Sunday, January 27, 2019

मंत्र आणि साधना

सर्व विपत्ति-हर्ता श्री घंटाकर्ण मंत्र व साधना - प्रयोग विधि 
श्री घंटाकर्ण को हिन्दू, बौध और जैन लोक हितकारी देवता के रूप में मानते है ! यह अत्यधिक प्रभावशाली देव माने गए हैं .इनके मंत्र -यन्त्र के अनेको बिभेद मिलते हैं जो की अपने आप में ही एक अद्भुत तथ्य हैं और हर मंत्र यन्त्र से संबंधित एक से एक सरल और उच्च कोटि की साधनाए हैं , जिनका अपने आप में कोई सानी नही , पर अभी भी वे सारे विधान जो अत्यधिक चमकृत करने वाले हैं साधको के सामने आना बाकी हैं ! पुराणों में श्री घंटाकर्ण को यक्ष राज कुबेर का सेनापति भी माना जाता है ! दक्ष प्रजापति के यज्ञ को जिन शिव गणों ने भंग किया था श्री घंटाकर्ण भी उनमे से एक थे ! रविन्द्रनाथ टैगोर की एक कथा में श्री घंटाकर्ण का जिक्र है ! केरल मे कृष्ण लीलाओं मे उनकी कृष्ण से भेंट का निर्त्य नाटक मे वर्णन होता है ! हरिवंश पुराण में कहा गया है कि घंटाकर्ण कान में घंटी बाँधकर भगवान शिव कि आराधना करते थे , ताकि शिव नाम के सिवा उन्हें कुछ ना सुनाई दे ! मान्यता है कि तपस्या पूर्ण होने पर शिव जी ने घंटाकर्ण से कहा कि तुम विष्णु जी कि पूजा करो ! भगवान विष्णु ने घंटाकर्ण को आदि बद्री कि उपाधि देकर बद्रीनाथ में स्थान दिया ! उन्होंने कहा कि कलयुग में तुम्हे हर स्थान पर पूजा जाएगा। श्री घंटाकर्ण को भैरव भी माना जाता है , कोणार्क सूर्य मंदिर के पत्थरों पर भी नाव में में नाचते हुए घंटाकर्ण भैरवों की प्रतिमा उत्कीर्ण है. एक प्रतिमा शांत भाव में है और एक रौद्र रूप में है ! कामाख्या आसाम में भी कामाख्या मंदिर के नजदीक श्री घंटाकर्ण का मंदिर है ! उत्तराखंड , गढ़वाल , राजस्थान , गुजरात और दक्षिण भारत मे भी उनकी पूजा होती है !
श्री घंटाकर्ण मूल मंत्र ::----
ॐ घंटाकर्णो महावीर, सर्वव्याधि-विनाशकः !
विस्फोटक भयं प्राप्ते, रक्ष रक्ष महाबलः ||
यत्र त्वं तिष्ठसे देव, लिखितोऽक्षर-पंक्तिभिः !
रोगास्तत्र प्रणश्यन्ति, वात-पित्त-कफोद्भवाः ||
तत्र राजभयं नास्ति, यान्ति कर्णे जपात्क्षयम् !
शाकिनी भूत वेताला, राक्षसाः प्रभवन्ति न ||
नाकाले मरणं तस्य, न च सर्पेण दंश्यते ,
अग्निचौरभयं नास्ति, ॐ ह्रीं घंटाकर्ण नमोस्तु ते !
ॐ नर वीर ठः ठः ठः स्वाहा ||

विधिः- यह मंत्र छत्तीस हजार जाप कर सिद्ध करें । इस मंत्र के प्रयोग के लिए इच्छुक उपासकों को पहले गुरु-पुष्य, रवि-पुष्य, अमृत-सिद्धि-योग, सर्वार्थ -सिद्धि-योग या दिपावली की रात्रि से आरम्भ कर छत्तीस हजार का अनुष्ठान करें । बाद में कार्य साधना के लिये प्रयोग में लाने से ही पूर्ण फल की प्राप्ति होना सुलभ होता है ।
विभिन्न प्रयोगः- इस को सिद्ध करने पर केवल इक्कीस बार जपने से राज्य भय, अग्नि भय, सर्प, चोर आदि का भय दूर हो जाता है । भूत-प्रेत बाधा शान्त होती है । मोर-पंख से झाड़ा देने पर वात, पित्त, कफ-सम्बन्धी व्याधियों का उपचार होता है ।
1॰ मकान, गोदाम, दुकान घर में भूत आदि का उपद्रव हो तो दस हजार जप तथा दस हजार गुग्गुल की गोलियों से हवन किया जाये, तो भूत-प्रेत का भय मिट जाता है । राक्षस उपद्रव हो, तो ग्यारह हजार जप व गुग्गुल से हवन करें ।
2॰ अष्टगन्ध से मंत्र को लिखकर गेरुआ रंग के नौ तंतुओं का डोरा बनाकर नवमी के दिन नौ गांठ लगाकर इक्कीस बार मंत्रित कर हाथ के बाँधने से चौरासी प्रकार के वायु उपद्रव नष्ट हो जाते हैं ।
3॰ इस मंत्र का प्रतिदिन १०८ बार जप करने से चोर, बैरी व सारे उपद्रव नाश हो जाते हैं तथा अकाल मृत्यु नहीं होती तथा उपासक पूर्णायु को प्राप्त होता है ।
4॰ आग लगने पर सात बार पानी को अभिमंत्रित कर छींटने से आग शान्त होती है ।
5॰ मोर-पंख से इस मंत्र द्वारा झाड़े तो शारीरिक नाड़ी रोग व श्वेत कोढ़ दूर हो जाता है ।
6॰ कुंवारी कन्या के हाथ से कता सूत के सात तंतु लेकर इक्कीस बार अभिमंत्रित करके धूप देकर गले या हाथ में बाँधने पर ज्वर, एकान्तरा, तिजारी आदि चले जाते हैं ।
7॰ सात बार जल अभिमंत्रित कर पिलाने से पेट की पीड़ा शान्त होती है ।
8॰ पशुओं के रोग हो जाने पर मंत्र को कान में पढ़ने पर या अभिमंत्रित जल पिलाने से रोग दूर हो जाता है । यदि घंटी अभिमंत्रित कर पशु के गले में बाँध दी जाए, तो प्राणी उस घंटी की नाद सुनता है तथा निरोग रहता है ।
9॰ गर्भ पीड़ा के समय जल अभिमंत्रित कर गर्भवती को पिलावे, तो पीड़ा दूर होकर बच्चा आराम से होता है, मंत्र से 21 बार मंत्रित करे ।
10॰ सर्प का उपद्रव मकान आदि में हो, तो पानी को १०८ बार मंत्रित कर मकानादि में छिड़कने से भय दूर होता है । सर्प काटने पर जल को ३१ बार मंत्रित कर पिलावे तो विष दूर हो ।
11.इस मंत्र का जप करने से सब प्रकार की भूत - प्रेत - बाधा दूर होतें हैं | सर्व विपत्ति-हर्ता मंत्र है !

नरसिंह प्रचंड मंत्र प्रयोग
मंत्र १ : प्रचण्ड्भूतेश्वर नृसिंह शाबर मन्त्र : ll
ॐ नमो भगवते नारसिंहाय -घोर रौद्र महिषासुर रूपाय
,त्रेलोक्यडम्बराय रोद्र क्षेत्रपालाय ह्रों ह्रों
क्री क्री क्री ताडय
ताडय मोहे मोहे द्रम्भी द्रम्भी
क्षोभय क्षोभय आभि आभि साधय साधय ह्रीं
हृदये आं शक्तये प्रीतिं ललाटे बन्धय बन्धय
ह्रीं हृदये स्तम्भय स्तम्भय किलि किलि ईम
ह्रीं डाकिनिं प्रच्छादय २ शाकिनिं प्रच्छादय २ भूतं
प्रच्छादय २ प्रेतं प्रच्छादय २ ब्रंहंराक्षसं सर्व योनिम
प्रच्छादय २ राक्षसं प्रच्छादय २ सिन्हिनी पुत्रं
प्रच्छादय २ अप्रभूति अदूरि स्वाहा एते डाकिनी
ग्रहं साधय साधय शाकिनी ग्रहं साधय साधय
अनेन मन्त्रेन डाकिनी शाकिनी भूत
प्रेत पिशाचादि एकाहिक द्वयाहिक् त्र्याहिक चाथुर्थिक पञ्च
वातिक पैत्तिक श्लेष्मिक संनिपात केशरि डाकिनी
ग्रहादि मुञ्च मुञ्च स्वाहा मेरी भक्ति गुरु
की शक्ति स्फ़ुरो मन्त्र ईश्वरोवाचा ll
मंत्र २ : भूत भाषन नृसिन्हमन्त्र : ॐ नमो आदेश गुरु को
,ॐ नमो जय जय नर्सिह हाथ चबाता होठ चबाता रक्त
भरा देह दौड दौड कर तीन लोक मे दुष्ट चबाता भूत प्रेत
के हाड चबाता नयन लाल लाल से आग लगाता.. जला भूत राक्षस कि
देह, देह मे लाव एन्च खेन्च के पाव के अन्गुठन से गोडा से
पिण्डी से जाण्घः से योनि से अण्ड से लिङ्ग से गुदा से
पेडु से नाभि को बचा हाथ् कन्धा गले क घण्टा हिलय हिलय के
निकाल ला कलेजे मे बेठी जात को चोट पकड के ला ..लाव
रे शेरमुखी.. जबान तक लाव बोलणे दे जो सत्य कि
वाणी भेद बताई तो सुखं पाइ… जे ना बोलवे भूत को तो सरबा
उडत आवे तेरा लङ्गोता फ़ा ड के फ़ेकेगा …बे रियन पचः पच भक्तान
प्राणं रक्ष रक्ष क्ष्रों स्वाहा देखु मेरे गुरु के शबद कि शक्ति चल
भूत बकता होय ….आदेश आदेश
मन्त्र संख्या . २ से नाक में ऊपर लिखे गए सामग्री या
घी गुग्गल से धुप दे तो भूत बोलने लगेगा जो बोलेगा सत्य
होगा साडी बात पूछ कर उसके जाने को कहे… अगर
उसकी इच्छा छोटी सी या सरल
हो तो पूरी कर के भेज दे, वापिस कभी न
आने का वचन ले कर जाने दे, अगर न माँने तो कनिस्थिका और
चोटी पकड़ कर मंत्र १ का जाप शुरू करे सरसों के तेल में
गुग्गल डाल कर धुनी लगाये नीम के पत्ते
सेंध नमक डाले… रोगी को दिखा दिखा कर सुंघा कर ५
नीम्बू १७ कील ८ पताशा
रातरानी का इत्र,५ गुलाब फूल १ कलेजी,
मधु और एक तरफ से सिकी हुइ रोटी और
थोडा घी ५२ बार उतार कर एक नयी
कची हांड़ी या मटकी में डाले…
उतारते समय मन्त्र पढ़ पढ़ कर रोगी को
पीली सरसों मारते रहे ..भुत जाने
की विनती करेगा उस से वचन ले ले
की फिर लौट के कभी न आये ..हो सके तो
उसकी मुक्ति का उपाय जान ले ..उसे हांड़ी
में आने को कह दे . भुत हांडी में आ जाये तब
हाडी थोड़ी हिल जाएगी
,हांड़ी के मुह को गंगा जल से भीगे नए
लाल कपडे से बंद कर के पीपल के पेड़ के निचे गाड कर
आ जाये ..पीछे मुड़े तो भूत वापिस आ जाएगा .
ये महा प्रयोग केवल अत्यंत घोर आत्माओ और असाद्य होने पर
ही करे, सामान्य स्थिति के लिए नहीं …
अंतिम उपाय के तौर पर काम में लेना चाहिए , पूर्ण होने पर दान प्रकृति
पुण्य कर्म करना ज़रूरी है.. तीर्थ आदि में
जाने पर उस आत्मा की मुक्ति के लिए भी
कुछ किया जाए तो आने वाले जन्मो के ऋण से भी मुक्ति
होगी,एसा फिर कभी भी
नहीं होगा… आदेश
भगवान श्री शरभेश्वर-शालुव - पक्षिराज का
चिंतामणि शाबर - मंत्र
मंत्र:—- ॐ नमो आदेश गुरु को ! चेला सुने गुरु
फ़रमाय ! सिंह दहाड़े घर में जंगल में ना जाये ,घर को फोरे ,
घर को तोरे , घर में नर को खाय !जिसने पाला उसी
का जीजा साले से घबराय ! आधा हिरना आधा घोडा
गऊ का रूप बनाय ! एकानन में दुई चुग्गा , सो
पक्षी रूप हो जाय ! चार टांग नीचे
देखूं , चार तो गगन सुहाय ! फूंक मर जल-भूंज जाय
,,काली-दुर्गा खाय ! जंघा पे बैठा यमराज
महाबली , मार के हार बनाय ! भों भों बैठे भैरू बाबा
, नाग गले लिपटाय ! एक झपट्टा मार के पक्षी ,
सिंह ले उड़ जाय ! देख देख जंगल के राजा
पक्षी से घबराय ! """'ॐ खें खां खं
फट प्राण ले लो , प्राण ले लो —-घर के लोग चिल्लाय !
ॐ शरभ -शालुव -पक्षिराजाय नम: !
मेरी भक्ति , गुरु की शक्ति , फुरो
मंत्र ईश्वरॊवाचा ! दुहाई महारुद्र की ! देख चेला
पक्षी का तमाशा स्वाहा """ !!!…..
विधान/;- यह मंत्र साधारण मंत्र नहीं ! अपितु शाबर
मंत्रो में चिंतामणि मंत्र है ! मेरे परिवार की शरभ -साधना
– परम्परा में यह मंत्र क्रियात्मक रूप से प्रचलित रहा ! कुछ
समय पूर्व मेने इस मंत्र को एक प्रसिद्ध पंचांग में भी
प्रकाशित किया था —-सर्व प्रथम ! उसके पश्चात एक पत्रिका ने
इसको पंचांग से लेकर प्रकाशित कर दिया ! अब कुछ वर्षो पूर्व
ही मेने मेरी पुस्तक "निग्रह-दारुण-
सप्तकं" में इस मंत्र को -[अन्य और भी शाबर मंत्रो
के साथ ]
प्रकाशित किया है ! ये मंत्र अत्यंत ही घोर मंत्र है !
किसी भी महापर्व में इस मंत्र का
अनुष्ठान आरम्भ करे ! श्मशान में , शिव मंदिर में , निर्जन स्थान में ,
तलघर में , शुन्यागार में ..या अपनी पूजा-कक्ष में
भी ! २१ दिन नित्य रात्रि में रुद्राक्ष की माला
पर ५ माला जप करे ! दिशा उत्तर , रक्त आसन , दीपक
प्रज्ज्वलित रहे !
चर्पटी नाथ परम्परा का अद्दभुत शाबर - मंत्र
श्री दत्त आदार्यु श्रुस्रेस्व:हुम् साबरमम अधरमम
ब्रहम निर्हरा सटी , पदम् पदाम्त्रिश
केश्वरीम ॐ भू : स्व:स्ति !!!———– इस
मंत्र को भोवल मंत्र कहते हैं ! भोवल अर्थात चक्कर आना ,,
मस्तक बधिर होना ! यह भोवल-रोग पशुओ और मनुष्य दोनों पर
ही अपना प्रभाव दिखता है ! इससे पीड़ित
प्राणी जगह जगह गोल गोल घुमने लगता है और
पागलो जेसी हरकत करने लगता है !
प्रस्तुत मंत्र स्वयं सिद्ध है ,, फिर भी
किसी महापर्व में इस मंत्र का जप अपने आराध्य-देव
के सम्मुख ..धुप-दीप प्रजव्लित करके ११ माला
की संख्या में कीजिये ! …………..
जब किसी समय इस रोग से पीड़ित
प्राणी पर इस मंत्र प्रयोग करना हो तो भस्म या शुद्ध
मिटटी अपने हाथ में लीजिये और मंत्र से
११ बार अभिमंत्रित कीजिये और रोगी पर
फेंक या उसके मस्तक पर लगा दीजिये ……मंत्र-प्रभाव
से तुरंत चमत्कार-पूर्ण लाभ होगा ! उसके पश्चात किसी
काले धागे में ११ गांठ मंत्र उचारण की साथ लगाये और
रोगी के गले में धारण करवा दे..!!! ..ये मंत्र मुझे परम्परा
से प्राप्त है … साधक जनों के लाभार्थ इसे यहाँ प्रस्तुत किया !
मंत्र शुद्ध है……..
आत्म रक्षा मंत्र एवं प्रयोग
मंत्र : तीन पैर तेरे राई मसान भूम धरती
आई धरती में से जगे जीव सांप बिच्छू
गोहेरा सर्व विद्विषो भस्म करता आवे माता पारवती
की आन है गुरु गोरखनाथ जी
की आन है सबको भस्म करता आवे माम् रक्षा कुरु
कुरुमाम रक्ष रक्ष ॐ हुम जोम सः रीम हूँ
फट !!
विधि : गोबर और कलि मिटटी से चोका बना कर उस पर
हिंगुल सिन्दूर से कालि यन्त्र बना कर सभी गुरु जन
गणेश एवं शिव जी आदि मुख्या देवताओ के ज्ञात मंत्र
5-5 पढ़े और उस पर आम की लकड़ी
बिछा दे और एक लोहे का छोटा चाकू भी रख दे …
पूर्वाभिमुख होकर अग्नि जलाये , उस अग्नि में 108 बार
घी से गुरुमंत्र की आहुति दे , फिर इस
मंत्र से 108 आहुति घी ,गूग्गुल और लाल कनेर के
फूल से दे ..
हवन के बाद अग्नि के चारो और चन्दन और उत्तम इत्र मिले जल
से चारू करे …
अग्नि शांत होने पर उसमे से चाकू निकल ले और भस्म और निर्माल्य
को बहते पानी में बहा दे। थोड़ी
सी भस्म को अपने पास रख ले / आसन कम्बल का
और तिलक चन्दन से करे …
उतने से पूर्व आसन की धुल सर पर लगा ले,धुल न हो
तो थोड़ी पहले ही रख ले …
प्रयोग : जाप आदि से पहले जहा आवश्यक हो और अन्य
कभी भी जहा भय हो तब इस चाकू से कार
कर ले …
भस्म से भय भूत आदि से ग्रस्त रोगी को खिला दे
,पानी में मिला के छिड़क दे या तिलक कर दे।।।
सभी दोष दूर होते है।।
जाप में रक्षा होती है।।।
ये अमोघ काल भैरव रक्षा विधान नागार्जुन नाथ शाबर विद्या से उद्धरित
एवं अनुभूत है
कन्या के विवाह हेतु अघोर शाबर मंत्र :
तू देख पूरब उग्ग्या सूरज देवता ॐ नमो नमः अब हम
देखा पश्चिम …मस्त चलंता मखना हाथी त्तेते सोहे
ज़र्द अम्बारी ते पर बैठी कौन
सवारी ?? ते पर बैठी पठान की
सवारी.. कोंन पठान ..कमाल खान कमाल खान मुग़ल पठान
बेठ्यो चबूतरे पढ़े कुरआन ,हज्जार काम दुनिया का करया ..एक काम
मेरो कर , न करे तो तीन लाख ३३ हज़ार पैगम्बरों
की दुहाई …तेरे को माता अन्जिनी के पूत
की दुहाई .आदेश गुरु औघड़ नाथ जी का ..
विधि : कन्या जुम्मेरात (गुरुवार) से काले हकिक या कमलगट्टे
की माला १० माला जाप मुस्लिम रीति से
(गुलाब की गंध,पश्चिमाभिमुख,सूती आसन
एकांत कक्ष ) घर के लोग तपास करे तो उत्तम रिश्ता
जल्दी से तय होगा फिर कमाल खान ,हनुमान
जी और औघड़ नाथ जी के नाम से छोटे /
अनाथ बच्चो को मिठाई रेवड़ी आदि खिलाये.
पद्मावती -मंत्र - साधन
मंत्र-:—— "'ॐ पद्मावती
पद्मंकुशी वज्र वज्रांकुशी प्रत्यक्षं भवति
!"' विधान:—– रात्रि के समय मिटटी के
दीपक में दीप प्रज्जवलित कर , रक्त -
कम्बल के आसन में बैठकर ,, उत्तरदिशा की और मुख
करके ,, पद्मावती का ध्यान करके सूतिका
की माला से १०००जप करे ——–२१ दिन तक !
आठवे दिन से ही मंत्र का प्रभाव अनुभूत होने लगेगा !
साधना काल में पवित्रता का विशेष ध्यान रखे और साधना विषय गुप्त
भी
अति -शीघ्र धन प्राप्ति हेतु एक अद्भुत मंत्र -विधान
मंत्र:——– "'ग्लोड़ प्लाड़ धिन धिन सूड धेबिसन धनचर विक्रट रहा
ब्लैंड हबताये ॐ महारुद्राय नम:"" !!!
विधान:—–यह एक कापालिक मंत्र है ! श्वेत या गुलाबी
आसन पर बैठ कर , वायव्य-कोण में मुख करके , महारुद्र भगवान
शिव का ध्यान करते हुए , कमल-बीजो की
माला से ११ माला मंत्र जप करे !
जप के पश्चात् १०८ कमल बीजो को गाय के
घी में डुबाकर १०८ बार मंत्र जप करते हुए , अग्नि में
आहुति दे नित्य क्रम में ही !
समय निश्चित रखे ,, साधना -प्रयोग का !
अत: सुबह या रात्रि …किसी एक समय ही
करे ! ११ दिन तक ये विधान करते रहे ! अनुष्ठान काल के अंतर्गत
ही
आवश्यकता पूर्ति हेतु जितना धन आवश्यक है उतने धन प्राप्ति के
किसी ना किसी अज्ञात कारण-माध्यम से
योग निर्मित होने लगते हैं ! और धन प्राप्त हो जाता है ! मंत्र कुछ
अटपटी-भाषा में है ! अत: विचार ना करे !
श्री रूद्र -भैरव मंत्र- विधान
विनियोग :- अस्य श्रीरूद्र-भैरव मंत्रस्य महामाया
सहितं श्रीमन्नारायण ऋषि: ,, सदाशिव महेश्वर-
मृत्युंजय-रुद्रो-देवता ,, विराट छन्द: ,, श्रीं
ह्रीं क्ली महा महेश्वर
बीजं ,, ह्रीं गौरी शक्ति: ,, रं
ॐकारस्य दुर्गा कीलकं ,, मम रूद्र-भैरव कृपा
प्रसाद प्राप्तत्यर्थे मंत्र जपे विनियोग: !!!
ऋषि आदि न्यास :-
ॐ महामाया सहितं श्रीमन्नारायण ऋषये
नम: शिरसि !
सदाशिव -महेश्वर -मृत्युंजयरुद्रो देवताये नम: हृदये !
विराट छन्दसे नम: मुखे !
श्रीं ह्रीं कलीम महा
महेश्वर बीजाय नम: नाभयो !
रं ॐकारस्य कीलकाय नम:गुह्ये !
मम रूद्र-भैरव कृपा प्रसाद प्राप्तत्यर्थे मंत्र जपे विनियोगाय नम:
सर्वांगे !!!
करन्यास:—-
ॐ नमो भगवते ज्वल ज्ज्वालामालिने ॐ
ह्रीं रां सर्व-शक्ति धाम्ने ईशानात्मने अंगुष्ठाभ्यां नम: !
ॐ नमो भगवते ज्वल ज्ज्वालामालिने नं रीं
नित्य -तृप्ति धाम्ने तत्पुरुषात्मने तर्जिनीभ्यां स्वाहा !
ॐ नमो भगवते ज्वल ज्ज्वालामालिने मं रुं अनादि शक्ति
धाम्ने अघोरात्मने मध्यमाभ्यां वषट !
ॐ नमो भगवते ज्वल ज्ज्वालामालिने शिं रैं स्वतंत्र -शक्ति
धाम्ने वामदेवात्मने अनामिकाभ्यां हुम् !
ॐ नमो भगवते ज्वल ज्ज्वालामालिने वां रौं अलुप्त शक्ति
धाम्ने सद्योजात्मने कनिष्ठिकाभ्यां वोषट !
ॐ नमो भगवते ज्वल ज्ज्वालामालिने ॐ यं र:
अनादि शक्ति धाम्ने सर्वात्मने करतल कर पृष्ठाभ्यां फट !!!
निर्देश:—इसी भांति हृदयादि षड अंग न्यास करे …..!
न्यास के पश्चात् "श्री रूद्र-भैरव" का ध्यान करे !
ध्यान :—वज्र दंष्ट्रम त्रिनयनं काल कंठमरिन्दम !
सहस्रकरमप्युग्रम वन्दे शम्भु उमा पतिम !!!
निर्देश:—–ध्यान के पश्चात् मानस-पूजन करे ! पश्चात् मंत्र जप
करे !
मंत्र :— –ॐ नमो भगवते रुद्राय आगच्छ आगच्छ
प्रवेश्य प्रवेश्य सर्व-शत्रुंनाशय-नाशय धनु: धनु: पर मंत्रान
आकर्षय-आकर्षय स्वाहा !!!
किसी भी साधना से पूर्व इस मंत्र विधि-
पूर्वक जप करने से साधक की अन्य साधना का फल
सुरक्षित रहता है ! यहाँ तक की अन्य
की विद्या का आकर्षण भी कर लेता है !
विधान में शब्द पाठ के अंत में जहाँ "म " आया है ,, वहां "म" में
हलंत का प्रयोग करे ! छन्द में विराट जो है ,, "ट" में
भी हलंत का प्रयोग होगा ! वषट और वोषट में
भी "ट" में हलंत का प्रयोग होगा ! वो में
बड़ी मात्रा का प्रयोग करे !
दिव्य- ज्ञान प्राप्ति हेतु दुर्लभ मंत्र - साधना
मंत्र :-श्री ॐ भूर्भुव:स्व:चिदं चिदं
भयर्स्क:आद्रम आद्रा मुर्स्व: तर्जा स्व: नम: !!! विधान:-
ब्रह्म-मुहूर्त में नित्य पूजा के उपरांत इस मंत्र का जप पूजा-
स्थान पर ही करे ११ माला ,,पूर्णिमा से पूर्णिमा तक
! ..उसके पश्चात् ११ माला किसी भी समय
एक ही दिन के लिए नीम के पेड़ के
नीचे करे ! ….इस साधना के प्रभाव से साधक को दिव्य
ज्ञान की प्राप्ति होगीं ! आश्चर्यजनक
रूप से उसको शास्त्र -तत्त्व का के मूल का ज्ञान होगा !
कठिन से कठिन विषयों का सहज ही ज्ञान होगा !
तत्पश्चात नित्य ही एक माला मंत्र का जप करते रहे !
जिससे की मंत्र – शक्ति की चेतन्यता
बनी रहे …..

देवी मंत्र द्वारा वशीकरण

वशीकरण का सामान्य और सरल अर्थ है- किसी को प्रभावित करना, आकर्षित करना या वश में करना। जीवन में ऐसे कई मोके आते हैं जब इंसान को ऐसे ही किसी उपाय की जरूरत पड़ती है। किसी रूठें हुए को मनाना हो या किसी अपने के अनियंत्रित होने पर उसे फिर से अपने नियंत्रण में लाना हो,तब ऐसे ही किसी उपाय की सहायता ली जा सकती है। वशीकरण के लिये यंत्र, तंत्र, और मंत्र तीनों ही प्रकार के प्रयोग किये जा सकते हैं। यहां हम ऐसे ही एक अचूक मंत्र का प्रयोग बता रहे हैं। यह मंत्र दुर्गा सप्तशती का अनुभव सिद्ध मंत्र है। यह मंत्र तथा कुछ निर्देश इस प्रकार हैं- 

ज्ञानिनामपि चेतांसि, देवी भगवती ही सा। बलादाकृष्य मोहाय, महामाया प्रयच्छति ।। यह एक अनुभवसिद्ध अचूक मंत्र है। इसका प्रयोग करने से पूर्व भगवती त्रिपुर सुन्दरी मां महामाया का एकाग्रता पूर्वक ध्यान करें। ध्यान के पश्चात पूर्ण श्रृद्धा-भक्ति से पंचोपचार से पूजा कर संतान भाव से मां के समक्ष अपना मनोरथ व्यक्त कर दें। वशीकरण सम्बंधी प्रयोगों में लाल रंग का विशेष महत्व होता है अत: प्रयोग के दोरान यथा सम्भव लाल रंग का ही प्रयोग करें। मंत्र का प्रयोग अधार्मिक तथा अनैतिक उद्देश्य के लिये करना सर्वथा वर्जित है।



तांत्रोत्क धूमावती मंत्र साधना.

धूम्रा मतिव सतिव पूर्णात सा सायुग्मे |
सौभाग्यदात्री सदैव करुणामयि: ||

"हे आदि शक्ति धूम्र रूपा माँ धूमावती आप पूर्णता के साथ सुमेधा और सत्य के युग्म मार्ग द्वारा साधक को सौभाग्य का दान करके सर्वदा अपनी असीम करुणा और ममता का परिचय देती हो....
आपके श्री चरणों में मेरा नमस्कार है |"

"धूम्रासपर्या कल्प पद्धति" से उद्धृत इस श्लोक से ही माँ धूमावती की असीमता और विराटता को हम सहज ही समझ
सकते हैं | बहुधा साधक जब जिज्ञासु की अवस्था में होता है तब वो भ्रांतियों का शिकार होता है,अब ऐसे में या तो वो मार्ग से भटककर पतित हो जाता है,या फिर सद्गुरु के श्री चरण कमलों का आश्रय लेकर सत्य से ना सिर्फ परिचित हो जाता है अपितु उस पर निर्बाध गति करते हुए अपने अभीष्ट लक्ष्य को भी प्राप्त कर लेता है | माँ धूमावती की साधना को जटिल और अहितकर या विनाशकारी क्यूँ मानते हैं" ?
माँ का कोई भी रूप अहितकर होता ही नहीं है ,महोदधि तन्त्र मैं कहा जाता है की देवी धूमावती महा विधा हर प्रकार की दरिद्रता नाश के लिए ,तन्त्र मंत्र , जादू टोना , बुरी नजर , भुत,प्रेत , सभी का समन के लिए भय से मुक्ति के लिए , सभी रोग शोक समाप्ति के लिए , अभय प्राप्ति के लिए , जीवन की सुरक्षा के लिए , तंत्र बांधा मुक्ति , शत्रु को जाड मूल से समाप्त करने के लिए धूमावती साधना वरदान है कलयुग में देवी धूमावती के बारे मैं कहा जाता है , यह जन्म से ले कर मृत्यु तक साधक की देख भाल करने वाली सातम महाविधा है , वेदों के काल की विवेचना से पता चलता है की महा प्रलय काल के समय ये मैजूद रहती है उन का रंग महा
प्रलय काल के बदलो जेसा ही है ,जब ब्रम्हांड की उम्र ख़त्म हो जाती है , काल समाप्त हो जाता है तो और स्वय महाकाल शिव भी अंतर्ध्यान हो जाते है ,तब भी माँ धूमावती आकेली खाड़ी रहती है,और
काल अन्तरिक्ष से परे काल की शक्ति को जताती है | उस समय न तो धरती, न ही सूरज , चाँद , सितारे , रहते है , रहता है .तो सिर्फ धुआं और राख, - वही चार्म ज्ञान है |, निराकार - न अच्छा , न बुरा , न शुद्ध , न अशुद्ध , न शुभ , न ही अशुभ धुएं के रूप में अकेली माँ धूमावती रह जाती है है , सभी उन का साथ छोड़ जाते है , एस लि
ए अल्प जानकारी रखने वाले , अशुभ मानते है l 

धूमावती रहस्य तंत्र

यही उन का रहस्य है की वो वास्तविकता को दिखाती है , सदेव कडवी ,रुखी होती है है , एस लिए अशुभ लगती है , आपने साधको को सांसरिक बन्धनों ,से आजाद करती है , सांसरिक मोह माया से मुक्ति
विरक्ति दिलाती है , जिस से यह विरक्ति का भाव उन के साधको को अन्य लोगो से अलग थलग रखता है ,एकांत वश करने को प्रेरित करती है', महाविद्याओं का कोई भी रूप...फिर वो चाहे महाकाली हों,तारा हों या कमला हों...अपने आप में पूर्ण होता है | ये सभी उसी परा शक्ति आद्यशक्ति के ही तो विभिन्न रूप हैं,जब वो स्वयं अपनी कल्पना मात्र से इस सृष्टि का सृजन,पालन और संहार कर सकती हैं तो उसी परम पूर्ण के ये महाविद्या रुपी रूप कैसे अपूर्ण होंगे | इनमे भी तो निश्चित ही वही विशिष्टता होंगी ही ना |"
महाविद्याओं के पृथक पृथक १० रूपों को उनके जिन गुणों के कारण पूजा जाता है ,वास्तव में वो उन्हें सामान्य ना होने देने की गुप्तता ही है,जो पुरातन काल से सिद्धों और साधकों की परंपरा में चलती चली आई है | जब कोई साधक गुरु के संरक्षण में पूर्ण समर्पण के साथ साधना के लिए जाता है तो परीक्षा के बाद उसे इन शक्तियों की ब्रह्माण्डीयता से परिचित कराया जाता है और तब सभी कुंजियाँ उसके हाथ में सौंप दी जाती हैं और तभी उसे ज्ञात होता है की सभी महाविद्याएं सर्व गुणों से परिपूर्ण है और वे अपने साधक को सब कुछ देने का सामर्थ्य रखती हैं अर्थात यदि माँ कमला धन प्रदान करने वाली शक्ति के रूप में साध्य हैं तो उनके कई गोपनीय रूप शत्रु मर्दन और ज्ञान से आपूरित करने वाले भी हैं | अब ये तो गुरु पर निर्भर करता है की वो कब इन तथ्यों को अपने शिष्य को सौंपता है और ये शिष्य पर है की वो अपने समर्पण से कैसे सद्गुरु के ह्रदय
को जीतकर उनसे इन कुंजियों को प्राप्त करता है |
वास्तव में सत,रज और तम गुणों से युक्त ध्यान, दिशा, वस्त्र, काल और विधि पर ही उस शक्तियों के गुण परिवर्तन की क्रिया आधारित होती है | किसी भी महाविद्या को पूर्ण रूप से सिद्ध कर लेने के लिए साधक को एक अलग ही जीवन चर्या,आहार विहार और खान-पान का आश्रय लेना पड़ता है....किन्तु जहाँ मात्र उनकी कृपा प्राप्त करनी हो तो ये नियम थोड़े सरल हो जाते हैं और ये हम सब जानते हैं की विगलित कंठ से माँ को पुकारने पर वो आती ही हैं |
माँ धूमावती के साथ भी ऐसा ही है,जन सामान्य या सामान्य साधक उन्हें मात्र अलक्ष्मी और विनाश की देवी ही मानते हैं | किन्तु जिनकी प्रज्ञा का जागरण हुआ हो वो जानते हैं की आखिर इस महाविद्या का बाह्य परिवेश यदि इतना वृद्ध बनाया गया है तो क्या वो वृद्ध दादी या नानी माँ का परिवेश उन्ही वात्सल्यता से युक्त ना होगा | धूमावती सौभाग्यदात्री कल्प एक ऐसा ही प्रयोग है जिसे मात्र धूमावती दिवस,जयंती या किसी भी रविवार को एक दिन करने पर ही ना सिर्फ जीवन में पूर्ण अनुकूलता प्राप्त हो जाती है अपितु. .शत्रुओं से मुक्ति,आर्थिक उन्नति,कार्य क्षेत्र में सफलता, प्रभावकारी व्यक्तित्व और
कुण्डलिनी जागरण जैसे लाभ भी प्राप्त होते हैं |
विनाश और संहार के कथनों से परे ये गुण भी हम इन्ही की साधना से स्पष्ट रूप से देख सकते हैं | ये साधना रात्री में ही १० बजे के बाद की जाती है | स्नान कर बगैर तौलिए से शरीर पोछे ९ या तो वैसे ही शरीर को सुखा लिया जाये या धोती के ऊपर धारण किये जाने वाले अंग वस्त्र से हलके हल्के शरीर सुखा लिया जाये और साधना के निमित्त सफ़ेद वस्त्र या बहुत हल्का पीला वस्त्र धारण कर लिया
जाये | ऊपर का अंगवस्त्र भी सफ़ेद या हल्का पीला ही होगा..धोती और अंगवस्त्र के अतिरिक्त कोई अंतर्वस्त्र प्रयोग नहीं किया जाये | साधक-साधिका दोनों के लिए यही नियम है,महिला ऊपर साडी के रंग का ही ब्लाउज पहन सकती हैं | आसन
सफ़ेद होगा.. दिशा दक्षिण होगी | गुरु व गणपति पूजन के बाद एक पृथक बाजोट पर सफ़ेद वस्त्र बिछाकर एक लोहे या स्टील के पात्र में "धूं" का अंकन काजल से करके उसके ऊपर एक सुपारी स्थापित कर दी जाए और हाथ जोड़कर निम्न ध्यान मंत्र का ११ बार उच्चारण करे –

धूम्रा मतिव सतिव पूर्णात सा सायुग्मे |
सौभाग्यदात्री सदैव करुणामयि: ||

इसके बाद उस सुपारी को माँ धूमावती का रूप मानते हुए,अक्षत,काजल,भस्म,काली मिर्च और तेल के दीपक से और उबाली हुयी उडद और फल का नैवेद्य द्वारा
उनका पूजन करे, तत्पश्चात उस पात्र के दाहिने अर्थात अपने बायीं और एक मिटटी या लोहे का छोटा पात्र स्थापित कर उसमे सफ़ेद तिलों की ढेरी बनाकर उसके ऊपर एक दूसरी सुपारी स्थापित करे,और
निम्न ध्यान मंत्र का ५ बार उच्चारण करते हुए माँ धूमावती के भैरव अघोर रूद्र का ध्यान करे –

त्रिपाद हस्त नयनं नीलांजनं चयोपमं,
शूलासि सूची हस्तं च घोर दंष्ट्राटट् हासिनम् ||

और उस सुपारी का पूजन,तिल,अक्षत,धूप-दीप तथा गुड़ से करे तथा काले तिल डालते हुए 'ॐ अघोर रुद्राय नमः' मंत्र का २१ बार उच्चारण करे | इसके बाद बाए
हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से निम्न मंत्र का ५ बार उच्चारण करते हुए पूरे शरीर पर छिडके –

धूमावती मुखं पातु धूं धूं स्वाहास्वरूपिणी |
ललाटे विजया पातु मालिनी नित्यसुन्दरी ||
कल्याणी ह्रदयपातु हसरीं नाभि देशके |
सर्वांग पातु देवेशी निष्कला भगमालिना ||
सुपुण्यं कवचं दिव्यं यः पठेदभक्ति संयुतः |
सौभाग्यमयतं प्राप्य जाते देवितुरं ययौ ||

इसके बाद जिस थाली में माँ धूमावती की स्थापना की थी,उस सुपारी को अक्षत और काली मिर्च मिलकर निम्न मंत्र की आवृत्ति ११ बार कीजिये अर्थात क्रम से हर मंत्र ११-११ बार बोलते हुए अक्षत मिश्रित काली मिर्च डालते रहे |

ॐ भद्रकाल्यै नमः
ॐ महाकाल्यै नमः
ॐ डमरूवाद्यकारिणीदेव्यै नमः
ॐ स्फारितनयनादेव्यै नमः
ॐ कटंकितहासिन्यै नमः
ॐ धूमावत्यै नमः
ॐ जगतकर्त्री नमः
ॐ शूर्पहस्तायै नमः

इसके बाद निम्न मंत्र का जप रुद्राक्ष माला से २१,५१ , १२५ माला करें, यथासंभव एक बार में ही ये जप हो सके तो अतिउत्तम,अब मंत्र जाप प्रारंभ करे.

मंत्र:-

ॐ धूं धूं धूमावत्यै फट् |

मंत्र जप के बाद मिटटी या लोहे के हवन कुंड में लकड़ी जलाकर १०८ बार घी व काली मिर्च के द्वारा आहुति डाल दें | आहुति के दौरान ही आपको आपके आस पास एक तीव्रता का अनुभव हो सकता है
और पूर्णाहुति के साथ अचानक मानो सब कुछ शांत हो जाता है...

इसके बाद आप पुनः स्नान कर ही सोने के लिए जाए और दुसरे दिन सुबह आप सभी सामग्री को बाजोट पर बीछे वस्त्र के साथ ही विसर्जित कर दें और जप माला को कम से कम २४ घंटे नमक मिश्रित जल में डुबाकर रखे और फिर साफ़ जल से धोकर और उसका पूजन कर अन्य कार्यों में प्रयोग करें | इस प्रयोग को करने पर स्वयं ही अनुभव हो जाएगा की आपने किया क्या है,कैसे परिस्थितियाँ आपके अनुकूल हो जाती है ये तो स्वयं अनुभव करने वाली
बात है....

देवी धूमावती को आज तक कोई योद्धा युद्ध में नहीं परास्त कर पाया, तभी देवी का कोई संगी नहीं हैं।



ऊँ गं गणपतये नम:

"श्री गणेश का नाम लिया तो बाधा फ़टक न पाती है,देवों का वरदान बरसता बुद्धि विमल बन जाती है"कहावत सटीक भी और खरी भी उतरती है.बिना गणेश के कोई भी काम बन ही नही सकता,चाहे कितने ही प्रयास क्यों नही किये जायें,भारत ही नही विश्व के कौने कौने मे भगवान श्री गणेश जी की मान्यता है,कोई किस रूप में पूजता है तो कोई किसी रूप में उनकी पूजा और श्रद्धा रखता है।
ऊँ

ऊँ का वास्त्विक रूप ही गणेश जी का रूप है,हिन्दू धर्म के अन्दर अक्षरों की पूजा की जाती है,अक्षर को ही मान्यता प्राप्त है,हर देवता का रूप है हिन्दी भाषा का प्रत्येक अक्षर,"अ" को सजाया गया और श्रीराम की शक्ल बन गयी,"क्रौं" को सजाया गया तो हनुमान जी का रूप बन गया,"शं" को सजाया गया तो श्रीकृष्ण का रूप बन गया,इसी तरह से मात्रा को शक्ति का रूप दिया गया,जैसे "शव" को मुर्दा का रूप तब तक माना जायेगा जब तक कि छोटी इ की मात्रा को इस पर नही चढाया जाता,छोटी की मात्रा लगाते ही "शव" रूप बदल कर और शक्ति से पूरित होकर "शिव" का रूप बन जाता है। ऊँ को उल्टा करने पर वह "अल्लाह" का रूप धारण कर लेता है.
चन्द्र बिन्दु का स्थान

ऊँ के ऊपर चन्द्र बिन्दु का स्थान चन्द्रमा की दक्षिण भुजा का रूप है,चन्द्रमा का आकार एक बिन्दु के अन्दर बताया गया है,और बिन्दु को ही श्रेष्ठ उपमा से सुशोभित किया गया है,बिन्दु का रूप उस कर्ता से है जिससे श्रष्टि का निर्माण किया है,अ उ और म के ऊपर भी शक्ति के रूप में चन्द्र बिन्दु का रूपण केवल इस भाव से किया गया है कि अ से अज यानी ब्रह्मा,उ से उदार यानी विष्णु और म से मकार यानी शिवजी का भी आस्तित्व तभी सुरक्षित है जब वे तीनो शक्ति रूपी चन्द्र बिन्दु से आच्छादित है।
ब्रह्म-विद्या है श्रीगणेश जी आराधना में

ब्रह्म विद्या को जाने बिना कोई भी विद्या मे पारंगत नही हो पाता है,तालू और नाक के स्वर से जो शक्ति का निरूपण अक्षर के अन्दर किया जाता है वही ब्रह्मविद्या का रूप है। बीजाक्षरों को पढते समय बिन्दु का प्रक्षेपण करने से वह ब्रह्मविद्या का रूप बन जाता है.ब्रह्मविद्या का नियमित उच्चारण अगर एक मंदबुद्धि से भी करवाया जाये तो वह भी विद्या में उसी तरह से पारंगत हो जाता है जैसे महाकवि कालिदास जी विद्या में पारंगत हुये थे।
गणेशजी के नाम के साथ ब्रह्मविद्या का उच्चारण

ऊँ गं गणपतये नम: का जाप करते वक्त "गं" अक्षर मे सम्पूर्ण ब्रह्मविद्या का निरूपण हो जाता है,गं बीजाक्षर को लगातार जपने से तालू के अन्दर और नाक के अन्दर जमा मल का विनास होता है और बुद्धि की ओर ले जाने वाली शिरायें और धमनियां अपना रास्ता मस्तिष्क की तरफ़ खोल देतीं है,आंख नाक कान और ग्रहण करने वाली शिरायें अपना काम करना शुरु कर देतीं है और बुद्धि का विकास होने लगता है.
ब्रह्म विद्या का उच्चारण ही सर्व गणपति की आराधना है

अं आं इं ईं उं ऊं ऋं लृं एं ऐं ओं औं अं अ: कं खं गं घं डं. चं छं जं झं यं टं ठं डं णं तं थं दं धं नं पं फ़ं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं त्रं ज्ञं,ब्रह्म विद्या कही गयी है। उल्टा सीधा जाप करना अनुलोम विलोम विद्या का विकास करना कहा जाता है,लेकिन इस विद्या को गणेश की शक्ल में या ऊँ के रूप को ध्यान में रख कर करने से इस विद्या का विकास होता चला जाता है।



रुद्र - सूक्तम्

नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतोतऽ इषवे नम : 

बाहुभ्यामुत
ते नम : ॥१॥

हे रुद्र । आपको नमस्कार है , आपके क्रोध
को नमस्कार है , आपके वाण को नमस्कार है और
आपकी भुजाओं को नमस्कार है ।

या ते रुद्र शिवा तनूरघोरापापकाशिनी ।
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्तभिचाकशीहि ॥
२॥

हे गिरिशन्त अर्थात् पर्वत पर स्थित होकर सुख
का विस्तार करने वाले रुद्र । 

आप हमें अपनी उस
मङ्गलमयी मूर्ति द्वारा अवलोकन करें
जो सौम्य होने के कारण केवल पुण्यों का फल
प्रदान करने वाली है ।

यामिषुङ्गिरिशन्त हस्ते विभर्ष्यस्तवे ।
शिवाङ्गिरित्र तां कुरु मा हि सी :
पुरुषञ्जगत् ॥३॥

हे गिरिशन्त । हे गिरित्र अर्थात् पर्वत पर
स्थित होकर त्राण करने वाले । आप प्रलय करने
के लिए जिस बाण को हाथ में धारण करते हैं उसे
सौम्य कर दें और जगत् के जीवों की हिंसा न
करें ।

शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छावदामसि ।
यथा न : सर्वमिज्जगदयक्ष्म सुमनाऽ असत् ॥४॥

हे गिरिश । हम आपको प्राप्त करने के लिए
मंगलमय स्तोत्र से आपकी प्रार्थना करते हैं ।
जिससे हमारे यह सम्पूर्ण जगत् रोग रहित एवं
प्रसन्न हो ।

अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् ।
अहींश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च
यातुधान्योधराची : परासुव ॥५॥

शास्त्र सम्मत बोलने वाले , देव हितकारी ,
परमरोग नाशक , प्रथम पूज्य रुद्र हमें श्रेष्ठ कहें
और सर्पादिका विनाश करते हुए
सभी अधोगामिनी राक्षसियों आदि को भी हमसे
दूर करें ।

असौ यस्ताम्रोऽ अरुणऽ उत बब्भ्रु : सुमङ्गल : ।
ये चैन रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिता :
सहस्त्रशो वैषा हेडऽ ईमहे ॥६॥

ये जो ताम्र , अरुण और पिङ्ग वर्ण वाले मंगलमय
सूर्य रूप रुद्र हैं और जिनके चारों ओर जो ये
सहस्त्रों किरणों रूप रुद्र हैं , हम
भक्ति द्वारा उनके क्रोध का निवारण करते हैं

असौ योवसर्पति नीलग्रीवो विलोहित : ।
उतैनं गोपाऽ अदृश्रन्नदृश्रन्नुदहार्य :
सदृष्टो मृडयाति न : ॥७॥

ये जो विशेष रक्तवर्ण सूर्य रूप नीलकण्ठ रुद्र
गतिमान हैं , जिन्हें गोप देखते हैं , जल
वाहिकाएं देखती हैं वह हमारे देखे जाने पर
हमारा मङ्गल करें ।

नमोस्तु नीलग्रीवाय सहस्त्राक्षाय मीढुषे ।
अथो येऽ अस्य सत्त्वानोहन्तेभ्यो करन्नम : ॥८॥

सेचनकारी सहस्त्रों नेत्रों वाले पर्जन्य रूप
नीलकण्ठ रूद्र को हमारा नमस्कार है और इनके
जो अनुचार है उन्हें भी हमारा नमस्कार है ।

प्रमुञ्च धन्वनस्त्वमुभयोरात्क्रर्योर्ज्याम् ।
याश्च ते हस्तऽ इषव : पराता भगवो व्वप ॥९॥

हे भगवन् । आपके धनुष की कोटियों के मध्य यह
जो ज्या है उसे आप खोल दें और आपके हाथ में ये
जो वाण हैं उन्हें आप हटा दें और इस प्रकार
हमारे लिए सौम्य हो जांयँ ।

विज्यन्धनु : कपर्दिनो विशल्यो वाणवाँ २॥
ऽउत।
अनेशन्नस्य याऽ इषवऽ आभुरस्य निषङ्गधि : ॥
१०॥

जटाधारी रूद्र का धनुष ज्यारहित , तूणीर
फलकहीन वाणरहित , वाण दर्शन रहित और
म्यान खंगरहित हो जाय अर्थात् ये सौम्य
हो जाएं ।

या ते हेतिर्म्मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनु : ।
तयास्मान्विश्वतस्त्वमयक्ष्मया परिभुज ॥११॥

हे संतृप्त करने वाले रुद्र । आपके हाथ में जो आयुध
है और आपका जो धनुष है उपद्रव रहित उस आयुध
या धनुष द्वारा आप हमारी सब ओर से
रक्षा करें ।

परिते धन्विनो हेतिरस्मान्वृणक्तु विश्वत : ।
अथो यऽ इषुधिस्तवारेऽ अस्मन्निधेहि तम् ॥१२॥

आप धनुर्धारी का यह जो आयुध है वह
हमारी रक्षा करने के लिए हमें चारों ओर से घेरे
रहे किन्तु यह जो आपका तरकस है उसे आप हमसे
दूर रखें ।

अवतत्त्यधनुष्ट्व सहस्त्राक्ष शतेषुधे ।
निशीर्य्य शल्यानाम्मुखा शिवो न :
सुमना भव ॥१३॥

हे सहस्त्रों नेत्रों वाले , सैकडों तरकस वाले रुद्र
। आप अपने धनुष को ज्या रहित और वामों के
मुखों को फलक रहित करके हमारे लिए सुप्रसन्न
एवं कल्याणमय हो जांयँ ।

नमस्त ऽआयुधायानातताय धृष्णवे ।
उभाभ्यामुत ते नमो बाहुभ्यान्तव धन्नवने ॥१४॥

हे रुद्र । धनुष पर न चढाये गये आपके वाण
को नमस्कार है , आपकी दोनों भुजाओं
को नमस्कार है एवं शत्रु - संहारक आपके धनुष
को नमस्कार है ।

मा नो महान्तमुत मा नोऽ अर्ब्भकम्मा न
उक्षन्तमुत मा नऽ उक्षितम् ।
मा नो व्वधी : पितरम्मोत मातरम्मा न :
प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिष : ॥१५॥

हे रुद्र हमारे बडों को मत मारो । हमारे
बच्चों को मत मारो । हमारे तरुणों को मत
मारो । हमारे भ्रूणों को मत मारो । हमारे
पिताओं की हिंसा न करो ।
हमारी माताओं की हिंसा न करो ।

मानस्तोके तनये मा नऽ आयुषि मा नो गोषु
मा नोऽ अश्वेषु रीरिष : ।
मा नो वीरान्नरुद्र
भामिनो वधीर्हविष्मन्त :
सदमित्त्वा हवामहे ॥१६॥

हे रुद्र । हमारे पुत्रों पर और हमारे पौत्रों पर
क्रोध न करें । हमारी गायों पर और हमारे
घोडों पर क्रोध न करें । हमारे क्रोधयुक्त
वीरों को न मारें । हम हविष्य लिए हुए
निरन्तर यज्ञार्थ आपका आवाहन करते है।
 हर हर माहादेव बम बम


"वक्रतुण्ड महाकाय , सूर्यकोटि समप्रभ ! निर्विघ्नं कुरु मे देव , सर्व कार्येषु सर्वदा" !! लक्ष्मी से युक्त श्रीनृसिंह भगवान् , महागणपति एवं श्रीगुरु (श्रीनृसिंहाश्रम ) को में नमस्कार कर ता हुँ। वनं समाश्रिता येपि निर्ममा निष्परिग्रहा: अपिते परिपृच्छन्ति ज्योतिषां गति कोविदम ॥ • जो सर्वस्व त्यागकर वनों में जा चुके हैं, ऐसे राग-द्वेष शुन्य,निष्परिग्रह ऋषि भी अपना भविष्य जानने को उत्सुक रहते हैं, तब साधारण मानव की तो बात ही क्या है ? आइये जाने,समझे एवं प्रयोग करें.हमारे ऋषि मुनियों द्वारा प्रदत्त उस ज्योतिषीय ज्ञान को.जिसका कोई विकल्प नहीं हें. इस ज्योतिष विद्या के द्वारा आप और हम सभी... भविष्य में होने वाले अच्छे-बुरे घटना क्रम को जान सकते हें. उपाय. कर सकते हें.. पूजा पाठ,मन्त्र जाप जेसे उपायों द्वारा उस अशुभ घटना को टालने का प्रयास कर सकते हें ज्योतिष क्यों प्रकृति में आकस्मिक कुछ नहीं होता है। सब एक निशि्चत प्रक्रिया के अनुसार होता है । प्रारब्ध अर्थात् भाग्य और पुरूशार्थ भाब्द अलग-अलग दिखते है । जबकि इनका प्रयोग कर्मों के संदर्भ में ही किया जाता है । प्रारब्ध उन कर्मों का संचित रूप है , जिसके कारण शरीर मिला जबकि पुरूशार्थ का अर्थ है क्रीयमाण कर्म। पहली स्थिति धनुश से छुट चुकी तीर के समान है , जबकि दुसरी स्थिति में तीर को अभी धनुश पर चढ़ाया गया है । इस प्रकार जो मिल रहा है वह वर्तमान है और जो मिलेगा वह भविश्य है -वह कर्म फल है। कर्म से उत्पन्न होने वाला अदृष्ट जितना कठोर होता है । उतना ही जल्दी फल देता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य विवश होकर कर्म फल के प्रवाह को मोड़ने की स्थिति में नहीं रहता परंतु अगर अदृश्ट वेगरहित व तरल है तो उसे मोड़ने की संभावना रहती है। वैसे तो ग्रहों की अशुभता से उत्पन्न बुरा प्रभाव अर्थात् अनिष्ट दो प्रकार का होता है। प्रथम तो किसी भाव में बैठा हुआ ग्रह जब उस भाव का फल दे रहा होता है, तब वह अनिष्ट उपायों, टोटकों एवं सदाचरणों से उपचार साध्य हो जाता है, परन्तु जब वह ग्रह स्वयं अपना फल देता है, तब वह अनिष्ट उपचार साध्य नहीं होता है। वेद का छठा अंग ज्योतिष है , सूर्य-चंद्रमा ही पिता और माता है । वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिये शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष- इन ६ अंगों के ग्रन्थ हैं। प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक- ये ६ उपांग ग्रन्थ भी उपलब्ध है। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद- ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं। विज्ञान जहां समाप्त होता है, वहां से ज्योतिष शुरू होता है, यह वेद सम्मत विज्ञान है। ज्योतिष लोगों को अंधविश्वास की ओर नहीं ले जाता, बल्कि लोगों को जागरूक करता है। ज्योतिष समय का विज्ञान है, इसमें तिथि, वार, नक्षत्र, योग और कर्म इन पांच चीजों का अध्ययन कर भविष्य में होने वाली घटनाओं की जानकारी दी जाती है। यह किसी जाति या धर्म को नहीं मानता। वेद भगवान भी ज्योतिष के बिना नहीं चलते। वेद के छः अंग हैं, जिसमें छठा अंग ज्योतिष है। हमने पूर्व जन्म में क्या किया और वर्तमान में क्या कर रहे हैं, इसके आधार पर भविष्य में क्या परिणाम हो सकते हैं, इसकी जानकारी ज्योतिष के द्वारा दी जाती है। ग्रहों से ही सब कुछ संचालित होते हैं। इसी से ऋतुएं भी बनती हैं। सूर्य पृथ्वी से दूर गया तो ठंड का मौसम आ गया और पास आने पर गर्मी बढ़ गई। सूर्य आत्मा के रूप में विराजमान हैं, परिवार में इसे पिता का स्थान प्राप्त है। इसी तरह चंद्रमा मन पर विराजमान रहता है, परिवार में इसे मां का दर्जा प्राप्त है। इसलिए जिस व्यक्ति ने मां-पिता का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया समझो वह सूर्य और चंद्रमा का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया। मंगल शरीर की ऊर्जा है, शरीर में पर्याप्त ऊर्जा है तो आपकी सक्रियता दिखेगी। जिस व्यक्ति के मन में ईर्ष्या नहीं है समझिए, उसका बुध मजबूत है, उसे बुध का आर्शीवाद प्राप्त है। इसी तरह शुक्र परिवार में पत्नी की तरह और शरीर में शुक्राणु के रूप में मौजूद रहता है। जिस व्यक्ति का स्नायु तंत्र कमजोर है, नसें कमजोर हैं, स्पाईन का दर्द है समझो उसके ऊपर शनिदेव का प्रकोप है।........... .......






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