Tuesday, January 29, 2019

भगवान राम की कर्मस्थली, दक्षिण की अयोघ्या : भद्राचलम

भगवान राम की कर्मस्थली, दक्षिण की अयोघ्या : भद्राचलम

लेखिका :- पूनम नेगी

भारत की संस्कृति राममय है। हर सच्चे भारतीय के दिल में बसते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और उनके जीवन आदर्श। हमारे देश में ऐसे अनेक प्राचीन स्थल हैं जो श्रीराम के जीवन से निकटता से जुड़े हैं। यंी तो श्रीराम की जन्मभूमि के रूप में उत्तर प्रदेश में पावन सरयू के तट पर बसी अयोध्या नगरी विश्वविख्यात है। मगर क्या आप इस दिलचस्प तथ्य से अवगत हैं कि दक्षिण भारतीय राज्य आंध्र प्रदेश के खम्मम जिले की एक छोटी सी खूबसूरत तीर्थनगरी भद्राचलम को दक्षिण की अयोध्या की मान्यता हासिल है। श्री राम के वनवास काल से अभिन्न रूप से जुड़ा यह पुण्य क्षेत्र अगणित रामभक्तों का श्रद्धा का केन्द्र है। 

गौरतलब हो कि यह स्थल दंडकारण्य के नाम से भी विख्यात है। वही त्रेतायुगीन दंडक वन जहां श्रीराम ने जहां राम ने पर्णकुटी बनाकर वनवास का लंबा समय व्यतीत किया था और अनेकानेक आसुरी शक्तियों का संहार कर ऋषि मुनियों को उनके आतंक से निजात दिलायी थी। भद्राचलम में वह पर्णशाला आज भी मौजूद है। यही नहीं यहां उन कुछ ऐसे शिलाखंडों के चिह्न आज भी देखे जा सकते हैं; जिनके बारे में यह माना जाता है कि सीता जी ने वनवास के दौरान वहां अपने वस्त्र सुखाए थे। इस तीर्थ से जुड़ी एक अन्य पौराणिक मान्यता यह भी है कि लंकापति रावण ने यहीं से सीता माता का अपहरण किया था।

भद्राचलम यानी दंडकारण्य की एक विशेषता यह भी है कि यह वनवासी बहुल क्षेत्र है और श्रीराम वनवासियों के आराध्य माने जाते हैं। कहा जाता है कि इसी क्षेत्र में श्रीराम ने भीलनी के जूठे बेर खाये थे और उन्हें अपनी जननी कौशल्या के समान ही प्रेम व सम्मान दिया था। चूंकि वह वृद्ध भीलनी आदिवासी समाज की थी, इसी कारण श्री राम वनवासियों खासतौर पर आदिवासियों के पूज्य बन गये। सनद रहे कि वनवासी बहुल क्षेत्र होने के कारण ईसाई मिशनरियां यहां लम्बे अरसे से मतांतरण की कोशिश में जुटी हैं पर भद्राचलम की महिमा कुछ ऐसी है कि लाख प्रयासों के बाद भी यहां मतांतरण के षड्यंत्र सफल नहीं हो सके।
गोदावरी नदी के तट पर बसा भद्राचलम नगर अपने भव्य सीतारामचंद्र मंदिर के लिए देश- विदेश तक मशहूर है। हर साल रामनवमी के दिन यहां भगवान श्रीराम का जन्मोत्सव भारी धूमधाम से मनाया जाता है। दशहरा का त्योहार भी इस मंदिर में खूब धूमधाम से मनाया जाता है। इसके अलावा चैत्र व आश्विन नवरात्रि में भी यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। रामनवमी और यहां चलने वाले दस दिवसीय महोत्सव में हिस्सा लेने के लिए देश-विदेश से बड़ी संख्या में भक्त यहां आते हैं। इस सीतारामचंद्र मंदिर के निर्माण के पीछे एक रोचक जनश्रुति जुड़ी है। कहा जाता है कि आंध्र प्रांत के खम्मम जिले के भद्रिरेड्डीपालेम ग्राम में पोकला दमक्का नाम की एक रामभक्त वनवासी महिला रहती थी। कहते हैं कि किसी हादसे में उसका समूचा परिवार समाप्त हो गया तो वह रामभक्ति में लीन हो गयी। उसने एक अनाथ बच्चे को गोद ले लिया और उसके भरण पोषण में अपना जीवन बिताने लगी। कहा जाता है कि उसी वनवासी वृद्धा ने भद्राचलम में भगवान श्रीराम की पर्णकुटी बनवायी थी।

भद्रगिरि की अनोखी पर्णकुटीर

वनवासी दमक्का द्वारा यहां बनवायी गयी पर्णकुटीर से एक बेहद रोएक वाकया जुड़ा है। कहते हैं कि एक दिन दमक्का का वह दत्तक पुत्र राम जिसका नाम उसने अपने आराध्य के साम पर राम रखा था; खेलते-खेलते वन में चला गया। देर शाम तक जब वह वापस नहीं लौटा तो दमक्का को कुछ चिंता हुई और वह राम-राम पुकारते हुए अपने पुत्र को खोजते-खोजते घने जंगल में जा पहुंची। तभी अचानक एक दिशा से आवाज आयी – मां, मैं यहां हूं। पुन: नाम पुकारते हुए दमक्का आवाज की दिशा में आगे बढ़ी तो कुछ कदम चलने पर उसने महसूस किया कि वह आवाज एक गुफा के अंदर से आ रही है। आवाज सुनकर दम्मक्का गुफा के भीतर गयी। वहां पर उसे श्रीराम, सीता और लक्ष्मण की अत्यन्त सुंदर प्रतिमाएं दिखीं। एक निर्जन वन में गुफा के बीच अपने इष्ट आराध्य की ऐसी मनमोहक प्रतिमाएं देख दम्मक्का भावविभोर हो उठी। उसने भक्तिभाव से नतमस्तक होकर उन प्रतिमाओं को नमन किया। तभी उसने अपने पुत्र को भी वहीं निकट ही खड़ा पाया। दमक्का को यह घटना एक वरदान प्रतीत हुई। उससे महसूस किया कि वे प्रतिमाएं उसे एक दैवीय संदेश दे रही हैं। उस मूक संदेश को मन मस्तिष्क में ग्रहण कर दमक्का ने उस गुफा के निकट बांस की एक पर्णकुटी को बनाकर तथा उसे एक अस्थाई मंदिर का रूप देकर उसमें वे देव प्रतिमाएं स्थापित कर दी। देखते ही देखते वहां दर्शन को आने वाले श्रद्धालुओं का तांता लगना शुरू हो गया और कालान्तर में समूचे क्षेत्र में विख्यात हो गया।

भद्राचलम के तहसीलदार ने बनवाया था भव्य सीतारामचंद्र मंदिर

यह उस समय का प्रसंग है जब हैदराबाद के निकट का यह क्षेत्र गोलकुंडा के नाम से जाना जाता था। यहां तानाशाह कुतुबशाही नवाब अबुल हसन का शासन था। वह नाजायज कर लगाकर गरीब जनता का शोषण किया करता था। उस समय कर वसूली के लिए कंचली गोपन्ना नामक एक वनवासी युवा बतौर तहसीलदार भद्राचलम में तैनात थे। गोपन्ना वनवासी समाज के थे और उनकी श्रीराम में अटूट आस्था थी। श्रीराम की कृपा से कर वसूली में उन्हें स्थानीय जनता से भरपूर सहयोग मिला। उन्होंने शासन से नियत कर राशि राजकोष में जमा करने के बाद शेष बचे धन से सर्वप्रथम भद्रगिरि की उस पर्णकुटी के चारों ओर एक विशाल परकोटा बनवाया और बाद में उसके भीतर एक भव्य राम मंदिर बनवाया जो रामभक्तों व सनातनधर्मियों की आस्था के अपूर्व केन्द्र के रूप में न केवल दक्षिण भारत वरन समूचे देश व विदेश में विख्यात है। रामभक्त गोपन्ना ने अपने निजी धन से कटिबंध, कंठमाला और मुकुट मणि आदि आभूषण बनवाकर श्रीराम, सीता व लक्ष्मण जी की उन मूर्तियों को अर्पित किये थे।

कांचली गोपन्ना आध्यात्मिक पुरुष थे। उन्होंने भद्राचलम क्षेत्र को धार्मिक जागरण का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने श्रीराम जी की भक्ति में कई भजन भी लिखे थे इस कारण लोग उन्हें भक्त रामदास कहने लगे। हरिदास नामक घुमंतु प्रजाति आज भी इस क्षेत्र भक्त रामदास के कीर्तन गाते हुए राम भक्ति का प्रचार करती देखी जा सकती है। कहते हैं कि रामदास ने अपने भक्ति गीतों के माध्यम से विदेशी अक्रमणकारियों और तानाशाही राज के खिलाफ जनांदोलन चलाया था। संत कबीर उनके आध्यात्मिक गुरु थे और उन्होंने ही वनवासी गोपन्ना को रामानंदी संप्रदाय की दीक्षा देकर उन्हें रामदास नाम दिया था। रामदास के कीर्तन गांव-गांव, घर-घर में बेहद लोकप्रिय थे; मगर रामदास का यह धर्म जागरण कार्य तानाशाह को नहीं भाया और उन्होंने रामदास को गोलकोंडा किले में कैद कर दिया। कहा जाता है कि रामदास को कैद करने पर श्रीराम व लक्ष्मण धनलोलुप नवाब के सामने साधारण वेष में प्रकट हुए और रामदास की मुक्ति के बदले उसे सोने की मुद्राएं देने का प्रस्ताव उसके सामने रखा। नवाब ने स्वर्ण मुद्राएं पाकर रामदास को ससम्मान कैद से मुक्त कर दिया। आज भी हैदराबाद स्थित इस किले में वह काल कोठरी देखने को मिलती है जहां भक्त रामदास को कैदी की तरह रखा गया था।

किंवदंती है कि यह श्रीराम की शक्ति का ही चमत्कार था कि उनके हाथों से स्वर्ण मुद्राएं पाकर उस लालची नवाब का मन पूरी तरह बदल गया और उस घटना के बाद से वह नवाब भी गोपन्ना द्वारा बनवाये गये उस मंदिर में प्रति वर्ष रामनवमी तथा सीताराम विवाहोत्सव (कल्याणम्) के अवसर पर सीता-राम की प्रतिमाओं को मोती व नये वस्त्र भेंट करने लगा। यह प्रथा पिछले 400 वर्षों से निर्बाध जारी है। आज भी राज्य सरकार की ओर से मुख्यमंत्री मोती भेंट करते हैं। आज यह मंदिर हिन्दू-मुस्लिम सौहाद्र्र का प्रतीक माना जाता है।
कहते हैं कि लंकापति जब सीता माता का अपहरण कर रावण पुष्पक विमान से लंका जा रहा था तो यहीं पर जटायु ने रावण से लोहा लिया था। युद्ध में जटायु बुरी तरह जख्मी हो गये लेकिन उन्होंने तब तक शरीर नहीं छोड़ा जब तक राम को सीताजी के बारे में नहीं बता दिया। राम ने यहीं गोदावरी घाट पर अपने हाथों से जटायु का अंतिम संस्कार किया था। यहीं जटायु का एकमात्र मंदिर है। स्थानीय लोग भक्तिभाव से यहां पूजा करने आते हैं। इस जगह को स्थानीय भाषा में जटायुपाका यानी जटायु की टांग कहा जाता है।

प्राकृतिक आपदाओं से अप्रभावित रहने का वरदान
भद्राचलम के इस मंदिर के बारे में बहुत सी मान्यताएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि भगवान श्रीराम ने भद्रगिरि पर्वत पर पसरे प्राकृतिक सौंदर्य पर मुग्ध होकर वरदान दिया था कि दुनिया में कितनी भी बड़ी प्राकृतिक आपदा क्यों ना आ जाए, यह पर्वत उससे अछूता ही रहेगा। यही वजह है कि कई बार बाढ़ आने के बावजूद भद्राचलम पर्वत पर कभी कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ा। यह भी कहा जाता है कि भद्र ऋषि ने इसी जगह पर श्री राम की आराधना की थी और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उनको अपने दर्शन दिए थे। तभी से ये पर्वत भद्राचलम कहलाने लगा।
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लेखिका :- पूनम नेगी

अगर आप राष्ट्रवादियों की बहस देख रहे हैं तो एक बार रामेश्वरम याद कीजिये | प्रभु रामेश्वरम् के ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्री राम ने रामसेतु बनाने से पहले की थी | जब महावीर हनुमान ने उनके द्वारा दिए गए शिव लिंग के इस नाम का मतलब पूछा तो भगवान् राम ने शिव जी के नवीन स्थापित ज्योतिर्लिंग के स्वयं द्वारा दिए इस नाम की व्याख्या में कहा-
रामस्य ईश्वर: स: रामेश्वर: ||
मतलब जो श्री राम के ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं |

बाद में जब रामसेतु बनने की कहानी भगवान् शिव,  माता सती को सुनाने लगे तो बोले के प्रभु श्री राम ने बड़ी चतुराई से रामेश्वरम नाम की व्याख्या ही बदल दी | माता सती ने पुछा, ऐसा कैसे ? तो देवाधिदेव महादेव ने रामेश्वरम नाम की व्याख्या करते हुए उच्चारण में थोड़ा सा फ़र्क बताया- 
राम ईश्वरो यस्य सः रामेश्वरः ||
यानि श्री राम जिसके ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं |

अगर आप अब्राहमीक रिलिजन के चश्मे से देखेंगे तो ये कहानी जरा अजीब सी लग सकती है | इसे एक भारतीय की नजर से देखिये | आप अगर आस पास के किसी भगवान राम के मंदिर में जाकर बैठें और अपने मोबाइल फोन में वहां शिव तांडव का ऑडियो बजा दें तो क्या होगा ? क्या कोई टोकेगा कि राम के मंदिर में शिव की महिमा क्यों बजा रहे हो ? नहीं, उल्टा हो सकता है दो चार और लोग सुनने के लिए, हाथ जोड़े, पांच मिनट रुक जाएँ |

अब्राहमिक रिलिजन के चश्मे से ये अजीब होता है, क्योंकि वहां एक इश्वर का भाव होता है | विदेशियों को ये अजीब लगेगी, लेकिन भगवान राम को पूज्य मानने के साथ साथ शिव की महिमा सुनना, वो भी उस शिव तांडव में जो कि राम के शत्रु रावण की रचना है, बिलकुल नार्मल बात है | हमारे लिए एक का समर्थक होने का मतलब दुसरे का विरोधी हो जाना नहीं होता है |

ये कहानी वर्चुअल वर्ल्ड यानि आभासी दुनिया की बहसों में भी याद रखिये | यहाँ अगर आप दो घनघोर किस्म के राईट विंग, अर्थात हिन्दुत्ववादी महानुभावों को किसी मुद्दे पर धुर विरोधी भी देखते हैं तो गलतफहमी बिलकुल मत पाल लीजिये | अलग अलग शहरों में बैठे ये लोग शायद रोज़ ही एक दुसरे से फ़ोन पर बात करते हैं | कमेंट में किसी मुद्दे पर बात के साथ इनबॉक्स में कोई और चर्चा चल रही होगी | राम-रावण जैसे विपरीत धुरी पर दिखते हुए भी ये शिव के मुद्दे पर फिर एक होंगे |

बाकी थोड़ी छेड़-छाड़ से अब्राहमिक, बदल कर अब्रह्मिक, यानि ब्रम्ह के आभाव से ग्रस्त हो जाता है | अन्दर के तत्व को अनदेखा करके. बाहर के खोल पर ध्यान मत टिकाइए |
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आनन्द कुमार

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