नन्दीश्वर अवतार की कथा।
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भवाब्धिमग्नं दीनं मां समुद्धर भवार्णवात्। कर्मग्राहगृहीत अङ्गं दासोहम् तव शंकर।।
मुनिवर सनत्कुमारजी के पूछने पर शिवभक्त नन्दीश्वर ने श्रीशंकरजी के अवतारों के सम्बन्ध में बताया- "वैसे तो शिवजी के कल्प- कल्पान्तर में अनेकानेक अवतार हुए हैं, जिनमें से कुछ के नाम ये हैं- सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर, ईशान, शर्व, भव, रूद्र, उग्र, भीम, अर्धनारीश्वर, श्वेत, सुतार, दमन, सुहोत्र, कंक, लोकक्षि, जैगीषव्य, दधिवाहन, ऋषभ, तप, अत्रि, बलि, गौतम, वेदसिरा, गोकर्ण, गुहावासी, शिखण्डी, माली, अट्टहास, दारुक, आदि।
नन्दीश्वर अवतार की कथा शिलादि नानक एक धर्मात्मा मुनि ने कठिन तपकर भगवान शिव से जब एक पुत्र माँगा तो उन्होंने स्वयं ही उनके पुत्र के रूप में जन्म लेने का वरदान दे दिया। कुछ दिनों के बाद जब वह मुनि खेत जोत रहे थे तो उनके अङ्ग से एक परम् तेजस्वी बालक की उत्पत्ति हुयी।
शिलाद समझ गए कि शिवजी का ही अंश यह बच्चा मेरे पुत्र के रूपमें अवतार लिया है। उन्होंने उसका नाम 'नन्दी' रखा। वह पूर्ण शिवभक्त हुआ जिसने आशुतोष को अपनी वन्दना से प्रशन्न कर लिया।
भगवान ने कहा- "प्रिय नन्दी! तुम अजर, अमर अव्यय, अक्षर और दुःखरहित होकर सतत् मेंरे पार्श्व भाग में विराजमान रहोगे। तुम्हारे बिना मैं कहीं रह नहीं सकता ।" फिर उन्होंने नन्दी का अपने प्रमुख गणाध्यक्ष के पद पर बिभूषित कर दिया।
कालभैरव माहात्म्य भोलेनाथने मार्गशीर्ष मास की अष्टमी तिथि को कालभैरव के रूप में अवतार लिया था। अतः, उक्त तिथि को उपवास करके रात्रि जागरण करनेवाले मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और मनोरथों की सिद्धि होती है।
जो इनके भक्तों को दुःख देता है उसका अनिष्ट होना निश्चित है। काशी में इसका विशेष महत्व है कि जो लोग बिना इनकी पूजा किये विश्वनाथ की अर्चना करता है उसे कोई फल नहीं मिलता। मंगलवार को कृष्णाष्टमी के दिन इनका पूजन अत्यंत फलदायी होता है।
तत्पश्चात् नन्दीश्वरने विश्वानर, वीरभद्र, गृहपति, महाकाल, दस रूद्र आदि के बाद दुर्वासा और हनुमान के अवतारों का प्रसंग सुनाया-
दुर्वासा और हनुमान के अवतारों की कथा प्रसिद्ध सती अनुसूया और उनके पति ऋषिवर अत्रि ने जब पुत्र प्राप्ति की कामना से घोर तपस्या की तो उन्हें तीन पुत्र हुए जिसमें "दुर्वासा "रुद्रदेव के अंश थे। ये भी अपने पिता के समान महामुनि हुए। उन्होंने अनेक ही विचित्र चरित्र किये।
एक समयकी बात है, जब भगवान विष्णु के मोहिनी रूप को शिवजीने देखा तो वे कामके वशीभूत हो गये, फलस्वरूप उनका विर्यपात् हो गया, जिसे ऋषिओं ने पत्तों में लेकर गौतम की पुत्री अंजनी में कानों के रास्ते स्थापित कर दिया।
समय आने पर उससे एक अति बलवान और अद्भुत बुद्धिमान स्वर्ण के सामान रंग का बालक का प्रादुर्भाव हुआ जिसे "हनुमान" नाम दिया गया। सर्वविदित है कि वे महान रामभक्त थे, जिनकी आराधना बहुत ही फलदायी होती है।
ऋषि दधीचि का प्रसंग पूर्वकाल में वृत्रासुर नामक राक्षस के द्वारा दिए गये कोष्टों से मुक्ति पाने हेतु जब ब्रम्हदेव से देवताओं ने निवेदन किया तो उन्होंने कहा- "आप लोग दधीचि मुनि के पास जकर उनसे उनकी हड्डियों की याचना करें।
चूँकि शिव के आशीष से उनकी हड्डियाँ वज्र के सामान हैं, अतः उससे वह महासुर मारा जायेगा। "देवोंने यही किया। महादानी दधीचि ने अपने प्राण देकर अपनी हड्डियाँ दे दी जिससे वह देवशत्रु मार गया। जब दधीचि ने प्राण त्याग किये थे उनकी पत्नी को गर्भ था, जिसमें शिव का अंश पल रहा था।
जन्म के बाद उस बालक का नाम पिप्पलाद रखा गया, जिन्होंने कठिन तप किया था। उन्होंने जगत् में शनैश्चर द्वारा दी जा रही पीड़ा, जिसका निवारण करना सबकी शक्ति से बाहर था, को देखकर लोगों को वरदान दिया, "सोलह वर्षों तक की आयुवाले मनुष्यों और शिवभक्तों को शनि की पीड़ा नहीं हो सकती। यदि शनि मेरे इस वचन का अनादर करेगा तो वह भस्म हो जायेगा। इसलिए वैसे मनुष्यों को शनिदेव कष्ट नहीं देते हैं।
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