आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र (प्रशासनिक सेवा)
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भारतीय काल गणना
भारत में देश-काल की गणना कई प्रकार की थी तथा बहुत सूक्ष्म थी। आज भी काल का अर्थ तथा उसकी माप रहस्यमय है। भारत में ४ प्रकार के काल, ९ प्रकार के कालमान तथा ७ प्रकार के युग हैं। देश की माप के लिये ७ प्रकार के योजन थे तथा आकाश के लोकों की माप में जो शुद्धता थी वह अभी तक नहीं हो पायी है। मात्रा की माप भी थी, जिसका आकाश के सम्बन्ध में उल्लेख है। इसके अतिरिक्त कई सूक्ष्म माप भी हैं। काल माप में अवधि की माप तथा क्रमागत कालगणना की तथा युग चक्रों की गणना थी। यहां मुख्यतः कालगणना की सभी विधियां वर्णित की जायेंगी।
१. काल की परिभाषा
दर्शनों में काल की कई परिभाषा दी गयी हैं। उनका सारांश है- परिवर्तन का आभास काल है।
किसी वस्तु या विश्व को पुरुष कहते हैं-जिसके दो अर्थ हैं। पूरा विश्व चेतन पदार्थ है, तथा सभी अंग एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। इस अर्थ में एक ही ब्रह्म है।
पुरुष को ४ रूपों में देखते हैं-१. क्षर पुरुष- बाह्य भौतिक रूप का हमेशा क्षरण होता रहता है।
२. अक्षर पुरुष-सर्वदा बदलने पर भी किसी वस्तु का नाम, कर्म रूप में अदृश्य (कूटस्थ) परिचय वही रहता है। वह क्षर पुरुष है।
३. अव्यय पुरुष-किसी संहति के अंश रूप में पुरुष में कोई परिवर्तन नहीं होता, एक भाग में जितना कम होता है, दूसरे भाग में वह बढ़ जाता है। इसे अव्यय पुरुष कहते हैं।
४. परात्पर पुरुष-बहुत सूक्ष्म या बहुत बड़े स्तर का अनुभव नहीं होता या वर्णन नहीं हो सकता। यह परात्पर पुरुष है।
गीता, अध्याय १५-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१६॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१७॥
अजोऽपि अन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। (गीता ४/६)
इनके काल हैं-नित्य, जन्य, अक्षय, परात्पर।
नित्य काल सदा लोकों (व्यक्ति या विश्व) का क्षरण करता है। एक बार जो स्थिति चली गयी, वह वापस नहीं आती। बच्चा बूढ़ा हो सकता है, वापस बच्चा नहीं हो सकता। अतः इस काल को मृत्यु भी कहते हैं। इसकी गणना नहीं होती।
जन्य काल-परिवर्तन सदा एक ही दिशा में होता है पर कुछ प्राकृतिक घटना प्रायः चक्रीय क्रम में होती हैं, जैसे दिन-रात, मास, वर्ष। इनके मान में भी सूक्ष्म अन्तर होता है, पर व्यवहार में इनको स्थिर मान लेते हैं। प्रायः इसी के समान चक्रों में हमारा यज्ञ चलता है। जैसे कृषि यज्ञ वार्षिक ऋतु चक्र में होता है। मूल यज्ञ यही है जिसके लिये गीता में कहा है कि यज्ञ से पर्जन्य और पर्जन्य से अन्न होता है।
इसी के अनुरूप ज्ञान यज्ञ (विद्यालय सत्र), द्रव्य यज्ञ (वित्त वर्ष) आदि भी वार्षिक चक्र में होते हैं। इन चक्रों से तुलना कर समय अवधि की माप होती है। जैसे वर्ष, मास, दिन या उसके अंश रूप घण्टा, मिनट, सेकण्ड की माप। यज उत्पादन (जनन) चक्र की माप है, अतः इसे जन्य काल कहते हैं। इसकी माप और गणना होती है, अतः इसे कलनात्मक काल कहते हैं। इसमें अन्य गणनाओं की तुलना में एक कठिनाई है। यान्त्रिक गति दर्शक के अनुसार बदलती रहती है। पर प्रकाश की गति सदा एक जैसी रहती है। हम दोनों को एक ही मान कर गणना करते हैं जो सही नहीं है, पर हमारे पास इसके समाधान का उपाय नहीं है। अतः भगवान् ने गीता में अपने को गणनाओं में काल कहा है (सबसे रहस्यमय गणना)।
अक्षय काल-अव्यय पुरुष या पूर्ण संहति को देखें तो कोई परिवर्तन नहीं होता। कुछ चीजें मिलकर नया रूप बनाती हैं, कुछ पुनः नष्ट हो जाती हैं। इनको सांख्य में सञ्चर-प्रतिसञ्चर या वेद में सम्भूति-विनाश कहा है। इसी चक्र में संसार चल रहा है अतः इसे धाता और विश्वतोमुख कहा है।
परात्पर काल-बहुत सूक्ष्म या बहुत बड़े स्तर का अनुभव मशीन द्वारा भी नहीं हो सकता। उसमें भी कुछ परिवर्तन होता है। वह परात्पर काल है। इसका कोई वर्णन नहीं है। बाकी के कुछ सन्दर्भ दिये जाते हैं।
कालोऽस्मि लोक क्षयकृत्प्रवृद्धो, लोकान् समाहर्तुमिहप्रवृत्तः। । (गीता १०/३२)
कालः कलयतामहम् । (गीता १०/३०), अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः (गीता १०/३३)
सांख्य तत्त्व समास, ६-सञ्चरः प्रतिसञ्चरः।
ईशावास्योपनिषद्, १४-सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह, विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते॥
सूर्य सिद्धान्त (१/१०) में २ प्रकार के काल कहे गये हैं-अन्तकृत् या नित्य काल, कलनात्मक या जन्य।
लोकानामन्तकृत् कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः। स द्विधा स्थूल सूक्ष्मत्वात् मूर्तश्चामूर्त उच्यते॥१०॥
काल का वर्णन भागवत पुराण, स्कन्ध ३, अध्याय ११ तथा अथर्ववेद, शौनक शाखा, काण्ड १९, सूक्त ५३, ५४ में है।
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