Wednesday, July 3, 2019

श्रीपाद वल्लभ चरित्र अमृत :- अध्याय -7

॥  श्री  गुरुवे  नम:  ॥  ॥  श्रीपादराजं  शरणं  प्रपद्ये  ॥  

अध्याय  -7  खगोल  वर्णन

श्रीपाद  श्रीवल्लभ  चरित्रामृताचा  महिमा


पहाटे  श्री  तिरुमल  दासांनी  आपले  आन्हिक  उरकून  सांगण्यास  सुरुवात  केली.  ते  म्हणाले  ''अरे  शंकर  भट्टा  !  श्रीपाद  वल्लभांचे  दिव्य  चरित्र  अद्भुत,  अतर्क्य  व  अपूर्व  असे  आहे.  तुझ्या  वर  त्यांचा  अपार  स्नेह  असल्या  कारणाने  त्यांचे  दिव्य  चरित्र  लिखाण  करण्याचे  महद्भाग्य  तुला  लाभले  आहे.  असा  हा  दिव्य  योग  श्रींच्या  संकल्पाने  तुला  लाभला  आहे.''

श्रीपादाचे  एकाच  वेळी  अनेक  ठिकाणी  प्रकट  होणे

नरसावधानी  मृत्युमुखातून  बाहेर  पडल्यावर  त्यांच्यातील  आकर्षण  शक्ती  क्षीणावली.  पूर्वी  साधना  करीत  असतांना  ज्या  मनुष्याचे  ते  ध्यान  करीत  तो  कितीही  दूर  असला  तरी  आकर्षित  होऊन  त्यांच्या  जवळ  येत  असे.  ती  शक्ति  सुध्दा  आता  क्षीणावली  होती.  जे  लोक  पूर्वी  त्यांना  घाबरत  होते,  ते  आता  अजिबात  घाबरेनासे  झाले.  वेळ  पडल्यास  त्यांचा  उपहास  करून  त्यांना  दुखवीत  असत.  त्यांची  आर्थिक  स्थिति  सुध्दा  खालावत  चालली  होती.  दोन  वेळच्या  पोटभर  जेवणाची  सुध्दा  कांही  वेळा  भ्रांत  पडत  असे.  अशा  कष्टमय  अवस्थेत  ते  आक्रोश  करीत  घराबाहेर  आले.  त्यावेळी  महाचार्य  बापन्नाचार्युलु  त्यांच्या  नातवास  कडेवर  घेऊन  आपल्या  घराकडे  जात  होते.  राजशर्माच्या  घराकडून  वळसा  घेतल्यावर  जो  मार्ग  येई  तो  थेट  बापन्नाचार्युलुच्या  घराकडे  जात  असे.  श्रीपाद  बालपणी  आपल्या  घरापेक्षा  अधिक  वेळ  आपल्या  आजोबांच्या  घरीच  राहात.  श्री  नरसिंह  वर्मा  व  श्री  वेंकटप्पा  श्रेष्ठी  यांच्या  घरी  सुध्दा  स्वेच्छेने  जात.  श्रीपादांशी  बोलावे  असे  नरसावधानींच्या  मनात  आले.  त्या  गोंडस  आणि  लडिवाळ  अशा  दिव्य  बालकास  एकदा  तरी  कडेवर  घेऊन  लाड  करावे  असे  त्यांना  वाटले.  नरसावधानींची  दृष्टी  श्रीपादावर  पडली.  श्रीपादांनी  नरसावधानीकडे  पाहून  मंद  स्मित  केले.  ते  स्मित  हास्य  अत्यंत  मोहित  करणारे  होते.  नरसावधानी भिक्षेसाठी   श्रेष्ठींच्या  घरी  गेले.  तेथे  श्रीपाद  श्रेष्ठींच्या  मांडीवर  खेळत  असलेले  दिसले.  नरसावधानींकडे  पाहून  श्रीपाद  मिस्किलपणे  हसले.  नरसावधानी  भिक्षा  घेऊन  ते  नरसिंह  वर्माच्या  घरी  गेले.  तेथे  त्यांना  श्रीपाद  नरसिंह  वर्माच्या  खांद्यावर  खेळत  असलेले  दिसले.  नरसावधानीकडे  पाहून  श्रीपाद  पुन्हा  मिस्किलपणे  हसले.  एकाच  वेळी  बालक  श्रीपाद,  श्रेष्ठींच्या  घरी,  वर्माच्या  घरी  व  आजोबा  बापन्नाचार्युलु  यांच्या  घरी  होते.  नरसावधानींना  हे  स्वप्न  आहे  का  विष्णुमाया  आहे  ?  हे  कळतच  नव्हते
गावातील  लोक  नरसावधानींचा  छळ  करू  लागले.  पादगया  क्षेत्रातील  स्वयंभू  दत्ताची  मूर्ती  अदृष्य  होण्यामागे  नरसावधानींच्या  हात  आहे,  अशी  लोक  निंदा  करू  लागले.  या  लोकनिंदेने  पीडित  होऊन  नरसावधानी  भ्रमिष्ठासारखे  घरी  परतले.  त्यांना  अशा  स्थितीत  पाहून  त्यांची  पत्नी  अत्यंत  दु:खी  झाली.  तिच्या  मनातील  वेदना  प्रकट  करण्यासाठी  ती  देवघरात  गेली.  तेंव्हा  तिने  पाहिलेले  दृश्य  आश्चर्यकारक  होते.  त्यांच्या  देवघरात  श्रीपाद  बसलेले  होते.  त्यांना  पाहून  त्या  पती-पत्निला  अतिशय  आनंद  झाला.  त्या  उभयतांनी  श्रीपादांना  राजगिऱ्याच्या  भाजीचे  भोजन  करण्याचा  आग्रह  केला.  परंतु  श्रीपादांनी  जेवण्यास  नकार  दिला.  काल,  कर्म  आणि  कारण  या  तिन्हींचा  एकाच  वेळी  संयोग  झाल्यास  असे  अलभ्य  योग  जुळून  येतात.  विवेकवंत  अशा  योगांचे  लाभ  करून  घेतात.  तर  अविवेकी  या  लाभास  मुकतात.  श्रीपाद  प्रभुंनी  त्या  पती-पत्निच्या  विनंतीस  होकार  दिला,  परंतु  या जन्मीसाठी  नसून  पुढल्या  जन्मीसाठी.  पुढल्या  जन्मी  ते  महाराष्ट्राच्या  पुण्य  भूमीत  श्रीनृसिंहसरस्वतीच्या  अवतारात  त्यांच्या  घरी  अवश्य  भोजन  घेतील  असे  त्यांनी  वचन  दिले  होते.  एखादे  समयी  सूर्य  चंद्राच्या  गती  बदलणे  साध्य  होईल,  परंतु  प्रभूंच्या  वचनाच्या  विरूध्द  जाणे  पंचभुतासहित  कोणत्याच  जीवास  शक्य  नसते.  जग  जरी  हिंदोळले,  युग  जरी  पालटले,  तरी  श्रीपादांच्या  लीला  नित्य,  सत्य  व  नित्य  नूतन  आहेत.  देवघरात  बसून  श्रीपाद  प्रभुंनी  नरसावधानी  आणि  त्यांच्या  धर्मपत्नीस  हितोपदेश  केला.  हा  उपदेश  दत्तभक्ताना  अत्यंत  उपयोगी  असा  आहे.

नरसावधानी  व  श्रीपाद  वल्लभांच्या  मध्ये  झालेला  
संवाद  व  श्रीपाद  प्रभूंचा  उपदेश 



प्रश्न  :-  तू  कोण  आहेस  ?  देवता  ?  यक्ष  ?  मांत्रिक  ?

उत्तर  :-  मी  मीच  आहे.  पंचभूतात्मक  सृष्टीतील  अणुरेणूमध्ये  विद्यमान  असलेली  अदृश्य  शक्ति  ती  मीच.  पशु  पक्ष्यासहित  समस्त  प्राणीमात्रामध्ये  मातृ  व  पितृ स्वरूपाने  स्थित  आहे  तो  मीच.सकल  सृष्टीचा  गुरुस्वरूप  पण  मीच  आहे.

प्रश्न  :-  तू  श्रीदत्त  प्रभूंचा  अवतार  आहेस  का  ?

उत्तर  :-  नि:संशयाने  मी  दत्तच  आहे.  तुम्ही  शरीरधारी  असल्याने  तुम्हाला  माझी  ओळख  पटण्यासाठी  मी  शरीर  धारण  केले  आहे.  वास्तवात  मी  निराकार  व  निर्गुण  आहे.

प्रश्न  :-  म्हणजे  तुला  आकार  व  गुण  नाही  एवढेच  ना  ?

उत्तर  :-  निराकार  असणे  सुध्दा  एक  आकारच  आहे.  तसेच  निर्गुण  असणे  हा  देखील  एक  गुणच  आहे.  साकार  व  निराकार,  सगुण  व  निर्गुण  यांचा  आधार  तो  मीच  आहे  आणि  त्याच्या  पलिकडे  आहे  असे  जाण.

प्रश्न  :-  सर्वस्व  तूच  असताना  प्राणीमात्राना  सुख-दु:ख  का  संभवतात  ?

उत्तर  :-  तुझ्यात  असलेला  ''तू''  जीव  आहेस  व  तुझ्यात  असलेला  ''मी''  परमात्मा  आहे.  तुझ्यात  कर्तृत्वभावना  असेपर्यंत  ''तू'',  ''मी''  होऊ  शकत  नाही.  जो  पर्यंत  तुझ्यात  कर्तृत्वभावना
असेल  तो  पर्यंत  सुख-दु:ख,  पाप-पुण्य  अशा  द्वंद्वातून  तुझी  सुटका  होऊ  शकत  नाही.  तुझ्यातला  ''तू''  नष्ट  होऊन  तुझ्यातील  ''मी''  उच्च  दशेत  असेन,  तेव्हा  तू  माझ्या  निकट  असशील.  जसे  जसे  तू  माझ्या  निकट  येशील  तसा  तसा  तू  सुख-दु:ख,  पाप-पुण्य  या  द्वंद्वातून  मुक्त  होशील.  तू  माझ्या  आश्रयी  असता  सुख  संपन्न  होशील.  

प्रश्न  :-  जीवात्मा  व  परमात्मा  हे  वेगवेगळे  आहेत  असे  काहींचे  म्हणणे  आहे,  जीवात्मा  व  परमात्म्याचे  घनिष्ट  संबंध  आहे  असे  काहींचे  म्हणणे  आहे,  तर  जीवच  परमात्मा  आहे  असे  काहींचे  म्हणणे  आहे  यातील  खरे  काय  ?

उत्तर  :-  तू  वेगळा  व  मी  वेगळा  अशी  भिन्नत्वाची  भावना  असली  तरी  हरकत  नाही.  तुझ्यातला  अहंकार  नाश  पावल्यावर  आपण  दोघे  द्वैतात  स्थित  असता  आनंदाची  प्राप्ती  होईल.माझ्या  अनुग्रहा  मुळे  सगळे  चालत  असून,  तू  केवळ  निमित्तमात्र  आहेस  या  तत्वाचे  अनुसरण  केल्याने  सुध्दा  आनंद  स्थितीस  पावशील.  मोहाचा  क्षय  झाल्याने  द्वैत  स्थितीमध्ये  असतानासुध्दा  तू  मोक्षसिध्दी  पावशील.  तुझ्यात  आणि  माझ्यात  अत्यंत  सामिप्य  असताना  मी  तुझ्या  द्वारे  स्वत:स  व्यक्त  करतो.  माझ्यातील  सर्व  शक्ती   तुझ्या  द्वारे  अभिव्यक्त  होत  असताना,  तुझ्यातला  अहंकार  नाश  पावून,  मोहक्षय  झाल्याने  या  विशिष्ट  असलेल्या  अद्वैत  स्थितीमध्ये  पण  आनंदाची  प्राप्ती  होईल.  मोह  नसल्यामुळे  हा  सुध्दा  मोक्षच  होय.  तुझा  अहंकार  पूर्णपणे  नाश  पावल्याने,  कर्तृत्वाची  भावना  नाहीशी  होईल.  तुझ्यात  ''तू''  नसून,  केवळ  ''मी''असलेल्या  त्या  स्थितीत  मनाच्या  कल्पनेने  आकलन  न  होणाऱ्या  ब्रह्मानंदाचा  अनुभव  करत  असतो.  म्हणून,  अद्वैत  स्थितीत  असला  तरी  मोक्ष  प्राप्ती  करू  शकतो.  द्वैत  स्थितीत  असला  तरी,  विशिष्टाद्वैत  किंवा  अद्वैत  स्थितीत  असला  तरी  मोक्षसिध्दी/ब्रह्मानंदस्थिती  मात्र  एकच.  ती  स्थिती  मन-वाचा  यांस  अगोचर  आहे.  केवळ  अनुभवाने  जाणले  जाते.

प्रश्न  :-  अवधूत  स्थितीत  असलेले  काही  जण  ते  स्वत:  ब्रह्म  असल्याचे  सांगतात,  तर  तू  अवधूत  आहेस  का  ?

उत्तर  :-  नाही,  मी  अवधूत  नाही.  मी  ब्रह्म  आहे.  आणि  ब्रह्म  सर्वस्व  असल्याचे  अवधूतांचे  अनुभव  आहेत.  तर  मी  ब्रह्म  असून  मी  सर्वांतर्यामी  असल्याची  स्थिती  माझी  आहे.

प्रश्न  :-  तरी  या  किंचित  भेदाचे  रहस्य  मला  उमजले  नाही.

उत्तर  :-  समस्त  संसार  बंधनांतून  मुक्त   झालेले  अवधूत  माझ्यात  लीन  होऊन  ब्रह्मानंद  सुखाचा  अनुभव  घेतात.  त्यांच्यात  व्यक्तित्व  नाही.  व्यक्तित्व  नसल्याने  ते  संकल्प  रहित  असतात.  या  सृष्टीच्या  महासंकल्पात,  महाशक्तीत  मी  आहे.  जीव  म्हणविणाऱ्या  मायाशक्तीत  पण  मी  आहे.  माझ्यात  लीन  झालेले  अवधूत  सुध्दा  ''तू  परत  जन्म  घे''  अशी  माझी  आज्ञा  झाल्यास  त्यांना  जन्म  घेणे  भाग  आहे.  संकल्पयुक्त   सत्य-ज्ञानानंद  स्वरूप  माझे  आहे.  तर  संकल्परहित  सत्य-ज्ञानानंद  स्वरूप  त्यांचे  आहे.

प्रश्न  :-  बीजास  भाजल्याने  परत  अंकुरित  होत  नाही  तसेच  ब्रह्मज्ञान  प्राप्त  करून  ब्रह्ममय  झालेल्यांना  परत  जन्म  घेणे  कसे  बरे  साध्य  होईल.

उत्तर  :-  भाजलेल्या  बीजांचे  पुनरंकुरित  न  होणे  हा  सृष्टीचा  धर्म  आहे.  भाजलेल्या  बीजांना  पुनरंकुरित  करणे  हे  सृष्टीकर्त्याचे  शक्तीसामर्थ्य  आहे.  खरे  पाहता  माझा  अवतार  या  सिध्दांताद्वारे  सत्यधर्म  निरूपण  करण्या  पूर्वी  झाला  आहे.

प्रश्न  :-  दत्त  प्रभू  !  श्रीपादा  !  विवरण  करावे.

उत्तर  :-  भूत,  भविष्य,  वर्तमान  हे  अवस्थात्रय  तसेच  सृष्टी ,  स्थिती  लय  इत्यादी  त्रयांचे  अतिक्रमण  करून  वडील  अत्रीमहर्षी  प्रसिध्द  झाले.  सृष्टीतील  कोणत्याही  जीवाविषयी  किंवा  कुठल्याही   वस्तूविषयी  असूया,  द्वेष  लेषमात्र  नसल्या  कारणाने,  माता  अनसूया  विख्यात  झाली.  ब्रह्मा,  विष्णू,  रुद्र  यांस  आधार  व  अतीत  असलेल्या  त्या  परमज्योती  स्वरूपाचे  दर्शन  प्राप्त  करण्यासाठी   अत्री  महर्षीने  घोर  तपश्चर्या  केली.  त्या  परमज्योती  स्वरूप  परमात्म्याने  आपल्या  अमृतदृष्टीने  सृष्टीतील  प्रत्येक  प्राण्यास  व  वस्तूस  अवलोकन  करून  अनुग्रह  करावा  या  हेतूने,  अनसूया  मातेने  तपाचरण  केले  होते.  कर्मसूत्रांप्रमाणे  पाप-पुण्यांस  अनुसरून  सुख-दु:ख  प्राप्त  होत  असल्या  कारणाने,  महापापाचे  फळ  स्वल्प  व  स्वल्प  पुण्याचे  फळ  अधिक  व्हावे  या  संकल्पाने  अनसूया  प्रार्थना  करीत  असे.  कठीण   अशा  लोहखंडास,  जिवंत  व  खाण्यास  योग्य  अशा  चण्यामधे  आपल्या  तपोबलाने  मातेने  रूपांतर  केले.  खनीजातील  चैतन्य  निद्रा  अवस्थत  असते.  तरू-गुल्मादी  मध्ये  अर्धनिद्रावस्थेत  असते.  पशुमध्ये  पूर्णचैतन्याची  स्थिती  असते.  खनिज  म्हणून  जन्मास  येवून  मरण  पावणे,  नंतर,  वृक्षेतर  जन्म  घेऊन  तदनंतर,  पशु  जन्म  पावून  शेवटी  मनुष्य  जन्म  घेतलेल्या  मानवाने,  विवेक,  ज्ञान  व  वैराग्यवंत  होवून  त्याच्यात  सुप्त  असलेल्या  परमात्मशक्तिस  जागृत  करून  मोक्ष  प्राप्त  केला  पाहिजे.  प्रकृतीतील  परिणामक्रमाचा  धर्म  परमात्म्यांच्या  अनुग्रहाने  बदलू  शकतो  असे  मातेने  सिध्द  केले.  त्रिमूर्तीच्या  रूपात  असलेले  चैतन्य  जागृत  अवस्थेत  असल्याकारणाने,  निद्रावस्थेत  बदलून,  त्यांना  लहान  बालकांचे  रूप  दिले.  त्रिमूर्तिंच्या  शक्ति  एकवटून  अनघादेवी  रूप  धारण  केले.  दत्तात्रेयांचा  अवतार  घेवून  अनघादेवीचा  अर्धांगिनी  म्हणून  स्वीकार  केला.  श्रीपाद  श्रीवल्लभावतारी,  वामभागी  अनघादेवी  व  दक्षिण  भागी  दत्तात्रेय  असून  अर्धनारीश्वर  रूपाने  प्रभुंचा  जन्म  झाला.  अशा  महोत्तर  सृष्टीस  आपल्या  संकल्पमात्राने  सृजन   करण्याचे  शक्तिसामर्थ्य  असलेल्या  प्रभूस  आवश्यकतेनुसार  सृष्टी   धर्मांमध्ये  बदल  घडविणे  सहज  शक्य  आहे,  असे  तू  जाण.

प्रश्न  :-  श्रीपादा  !  सृष्टी  धर्मामध्ये  बदल  घडविण्याचे  सामर्थ्य  असलेला  तू  माझ्या  दारिद्रयाचे  हरण  करू  शकत  नाही  का  ?

उत्तर  :-  अवश्य  तुझे  दारिद्रय  हरण  करीन.  परंतु  तुझ्या  पुढच्या  जन्मी.  थोडेफार  दारिद्रय  भोगल्यावर!  राजगिऱ्याचा  विषय  अगदी  क्षुल्लक  होता.  तरी  तुला  राजगिऱ्यावर  इतका  मोह  होता.  आई,  वडील  किंवा  आजोबा  कोणाकडून  याचना  केली  नव्हती.  माझ्या  सारख्या  बालकाचा  आहार  असणार  तो  किती  ?  राजगिऱ्याची  इच्छा  झाल्याबरोबर  तू  दिले  असते  तर  आजची  स्थिति  उदभवलि  नसती.  पण  आता  ती  वेळ  गेली.  तुझ्या  मनातील  मालीन्य  दूर  करण्यासाठी तुझे  हे  जीवन  पुरणार  नाही.  प्रत्येक मनुष्य  आपले  पुण्यफल  आयुष्य,  ऐश्वर्य,  कीर्ती,  धन,  सौंदर्य  इत्यादी  रूपाने  पावतो.  पापाचे  फल  म्हणून  दारिद्रय,  अल्पायुषी,  कुरूप,  कुख्याती  इत्यादी  पावतो.  तुझ्या  पुण्याचा  अधिक  भाग  काढून  तुला  आयुष्य  दिले,  जेणे  करून  तुझे  पुण्य  खर्च  झाले.  आता  तुझे  पाप  जास्त  असल्या  कारणाने  दारिद्रय  भोगले  पाहिजे.  तरी  स्वयंभू  दत्ताची  आराधना  केल्या  कारणाने,  दारिद्रय  असले  तरी,  दोन  वेळचे  अन्न  तुला  लाभेल  असा  तुला  माझा  आशिर्वाद  आहे.

प्रश्न  :-  हे  श्रीपादा  !  वर्णाश्रम  धर्माप्रमाणे  वर्तन  करावे  असा  शास्त्रांचा  निर्धार  आहे.  तुमच्या  आजोबांनी  वैश्यांना  पण  वेदोक्त पध्दतीने  उपनयन  करता  येईल,  असा  जो  निर्णय  दिला,  तो  चुकीचा  नाही  का  ?

उत्तर  :-  सत्यऋषिश्वरांच्या   निर्णयात  खोट  शोधण्याचा  प्रयत्न  केल्यामुळे  तुझी  जिव्हा  छाटून  टाकली  पाहिजे.  आजोबा  म्हणजे  तुला  कोण  वाटतं  ?  ते  साक्षात  भास्कराचार्य  होत  !  विष्णूदत्त  व  सुशीला,  स्वार्थ  म्हणजे  काय  ठऊक  नसलेले  परम  पवित्र  अशी  दंपती.  त्यांना  माझे  माता-पिता  म्हणून  जन्मास  घालावे  असा  आदेश  मी  काल  व  कर्मदेवतांना  दिला.  नरसिंह  वर्म्यांचे  पूर्वज  श्री  लक्ष्मी  नृसिंह स्वामींचे  अनन्य  भक्त .  सिंहाचली  होत  असलेल्या  यज्ञ-यागात  विशिष्ट  अन्न  दान  केलेले  पवित्र  घराणे.  मी  पीठिकापुरी  जन्म  घेण्यापूर्वीपासून  एका  क्रमपध्दतीने  ही  घटना  घडवून  आणली.  त्या  तीन  घराण्याशी  असलेले  ऋणानुबंध  एका  जन्मात  फेडले  जाऊ  शकत  नाहीत  किंवा  एका  अवतार  काळात  समाप्त  करण्या  सारखे  नाही.  माझे  वरदहस्त  त्यांच्यावर  वंशोवंशी  असेल.  माझ्या  छत्र-छायेत  ते  निश्चिंत  राहतील.

भक्तास   श्रीपादांचे  अभय 

आता  माझ्या  विषयी  बोलायचे  असले  तर  काहिही  किंमत  नसलेला  राजगिरा  तू  मला  देऊ  शकला  नाही.  मी  भोजन  केल्यास  लाख  ब्राह्मण  भोजनाचे  पुण्य  तुला  लाभले  असते.  तू  खराच  दुर्दैवी  आहेस.  धर्म  कुठले ,  अधर्म  कुठले  या  विषयी  वाद  असेल  तर  शास्त्रांचा  आश्रय  घेतला  पाहिजे.  शास्त्राप्रमाणे  आचरण  करावे  किंवा  करू  नये  ह्या  विषयी  मिमांसा  होत  असेल  तेंव्हा,  निर्मल  अंत:करण  असलेले  सत्पुरुषांचे  म्हणणे  शास्त्र  ठरते .  ते  म्हणतील  ते  वेदवाक्यासमान  असून  धर्म  सम्मत  असते.  त्यांनी  अधर्माने  निर्णय  द्यायचा  प्रयत्न  जरी  केला  तर,  धर्मदेवता,  त्यांना  अधर्म  मार्गाने  परावृत्त  करून  धर्म  सम्मत  असलेले  निर्णय  देण्यास  बाध्य  करते.  हिंसा  करणे  पाप  आहे  असे  शास्त्र  सांगते.  पण  श्रीकृष्ण  परमात्म्याच्या  समक्ष  झालेले  युध्द  धर्मयुध्द  झाले.  कौरव  पांडवांचे  युध्द  धर्मयुध्द  व  युध्द  झालेले  स्थल  धर्म  क्षेत्र  म्हणून  प्रख्यात  झाले.  यज्ञ  करणे  पुण्यफलप्रद  आहे.  परंतु,  परमात्म्याचे  स्वरूप  असलेल्या  शिवास  आवाहन  न  करता  केलेल्या  दक्षाच्या  यज्ञाचे  शेवटी  युध्दात  रूपांतर  झाले.  दक्षाचे  शिर  धडा  वेगळे  झाले  नंतर  त्याला  अजाचे  शिर  लावण्यात  आले.  रोग्यास  पित्त  प्रकोप  झाल्यास,  वैद्य  लिंबू,  आवळा  इत्यादींनी  उपचार  करतो.  शरीराचा  जर  एखादा  भाग  नासल्यास,  तो  भाग  शस्त्राने  छेदून,  रोगाचे  निदान  करतो.  मी  पण  तसाच  आहे.  माझ्यात  देवतांचे  अंश  आहेत  तसेच  राक्षसांचे  अंश  पण  आहेत.  मी  उन्मतासारखा,  पिशाच्यासारखा,  राक्षसासारखा  पण  व्यवहार  करतो.  


 

माझ्या  अंतर्गत  जीवाविषयी  अत्यंत  करुणा  असल्यामुळे,  तुमचे  स्वभाव,  तुमचे  शुभाशुभ  कर्म  यास  अनुसरून  मी  वर्तन  करीत  असतो.  अनन्य  शरणागत  झालेल्या  माझ्या  भक्तांचे  हात  मी  सोडीत  नाही.  दूर  देशी  असलेल्या  माझ्या  भक्तास   माझ्या  क्षेत्री  आणतो.  ऋषींचे   कुळ  व  नदीचे  मूळ  विचारू  नये.  आदी  पराशक्ति  कन्यकापरमेश्वरीचे  वैश्यकुळात  अवतरण  झाले  नाही  का  ?  सिध्द  असलेल्या  मुनीत  वैश्य  मुनी  नाहीत  का  ?  ब्राह्मण,  क्षत्रीय,  वैश्यच  नव्हे  तर  शूद्र  जरी  निष्ठेने  नियम  पालन  करणारा  असेल  तर  वेदोक्त  उपनयनास  अधिकारी  आहे.  उपनयन  संस्काराने  तिसरे  नेत्र  (ज्ञान  नेत्र)  उघडले  पाहिजे.  अंत:करण  शुध्द  होऊन  ब्रह्मज्ञानात  मन  मग्न  झाले  पाहिजे.  तुझे  मन  शाक  ज्ञानाविषयी  पूर्णपणे  मग्न  झाले  आहे.  ब्रह्म  हे  काय  बाजारात  विकत  मिळणारी  वस्तू  आहे  ?  या  जन्मी  ब्राह्मण  म्हणून  जन्मास  आलेला  पुढच्या  जन्मी  चांडाळ  जन्म  पावू  शकतो.  तसेच  या  जन्मी  चांडाळ  म्हणू न  जन्मास  आलेला  पुढच्या  जन्मी  ब्राह्मण  म्हणून  जन्मास  येऊ  शकतो.  ब्रह्मवस्तु  कुल,  मत,  देश,  काल  यांच्या  अतीत  असलेले  रहस्य  आहे  असे  तू  जाण.  देव  भावप्रिय  असून  बाह्य  प्रिय  नाही.  तुझ्या  भावास  अनुसरून  दैव  कार्य  करीत  असते.  ब्रह्मज्ञानाचा  उपदेश  करीत  असता  मी  ब्राह्मण  असतो.  भक्तांचे  योगक्षेम  व  अनुग्रह  करण्यासाठी   दरबारात  असतो  तेंव्हा  क्षत्रीय  असतो.  प्रत्येक  जीव  आपापल्या  पाप-पुण्य  कर्माप्रमाणे  फळ  पावतो.  प्रत्येक  जीवाचा  लेखा-जोखा  माझ्या  जवळ  आहे.  तोलून  मापून  पाप-पुण्याचे  फल  वाटप  करताना  मी  वैश्य  आहे.  भक्तांचे  कष्ट  आपल्या  शरीरावर  घेवून  त्यांना  सुख-शांती  प्रदान  करण्याचा  सेवाधर्म  मी  धारण  केला  असता  शूद्र  असतो.  जीव  मृत्यू   पावल्यावर,  चिताग्नी  देऊन  त्याच्या  शरीरास  भस्मीभूत  करून  उत्तम  गती  प्राप्त  करून  देत  असताना  मी  डोम  असतो.  आता   तू  मला  सांग  मी  कोणत्या  कुळाचा  आहे  ?

प्रश्न  :-  श्रीपादा  !  क्षमा  करा.  मी  अज्ञानी  आहे.  आपण  साक्षात  दत्तप्रभू  आहात.  समस्त  जीवांचा  आश्रय  तूच  आहेस.  खरे  पाहता  या  सृष्टीची  रचना  कशी  झाली  याचे  विवरण  करून  मला  कृतार्थ  करावे.

लोकालोक  वर्णन  :-

उत्तर  :-  आजोबा,  स्वर्गात  88  हजार  गृहस्थ   मुनींचा  वास  असतो.  पुनरावृत्ती  होणे  त्यांचा  धर्म  असून  धर्म  प्रचारासाठी  बीजरूपाने  ते  विद्यमान  असतात.  परमात्म्याच्या  अनिर्वचनीय  अशा  शक्तीच्या  एका  स्वल्प  अशा  अंशाने  जगत सृष्टी  रचण्यासाठी  ब्रह्मदेवाची  उत्पत्ति  झाली.  परमात्म्यापासून  क्रमाने  सर्वव्यापी  असे  जल  निर्माण  झाले.  परमात्म्याच्या  तेजाने,  त्या  जलात  कोट्यावधी  सुवर्णकांतियुक्त्त  अंड  उत्पन्न  झाले.  त्या  अंडात  एक  अंड  आपण  निवास  करीत  असलेले  ब्रह्मांण्ड  आहे.  यातील  आतले  भाग  अंधकारमय  असून  तेथे  परमात्म्याचे  तेज  मूर्तीमान  झाल्याने  अनिरुध्द  हे  नाव  विख्यात  झाले.  त्या  अंडयातील  अंधकार  परमात्म्याने  आपल्या  तेजाने  नाहीसा  केला.  हिरण्यगर्भ,  सूर्य,  सविता,  परंज्योती  अशा  अनेक  संज्ञानी  वेदांत  त्यांचे  वर्णन  आले  आहे.  त्रेता  युगात  पीठिकापुरत  भारद्वाज  महर्षीनी,  एक  कोटी  ब्रह्मांण्डात  भरलेल्या  दत्तात्रेयांच्या  तेजास  उद्देशून  सवितृकाठकाचे  आयोजन  केले  होते.  सत्यलोकात  निरामयस्थान  नावाचे  एक  स्थान  आहे.  त्रिखंड  सोपानात  वसु,रुद्रादित्य  नावाने  पितृगणांचा  येथे  वास  आहे.  निरामय  स्थानाचे  संरक्षक  म्हणून  ते  कार्यरत  असतात.  कारण  ब्रह्मलोक  म्हणविणाऱ्या  या  स्थानात,  चतुर्मुख  ब्रह्माचे  निवास  स्थान  आहे.  त्यास  विद्यास्थान  किंवा  मूल  प्रकृति  स्थान  असे  जाणले  जाते.  त्यावर  प्रख्यात  असलेले  श्रीनगर  आहे.  त्याच्यावर  महा  कैलास,  त्यावर  कारण  वैकुंठ  आहे.  सत्यलोकात  पुराणपुर  नावाचे  विद्याधर  स्थान  आहे.  तपोलोकात  अंजनापतिपुर  मध्ये  साध्यांचा  वास  आहे.  जनलोकात  अंबावतिपूर  येथे  सनक  सनंदनादि  ऋषींचा  निवास  आहे.  महर्लोकात  ज्योतिष्मतिपुरा  मध्ये  सिध्दादि  गणांचा  वास  आहे.  स्वर्गलोकात  अमरावतीपुरा  मध्ये  देवेंद्रादि  देवता  गणाचे  वास्तव्य  आहे.  खगोलाशी  संबंधित  ग्रह-नक्षत्रादि  असलेले  भुवर्लोकात  रथंतरपुरामध्ये  विश्वकर्मा  नावाचा  देव-शिल्पीचा  वास  आहे.  आजोबा  !  भूलोकात  दोन  भाग  आहेत.  मानवांचा  निवास  असलेल्या  एका  भागास  भूगोल  असे  म्हणत.  ह्याच्या  शिवाय,  महाभूमी  म्हणविणारा  दुसरा  भाग  आहे.  ही  महाभूमी  भुगोलकाच्या  दक्षिणेस  पाच  कोटी  ब्रह्माण्ड  योजन  दूर  स्थित  आहे.  मर्त्यलोक  म्हणजे,  भूलोक  व  भुवर्लोक  असून  त्यात  महाभूमीचा  पण  समावेश  आहे.  पाताळात,  अतल,  वितल,  सुतल,  रसातल,  तलातल,  महातल  आणि  पाताल  अशा  प्रकारचे  सात  लोक  आहेत.  थोडक्यात,  यास  स्वर्ग,  मर्त्य,  पाताळ  असे  म्हणत.

आपण  राहतो  या  भूगोलाच्या  खालच्या  बाजूस  महाभूमी  आहे,  जिचे  मध्यभागात  उंचवटा  असून  चक्राकार  आहे.  त्यामुळे  त्याच्या  उपरितलावर  सूर्य  चंद्र  सदैव  झळकत  असत.  सतत  प्रकाशमान  असल्याकारणाने,  तेथे  कालमानाचे  निर्णय  नाही.  या  महाभूमीवर  सप्त  समुद्र,  सप्त  द्वीप  आहेत.  जंबुद्वीप  या  महाभूमीवर  आहे.  भूलोक  व  भुवर्लोक  यांची  संयुक्त  संज्ञा  मर्त्यलोक  अशी  आहे.  भूलोकात  महाभूमी  व  भूगोल  असे  दोन  प्रकार  आहेत.

सृष्टीच्या  प्रारंभी  समस्त  लोक  जलमय  होते.  प्रजापतीने  सृष्टी  रचण्याच्या  हेतूने  तपाचरण  केले  तेंव्हा  जलावर  तरंगत  असलेल्या  पुष्कर  पर्णाचे  दर्शन  झाले.  प्रजापतीने  वराह  रूप  धारण  करून  पुष्कर  पर्णाजवळ  पाण्यात  बुडी  मारली.  खाली  त्यास  महाभूमी  आढळली.  तेथून  थोडी  ओली  माती  काढून  आपल्या  धारदार  सुळयांनी  त्या  मृत्तिकेचे  दोन  भाग  पाडले.  एक  भाग  पाण्यावर  आणून  पुष्कर  पर्णावर  ठेवल्याने ''पृथ्वी ''  झाली.  आजोबा  !  ह्याला  भूगोल  असे  म्हणत.  महाभूमीपासून  भुगोलाचे  अंतर  5  कोटी  ब्रह्मांण्ड  योजने  आहे.  महाभूमीचा  विस्तार  50  कोटी  योजने  आहे.  जंबुद्वीप  नावाचे  द्वीप  या  महाभूमी  वर  आहे.  त्याच्यात  नवखंड  आहेत.  देवखंडी  देवता  व  गभस्त्यखंडी  भूतांचा  निवास  आहे.  पुरुषखंडी  किन्नर,  भरतखंडी  मानव,  शरभखंडी  सिध्द,  गंधर्वखंडी  गंधर्व,  ताम्रखंडी  राक्षस,  शेरूखंडी  यक्ष  व  इंदूखंडी  पन्नगांचा  निवास  आहे.  महाभूमीवर  असलेल्या  जंबुद्वीपाच्या  दक्षिणेस  असलेले  भरतखंडी,  भरतपुरी,  वैवस्वत  मनू  भूऋषी  व  मानवासमवेत  राज्य  करीत  आहेत.  महाभूमीवर  जंबुद्वीप  असल्याप्रमाणे  भूगोलावर  सुध्दा  जंबुद्वीप  आहे.  माझा  श्रीपाद  श्रीवल्लभावतार  पीठिकापुरी   होण्या  अगोदर  100  वर्षांपूर्वी  या  महाभूमीत  माझे  आगमन  झाले.  महाभूमीवर  असलेल्या  जंबुद्वीपाचा  विस्तार  लक्ष  योजन  आहे.  जंबुद्वीपावर  केवळ  भरत  खंडी  वैवस्वत  मनू  आहेत.  इतर. 
खंडात  देवयोनींचा  वास  आहे.  कोवळया  उन्हासारखा  प्रकाश  असून  तेथे  दिवस  किंवा  रात्र  याचे  भेद  नाही.  लवण  समुद्राचे  लक्ष  योजने,  लक्ष  द्वीपाचे  दोन  लक्ष  योजने,  ईक्षुरस  समुद्राचे  दोन  लक्ष  योजने,  कुश  द्वीपाचे  चार  लक्ष  योजने,  सुरा  समुद्राचे  चार  लक्ष  योजने,  क्रौंच  द्वीपाचे  आठ   लक्ष  योजने,  सर्पी  समुद्राचे  आठ   लक्ष  योजने,  शाकद्वीपाचे  16  लक्ष  योजने,  दधी  समुद्राचे  16  लक्ष  योजने,  शल्मली  द्वीपाचे  32  लक्ष  योजने,  क्षीर  समुद्राचे  32  लक्ष  योजने,  पुष्कर  द्वीपाचे  64  लक्ष  योजने,  शुध्दजल  समुद्राचे  64  लक्ष  योजने,  चलाचल  पर्वताचे  128  लक्ष  योजने,  चक्रावळी  पर्वताचे  256  लक्ष  योजने,  लोकालोक  पर्वताचे  512  लक्ष  योजने,  तपोभूमिचे  1250  लक्ष  योजने  असा  विस्तीर्ण  आहे.  लोकालोक  पर्वताच्या  पलिकडे  सूर्य  रश्मी  जाऊ  शकत  नाही.  म्हणून  लोकालोक  पर्वत  व  अंडांत  या  मध्ये  अंधकार  पसरलेला  असतो.  अंडांताचे  विस्तार  कोटी  योजने  आहे.  वराहावतार  किंवा  नृसिंहावतार  भूमीस  व्याप्त  करणारे  असे  अवतार  नाहीत.  वराह  म्हणजे  सुकर  नसून  एक  सूळा  असलेला  खड्गमृग  आहे.  

द्वीप,  द्वीपाधिपती,  द्वीपाधि  देवतांचे  वर्णन  :-

महाभूमीत  असलेल्या  जंबुद्वीपास  स्वयंभू  मनूने  चक्रवर्ती  म्हणून  प्रथम  पालन  केले.  त्यांचे  सात  पुत्र  सात  द्वीपांचे  अधिपती  झाले.  प्लक्ष  द्वीपाचे  मेधातिथी,  शल्मल  द्वीपाचे  वपुष्मंत,  कुश  द्वीपाचे  ज्योतिष्मंत,  क्रौंच  द्वीपाचे  द्युतिमंत,  शाक  द्वीपाचे  हव्य,  पुष्कर  द्वीपाचे  सवन  हे  पहिले  चक्रवर्ती  होत.  प्लक्ष  द्वीपातील  चातुर्वर्ण  -  आर्यक,  कुरर,  विंदक,  भाविन  या  नावाने  प्रसिध्द  आहे.  चंद्राकृतीत  असलेले  विष्णू  त्यांचे  आराध्य  दैवत  आहेत.  शल्मल  द्वीपी  कपिल,  चारणक,  पीत  व  कृष्ण  असे  चार  वर्ण  आहेत.  त्यांचे  आराध्य  देव  विष्णू  आहे.  कुश  द्वीपात  दमी,  शुष्मीण,  स्नेह  व  मंदेह  असे  चार  वर्ण  आहेत.  त्यांचे  आराध्य  देव  ब्रह्मा  आहे.  क्रौंच  द्वीपात,  पुष्कर,  पुष्कल,  धन्य  व  पिष्य  असे  चार  वर्ण  असून  त्यांचे  आराध्य  दैवत  रुद्र  आहे.  शाक  द्वीपात  मंग,  मागध,  मानस  व  मंद  असे  वर्ण  असून  सूर्यभगवानाची  ते  उपासना  करीत.  पुष्कर  द्वीपात  मात्र  चातुर्वर्ण  नाही.  सगळे  देवतांच्या  सारखे,  रोग  व  शोक  मुक्त असून  आनंदाने  कालक्रमण  करतात.  त्यांचे  आराध्य  दैवत  ब्रह्मा  आहे.  आपल्या  भूगोलात,  जंबुद्वीपामध्ये,  भरत  वर्ष,  किंपुरुष  वर्ष,  हरि  वर्ष,  केतुमाल्य  वर्ष,  इलावृत  वर्ष,  भद्राश्व  वर्ष,  रम्यक  वर्ष,  हिरण्यक  वर्ष,  कुरु  वर्ष  या  नावांचे  भाग  आहेत.  महाभूमी  गोलाकार  असून,  मध्यभागी,  कासवाच्या  पाठी  प्रमाणे  ऊंच  आहे.  ह्या  उंचवट्यास  भूमंडळ  असे  म्हणत.  भूगोल  मात्र  लिंबा  सारखे  असते.  महाभूमी  मेरु  रेखेस  वळसा  घेऊन  ब्रह्मांडाच्या  टोकापर्यंत  व्यापून  आहे.  भूगोल  मात्र  ज्योतिश्चक्राच्या  समानांतरावर  मध्यभागी  स्थित  आहे.  महाभूमीच्या  मध्यभागी  असलेले  मेरु  रेखेच्या  भोवती  जंबुद्वीप  आहे.  त्याच्या  भोवती,  सप्तसमुद्र  द्वीपादि  आहेत.  भूगोलाच्या  उत्तरार्धास  देव  भाग  व  दक्षिणार्धास  असुर  भाग  असे  म्हणत.  महाभूमीच्या  मध्यभागी  मेरू  देदिप्यमान  असून,  जीवांस  पालन  करणाऱ्या  मनूचे  निवास  स्थान  आहे.  भूगोल  जीवांचे  निवास  स्थान  आहे.  महाभूमीच्या  भोवती  असलेले  चक्रवाळ  पर्वतशिखरी  ज्योतिश्चक्र  स्थित  आहे.  भूगोल  मात्र  यापेक्षा  भिन्न  आहे.

सप्त  कक्षांनी  आवृत्त  असलेले  ज्योतिश्चक्र  भूगोलाची  रोज  एक  प्रदक्षिणा  करीत  आहे.  महाभूमीत,  शीतोष्ण  वातादि  कमी  असून  सदैव  प्रकाशमान  असल्या  कारणाने,  नित्य  दिवस  असल्याने  काळाचे  व्यत्यास  नाही.  भूगोलात  ह्याच्या  विपरीतआहे.  महाभूमी  केवळ  पुण्यफल  अनुभवण्यास  प्राप्त  करण्या  योग्य  आहे.  स्थूल  शरीराने  अप्राप्य  आहे.  भूगोल  पुण्य  मिळविण्यासाठी   असलेली  कर्मभूमी  असून  स्थूल  शरीरधारी  राहण्याची  भूमी  होय.  महाभूमीवर  मनु  प्रलया  शिवाय  दुसरे  प्रलय  उद्भवत  नाही.  भूगोलात,  युग  प्रलय,  महायुग  प्रलय,  मनु  प्रलय  इत्यादी  घडतात.  

महाभूमीस,  धात्री,  विधात्री  अशी  नावे  आहेत.  भूगोलास,  मही,  ऊर्वी,  क्षिति,  पृथ्वी ,  भूमी  अशी  नावे  आहेत.  आजोबा  !  पाताळ  लोकाविषयी  सांगतो,  ऐका  !  अतल  येथे  पिशाच्च  गण,  वितल  लोकात  गुह्यक,  सुतल  लोकात  राक्षस,  रसातलात  भूत,  तलातलात  यक्ष,  महातलात  पितर  व  पाताळात  पन्नगांचा  वास  आहे.

लोकांतील  निवासी,  लोकाधिपती  व  खंडांचे  विवरण  :-

वितल  लोकाचा  व  नवनिधींचा  अधिपती  कुबेर  आहे.  हा  ब्रह्मांडाचा  कोषाधिपती  असून,  उत्तर  दिशेस  अलकापुरी  येथे  याचा  वास  आहे.

वितल  लोकाच्या  मेरूच्या  पश्चिमेस  योगिनीपुरात  मय  राहतो.  हा  राक्षसांचा  शिल्पी  असून  त्याने  त्रिपुरासुरांस  आकाशात  ऊंच  विहार  करण्यास  योग्य  असे  त्रिपुर  निर्माण  करून  दिले.

सुतलातील  वैवस्वतपुरात,  यमाचे  आधिपत्य  आहे.  हा  दक्षिण  दिशेचा  अधिपती  आहे.  या  नगरात  प्रवेश  करण्यापूर्वी,  अग्निहोत्रा  नदी  आहे.  या  नदीस  वैतरणी  असे  म्हणतात.  पुण्यवंतास  ही  नदी  सुलभ  रीतिने  ओलांडता  येते  तर  पापात्म्यांस  अति  कष्टदायक  ठरते .

रसातलात  पुण्यनगर  येथे  निऋति  नावाचा  दैत्य  राज्य   करतो.  हा  नैऋत्य  दिशेचा  अधिपती  आहे.  तलातल  लोकात  धनिष्ठापुरात  पिशाच्च  गणाबरोबर,  वेताळाचे  राज्य  आहे.  महातलात  कैलासपुरी,  सर्वभूत  गणासहित  कात्यायनीपती  ईशान  आहे.  ते  ईशान्य  दिशेचा  अधिपती  होय.  पाताळात  वैकुंठ नगर  आहे.  त्यात  श्रीमन्नारायण,  पाताळात  असलेल्या  असुरांसहित,  वासुकी  इत्यादी  सर्पश्रेष्ठांबरोबर,  शेषशायी  होऊन  विराजमान  आहेत.  ह्यास  श्वेतद्वीपात  असलेले  कार्यवैकुंठ  असे  म्हणत.

पाताळ  लोकात  त्रिखण्डसोपान  आहे.  प्रथम  खंडात  अनंग  जीवांचा  निवास  आहे.  द्वितीय  खंडात  प्रेत  गणांचा  वास  आहे.  तृतीय  खंडात  यातनामय  शरीर  प्राप्त  झालेले  जीव  दु:खाने  आक्रोश  करीत   असतात.

महाभूमीमध्ये  सप्त  समुद्र,  सप्त  द्वीप  आहेत.  यांच्या  मध्यभागी,  जंबूद्वीप  आहे.  जंबूद्वीपाचे  नव  खण्डामध्ये  विभाजन  झाले  असून,  दक्षिणेस  असलेल्या  खण्डास  भरत  खण्ड  असे  म्हणत.  भरतखण्डात  भरतपुर  येथे,  स्वयंभू  मनू  राहत  असे.  अनेक  पुण्यजीव,  ऋषी  इत्यादी,  स्वयंभू  मनूच्या  राज्यात  वास  करीत.  ते  लोकांचे  तसेच  धर्माचे  यांचे  पालन  करीत.  महाभूमिवर  सप्तद्वीपाभोवती,  चराचर,  चक्रवाळ  लोकालोक  असे  पर्वत  स्वर्गलोकापर्यंत  व्यापून  आहेत.  हे  कांती  किरणांस  आपल्यामधून  कधीच  प्रसारित  होऊ  देत  नाहीत.

महाभूमीच्या  खाली  सात  अधोलोक  आहेत.  ह्यास  सप्त  पाताळ  असे  म्हणत.  अतल  लोकात  पिशाच्चांचा  निवास  आहे.  वितल  लोकात  अलकापुरीत  कुबेर  असतो  व  योगिनीपुरात  राक्षसांसमेत  मय  असतो.  सुतल  लोकात  राजा  बळी  आपल्या  परिवारासह  असतो.  वैवस्वतपूर  यमाचे  निवास  स्थान  असून  येथील  नरकात,  पापी  जीव  यातना  भोगतात.  रसातल  लोकात  पुण्यपूर  येथे  निऋती  भूत  गणासहित  निवास  करतो.  तलातल  लोकात  धनिष्ठापुरात  वेताळ  राहतो  व  कैलासपुरी  रुद्र.  महातलात  पितृदेवांचा वास  आहे.  पाताळात  श्वेतद्वीपवैकुंठ   आहे.  यात  नारायणाचे  निवास  आहे.  मेरूस  लागून  अधोभागी,  अनंगजीव,  प्रेतगण  व  यातनादेह  असतात.  निरालंब  सूच्यग्रस्थानात  महापातकी  असत.  भोजनांती  ''रौरवे  अपुण्यनिलये  पदमार्बुद  निवासिनाम्  ।  अर्थिनाम्  उदकम्  दत्तमक्षय्यमुपतिष्ठति  ॥''  म्हणून  उत्तरापोषणात  उदक  यांस  प्रदान  करीत  असतो.  

लोकाचे  नाव,  त्यांचे  विस्तीर्ण  विवरण  :-

भूलोकात  असलेले  भुगोल  व  महाभूमी  भिन्न  आहेत.  याचे  स्पष्टपणे  समजून  घे.  भूगोल  बिंदुच्यावर  ऊर्ध्व  धु्रव  स्थानापर्यंतच्या  प्रदेशात  मेरुरेखेस  प्रकाशमान  करणारे  सूर्य  लोक  होय.  हे  सूर्यदेवतेचे  लोक  असून  सूर्यग्रह  मंडल  नव्हे.  याच  प्रमाणे,  चंद्र  लोक,  अंगारक  लोक,  बुध  लोक,  गुरु  लोक,  शुक्र  लोक,  शनैश्चर  लोक,  राश्यादी  देवता  लोक,  नक्षत्र  देवता  लोक,  सप्तऋषी  लोक,  ऊर्ध्व  ध्रुव  लोक,  असे  आहेत.  याशिवाय  आणखी  अवांतर  लोक  सुध्दा  आहेत.

भूमध्य  बिंदूपासून  सूर्य  लोक,  लक्ष  ब्रह्मांड  योजन  आहे.  हे  सूर्य  ग्रहाचे  अधिपती  असलेले  सूर्य  देवतेचे  स्थान  आहे.  भूमध्य  बिंदू  पासून  चंद्र  लोक,  दोन  लक्ष  ब्रह्मांड  योजने,  अंगारक  लोक  3  लक्ष  ब्रह्मांड  योजने,  बुध  लोक  5  लक्ष  ब्रह्मांड  योजने,  गुरु  लोक  7  लक्ष  ब्रह्मांड  योजने,  शुक्र  लोक  9  लक्ष  ब्रह्मांड  योजने.  शनैश्वर  लोक  11  लक्ष  ब्रह्मांड  योजने,  राश्यादि  देवता  लोक  12  लक्ष  ब्रह्मांड  योजने,  नक्षत्रादि  देवता  लोक  13  लक्ष  ब्रह्मांड  योजने,  सप्तऋषी  लोक  14  लक्ष  ब्रह्मांड  योजने,  ध्रुव  लोक  15  लक्ष  ब्रह्मांड  योजने  आहे.  याप्रमाणे,  भूमध्य  बिंदूपासून  विविध  अंतरावर,  स्वर्गलोक,  महर्लोक,  जनलोक,  तपोलोक,  सत्य  लोक  आहेत.  भूमध्य  बिंदू  पासून  ब्रह्मांडास  भोवती  भिंती  सारखे  म्हणजे,  अंडांतापर्यंत,  24  कोटी,  50  लक्ष  ब्रह्मांड  योजनांचे  अंतर  आहे.  भूमध्य  बिंदूपासून,  अंडांताच्या  बाहेर  पर्यंत,  25  कोटी,  50  लक्ष  ब्रह्मांड  योजनांचे  अंतर  आहे.  भुलोक,  भुवर्लोक  व  स्वर्लोक  प्रलयकाळी  नाश  पावतात.  स्वर्लोकावरील  महर्लोक,  थोडेफार  नाश  पावून  थोडे  स्थिर  राहतात.  त्यावर  असलेले  जन,  तप  व  सत्य  लोक  ब्रह्माच्या  आयुष्याच्या  अंती  नाश  पावतात.  स्वर्ग  म्हणजे,  स्वर्लोक,  महर्लोक,  जन  लोक,  तपोलोक,  सत्यलोक  व  अंडांतापर्यतचा  प्रदेश.

दत्त  म्हणजे  कोण  ?

आजोबा  !  दत्त  तत्व  तुला  अनुभवायचे  असेल  तर  लक्षवेळा  जन्म  घेतले  पाहिजे.  कोटयानुकोटि  ब्रह्मांडास  व्याप्त  करून  त्यांचे  अतिक्रमण  करून  असलेले  एकमेव  तेजोमहाराशी  म्हणजे  दत्त  असे  समज.  ते  दत्तप्रभूच  तुझ्या  समोर  असलेले  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  आहेत  असे  जाण.


श्री  चरणांनी  केलेला  हितोपदेश  ऐकून  नरसावधानी  व  त्यांची  पत्नी  चकित  झाले.  एक  वर्षाच्या  बालकाने  साधिकाराने,  येवढे  महत्वपूर्ण  व  गहन  असे  विषय  सांगणे  व  स्वत:  दत्त  असल्याचे  निरूपण  ऐकल्यावर  नरसावधानी  व  त्यांच्या  पत्नीस  राहवले  नाही.  ते  ढसढसा  रडू  लागले.  त्या  दिव्य  शिशूचे  श्रीचरण  स्पर्श  करावे  अशी  इच्छा  व्यक्त   केली.  त्यास  श्रीपादांनी  नकार  दिला.  नरसावधानी  व  त्यांची  पत्नी  जागच्या  जागी  खिळुन  राहिले.  

श्रीपाद  पुढे  म्हणाले  -  मी  दत्त  आहे.  कोटयानुकोटि  ब्रह्मांडात  व्याप्त  असलेले  एकमेव  तत्वमीच  आहे.  दिग्  हेच  वस्त्र  म्हणून  दिगंबर  आहे.  जे  कोणी  त्रिकरणशुध्दीने  दत्त  दिगंबरा  !  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  दिगंबरा  !  नरसिंहसरस्वती  दिगंबरा  !  म्हणून  भजन,  कीर्तन  करतात  तेथे  मी  सूक्ष्म  रूपाने  सदैव  असतो.  माझे  मातामह  असलेले  श्री  बापन्नार्य,  परप्रांतातून  पादगया  क्षेत्री  श्राध्दादी  कर्म  करण्यास  आलेल्या  लोकांस  सेवाथावाने  भोजन  व  राहण्याची  सोय  करीत  असताना  कांही  लोकांना  आक्षेप  घेतला  कोठे   आहेत  तुमचे  स्वयंभू  दत्त  ?  अदृश्य  झाले  ना  ?  तेंव्हा  श्रीपाद  म्हणाले,  ''तो  दत्त  मीच  आहे.  मी  जन्म   घेतलेल्या  पवित्र  गृहात  राहण्यास  आलेले  नक्कीच  पवित्र  होतील.पितृदेवतांस  अवश्य  पुण्य  लोकांची  प्राप्ती  होईल.  जीवित  असलेले  जीवांचे,  तसेच  मरण  पावलेल्या  जीवांचे  योगक्षेम  वहन  करणारा  प्रभू  मीच  आहे.  मला  जन्म  मरण  दोन्ही  समान  आहेत.  तरी  तू  स्वयंभू  दत्ताची  आराधना  केल्याचे  फळ  हेच  का  ?  अशी  व्यथा  तुझ्या  मनात  आहे.  तुझ्यावर  असलेले  आळ  नाहीसे  करण्यास  स्वयंभू  दत्ताचे  दर्शन  शीघ्र  होईल.  आणि  मूर्तीची  प्रतिस्थापना  होईल.  तुला  मी  आयुष्य  दिले.  दत्त  ध्यानी  असू  दे.  पुढच्या  जन्मी  तुला  अनुग्रह  होईल  असे  आश्वासन  देतो.  या  जन्मी  माझ्या  पादुकांस  स्पर्श  करण्याचे  महापुण्य  तुला  नाही.  कोटयानुकोटि  ब्रह्मांडाचे  सृजन ,  रक्षण  व  लय  करणारा  एकैक  प्रभू  असा  मी  माझ्या  वरद  हस्तांनी  तुला  आशिर्वाद  देतो.''  महा  भयंकर  अशा  ध्वनीनी  श्रीचरणांचे  शरीरातील   अणु  परमाणू  विघटित  होऊन,  श्रीपाद  अदृश्य  झाले.

बाबारे  !  शंकरभट्टा  !  श्रीपादांनी  स्वत:  त्यांच्या  नामाच्या  शेवटी  दिगंबरा  नाम  जोडून  जप  करण्याचे  मर्म  या  प्रकारे  निरोपिले.  त्यांचे  सर्व  व्यापक  तत्व,  निराकार  असलेले  ते  तत्व,  साकार  रूपात  असे  अवतरीत  झाले  हे  आपल्या  कल्पनेच्या  बाहेर  आहे.  लहान  मुलाच्या  रूपाने,  गोंडस   रूप  धारण  करून  आलेल्या  त्या  जगत्प्रभूच्या  लहानपणापासून  करीत  असलेल्या  लीलांना  अंत  कोठे ? 

 






 

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