री रघुनाथ जी का भजन करो, वही कल्याण करेंगे।
एहि विधि सिसु विनोद प्रभु कीन्हा, सकल नगर बासिन्ह सुख दीन्हा।
लै उछंग कबहुंक हलरावै, कबहुं पालने घालि झुलावै।
प्रेम मगन कौशल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बाल चरित कर गान।
इस प्रकार प्रभु श्रीराम बाल चरित कर रहे हैं और उनकी बाल लीलाओं को देखकर सभी अयोध्यावासी सुख प्राप्त कर रहे हैं। माता कौशल्या कभी उन्हें गोद में लेकर हिलाती-डुलाती हैं तो कभी पालने में लिटाकर झुलाती हैं। इस प्रकार प्रेम में मग्न कौशल्या जी रात और दिन कैसे बीत रहे हैं, यह नहीं जान पातीं। पुत्र के स्नेह वश माता उनके बालपन के चरित्रों का गान किया करती हैं।
एक बार जननी अन्हवाए, करि सिंगार पलना पौढ़ाए।
निज कुल इष्टदेव भगवाना, पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना।
करि पूजा नैवेद्य चढ़ावा, आप गईं जहं पाक बनावा।
बहुरि मातु तहवां चलि आईं, भोजन करत देख सुत जाई।
गै जननी सिसु पहिं भयभीता, देखा बाल तहां पुनि सूता।
बहुरि आइ देखा सुत सोई, हृदय कंप मन धीर न होई।
एक बार माता कौशल्या ने भगवान राम के शिशु रूप को स्नान कराया और श्रृंगार करके (कपड़े आदि पहनाकर) पालने में लिटा दिया। बच्चों को नहलाने के बाद नींद आ जाती है। शिशु रूपी राम भी सो गये। इसके बाद कौशल्या ने अपने इष्टदेव भगवान की पूजा के लिए स्नान किया। भगवान की पूजा की और नैवेद्य (भोग-बतासा) चढ़ाया। इसके बाद वे रसोई घर चली गयीं। उन्हें कुछ काम याद आया तो फिर से पूजा घर में आ गयीं। पूजा घर में उन्होंने अपने पुत्र राम को चढ़ाए गये नैवेद्य का भोजन करते देखा। माता कौशल्या भयभीत होकर उस पालने के पास गयीं जहां उन्होंने राम को सुलाया था। क्योंकि वे डर गयी थीं कि किसने बच्चे को पालने से उठाकर यहां बैठा दिया है। पालने के पास गयीं तो देखा वहां उनका बच्चा सो रहा है। वे फिर पूजा घर में आयीं तो देखा वही पुत्र भोजन कर रहा है। यह देखकर माता कौशल्या के हृदय में कम्पन होने लगा और वे अधीर हो उठीं।
इहां उहां दुइ बालक देखा, मति भ्रम मोर कि आन विसेषा।
देखि राम जननी अकुलानी, प्रभु हंसि दीन्ह मधुर मुसुकानी।
देखरावा मातहिं निज अद्भुत रूप अखंड।
रोमरोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्माण्ड।
अगनित रवि ससि सिव चतुरानन, बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन।
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ सोउ देखा जो सुना न काऊ।
देखी माया सब विधि गाढ़ी, अति सभीत जोरे कर ठाढ़ी।
देखा जीव नचावइ जाही, देखी भगति जो छोरइ ताही।
तन पुलकित मुख बचन न आवा, नयन मूदि चरननि सिरु नावा।
माता कौशल्या ने जब पालने में और पूजा घर में एक ही बालक को एक साथ देखा तो वह सोचने लगीं कि यह मेरी बुद्धि का भ्रम है या कुछ और विशेष है। प्रभु रामचन्द्र ने माता की जब यह हालत देखी तो वह मधुर मुस्कान दिखाने लगे। इसके बाद उन्होंने माता को अपना अखण्ड अद्भुत रूप दिखाया जिसके एक-एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं। उसमें अगणित सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा बहुत से पर्वत, नदियां, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव दिखाई पड़े। वे पदार्थ भी देखे जो इससे पहले कभी नहीं देखे थे। माता कौशल्या ने उस बलवती माया को भी साक्षात देखा जो भगवान के सामने अत्यंत भयभीत हाथ जोड़े खड़ी है। उस जीव को देखा जिसे वह माया नचाती है और उस भक्ति को भी देखा जो जीव को माया के बंधन से छुड़ा देती है। यह सब देखकर माता कौशल्या का शरीर पुलकित हो गया। उनके मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। माता कौशल्या आंखें बंद करके श्रीराम चन्द्र के चरणों पर गिर पड़ीं।
हरि जननी बहु विधि समुझाई
भगवान शंकर पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि माता कौशल्या ने जब अपने ईष्टदेव के रूप में बालक को भोग (प्रसाद) खाते देखा और उसी बालक को पालने में सोते हुए तो आश्चर्यचकित रह गयीं। भगवान मुस्कुराए और अपना वास्तविक रूप दिखाया लेकिन मां को समझाते हुए यह भी कहा कि यह बात किसी से नहीं कहना। आमतौर पर माताएं अपने बच्चे की कार गुजारियां आपस में बैठकर सुनाती रहती हैं। भगवान ने इसीलिए माता कौशल्या को यह समझाया कि यदि इस बात को दूसरे लोग जानेंगे तो तरह-तरह की बातें होने लगेंगी। माता को वास्तविकता बताना जरूरी था। इसीलिए जब विश्वामित्र मुनि राम-लक्ष्मण को यज्ञ रक्षा के लिए मांगने आये तो राजा दशरथ परेशान हो गये थे लेकिन माता कौशल्या परेशान नहीं थीं।
विसमयवंत देखि महतारी, भए बहुरि सिसु रूप खरारी।
अस्तुति करि न जाइ भय माना, जगत पिता मैं सुत करि जाना।
हरि जननी बहुविधि समुझाई, यह जनि कतहुं कहसि सुनु माईं।
बार-बार कौसल्या विनय करइ कर जोरि।
अब जनि कबहूं ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि।
माता कौशल्या को आश्चर्य में डूबा देखकर खर के शत्रु (श्रीराम ने खर और दूषण का वध किया था।) श्रीराम पुनः शिशु रूप में हो गये। उस समय माता कौशल्या से स्तुति भी नहीं की जा रही थी। वह डर रही थीं कि जगत के पिता परमेश्वर को मैंने अपना पुत्र मानकर व्यवहार किया। हम सभी जानते हैं कि बच्चे को कभी माता डाटती भी है, उल्टा-सीधा बोलने लगती हैं। कौशल्या जी को यही डर लग रहा था कि हमने बहुत बड़ी गलती कर दी तब शिशु रूप में भगवान ने उनको बहुत प्रकार से समझाया और कहा अभी आपने जो कुछ देखा है उसके बारे में किसी से कुछ न कहना। कौशल्या जी बार-बार हाथ जोड़कर विनती करती हैं कि हे प्रभो। मुझे आपकी माया अब कभी न व्यापे।
बाल चरित हरि बहुविधि कीन्हा, अति अनंद दासन्ह कहं दीन्हा।
कछुक काल बीते सब भाई, बड़े भए परिजन सुखदाई।
चूड़ा करन कीन्ह गुरु जाई, विप्रन्ह पुनि दछिना बहुपाई।
परम मनोहर चरित अपारा, करत फिरत चारिउ सुकुमारा।
इस प्रकार भगवान श्रीराम ने बहुत प्रकार से बाल लीलाएं कीं और अपने सेवकों को बहुत आनंद दिया। समय बीतने पर चारों भाई बड़े हुए और परिवारजनों को सुख दे रहे थे। गुरु वशिष्ठ ने आकर चारों भाइयों का चूड़ा कर्म संस्कार (मुण्डन) करवाया। ब्राह्मणों ने फिर बहुत सारी दक्षिणा पायी। चारों सुंदर राजकुमार बड़े ही मनोहर अपार चरित्र करते फिर रहे हैं।
मन क्रम बचन अगोचर जोई, दसरथ अजिर विचर प्रभु सोई।
भोजन करत बोल जब राजा, नहि आवत तजि बाल समाजा।
कौसल्या जब बोलन जाई, ठुमुक ठुमुक प्रभु चलहिं पराई।
निगम नेति सिव अंत न पावा, ताहि धरै जननी हठि धावा।
धूसर धूरि भरें तनु आए, भूपति बिहसि गोद बैठाए।
भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जो मन, बचन और कर्म से अगोचर है अर्थात जिसको न देखा जा सकता है न समझा जा सकता है और इन्द्रियों से सदा परे है वही प्रभु दशरथ जी के आंगन में विचर रहे हैं। भोजन करने के समय जब राजा बुलाते हैं तो वे अपने बाल सखाओं के समाज को छोड़कर नहीं आते। माता कौशल्या जब बुलाने जाती हैं तो ठुमुक-ठुमुक करते भाग चलते हैं। वेद जिन भगवान को नेति अर्थात इति नहीं कहकर निरूपण करते हैं और शिव भगवान ने भी जिनका अंत नहीं पाया कौशल्या उन्हें हठपूर्वक पकड़ने के लिए दौड़ती हैं। वे शरीर में धूल लपेटे हुए आए और राजा दशरथ ने हंसकर उन्हें गोद में बैठा लिया। इसके बाद भगवान शिशु रूप में भोजन करते हैं लेकिन उनका चित्त (मन) चंचल है। अवसर पाकर मुंह में दही-भात (चावल) लपटाए किलकारी मारते हुए भाग निकलते हैं।
बाल चरित अति सरल सुहाए, सारद सेष संभु श्रुति गाए।
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता, ते जन वंचित किए विधाता।
भए कुमार जबहिं सब भ्राता, दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता।
गुर गृह गए पढ़न रघुराई, अलप काल विद्या सब आई।
जाकी सहज स्वास श्रुतिचारी, सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी।
विद्या विनय निपुन गुन सीला, खेलहिं खेल सकल नृप लीला।
श्रीराम चन्द्र जी की बहुत ही सरल और सुंदर बाल लीलाओं का सरस्वती, शेष जी और शिवजी व वेदों ने गान किया है। जिनका मन इन लीलाओं में अनुरक्त नहीं हुआ, विधाता ने उन मनुष्यों को नितांत भाग्यहीन बनाया है। इस प्रकार चारेां भाई जब किशोरावस्था को प्राप्त हुए तो गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार (जनेऊ) कर दिया। इसके बाद श्री रघुनाथ जी अपने भाइयों के साथ गुरु के घर में विद्या पढ़ने गये। थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएं आ गयीं। चारों वेद ही जिनकी स्वाभाविक श्वांस है वे भगवान पढ़ें, यह बड़ा कौतुक अर्थात आश्चर्य है लेकिन भगवान नर लीला कर रहे हैं इसलिए गुरु के घर पढ़ने भी गये। चारों भाई विद्या, विनय, गुण और शील (व्यवहार) में निपुण हो गये। वे सब राजाओं के खेल खेलते थे।
करतल बान धनुष अति सोहा, देखत रूप चराचर मोहा।
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई, थकित होहिं सब लोग लोगाई।
कोसलपुर बासी नर नारि वृद्ध अरु बाल।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहंु राम कृपाल।
उनके हाथों में बाण और धनुष बहुत ही शोभा देते हैं। उनका रूप देखकर चराचर (जड़-चेतन) मोहित हो जाते हैं। वे सब भाई जिन गलियों में खेलते हैं उन गलियों में स्त्री-पुरुष उनको देखकर स्नेह से शिथिल हो जाते हैं और लगातार उन्हें देखते रहते हैं। इस प्रकार अयोध्या में रहने वाले स्त्री-पुरुष, बूढ़े और बालक सभी को कृपा करने वाले श्रीराम चन्द्र जी बहुत ही अच्छे लगते हैं, वे प्राणों से प्रिय हैं।
बंधु सखा संग लेहिं बोलाई, बन मृगया नित खेलहिं जाई।
पावन मृग मारहिं जियं जानी, दिन प्रति नृपहिं देखवहिं आनी।
जे मृग राम बान के मारे ते तनु तजि सुरलोक सिधारे।
अनुज सख संग भोजन करहीं, मातु पिता अग्या अनुसरहीं।
भगवान राम भाइयों और इष्ट-मित्रों को बुलाकर साथ ले जाते और नित्य ही वन में जाकर शिकार खेलते। मन में पवित्र समझकर मृगों को मारते हैं और प्रतिदिन लाकर राजा दशरथ को दिखाते हैं। जो मृग श्रीराम के वाणों से मारे जाते हैं वे शरीर छोड़कर देवलोक को चले जाते थे। श्रीरामचन्द्र जी अपने सखाओं व छोटे भाइयों के साथ भोजन करते और माता-पिता की आज्ञा का पालन करते।
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