Thursday, January 31, 2019

*#कुंभ_मेले का संक्षिप्त इतिहास:*



*#कुंभ_मेले का संक्षिप्त इतिहास:* कुंभ मेले की शुरुआत किसने और कब की:-

देखा जाए तो कुंभ मेले का इतिहास काफी पुराना है. भारत में यह मेला बहुत अनूठा है जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान करते हैं. इसका अपना ही धार्मिक महत्व है और यह संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है. यह मेला लगभग 48 दिनों तक चलता है. मुख्य रूप से दुनिया भर से साधू, संत, तपस्वी, तीर्थयात्री, इत्यादि भक्त इसमें भाग लेते हैं. परन्तु क्या आप कुंभ का अर्थ जानते हैं, इसे क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे का इतिहास क्या है, किसने कुंभ मेले की शुरुआत की इत्यादि आइये लेख के माध्यम से अध्ययन करते हैं.

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है. कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है. ये स्थान हैं: उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज. आपको बता दें कि इस वर्ष कुंभ मेला 15 जनवरी, 2019 को प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में शुरू हुआ है और 4 मार्च, 2019 तक चलेगा. इससे पहले 2003-04 में नासिक - त्र्यंबकेश्वर में कुंभ मेला आयोजित किया गया था.

कुंभ मेले का इतिहास 
कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है. कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था. मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'सभा' या 'मिलना'.

इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है परन्तु इसके बारे में जो प्राचीनतम वर्णन मिलता है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है. पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी. आइये समुद्र मंथन से जुड़ी हुई इस खानी के बारे में अध्ययन करते हैं.

कुंभ मेले का संक्षिप्त इतिहास: कुंभ मेले की शुरुआत किसने और कब की

देखा जाए तो कुंभ मेले का इतिहास काफी पुराना है. भारत में यह मेला बहुत अनूठा है जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान करते हैं. इसका अपना ही धार्मिक महत्व है और यह संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है. यह मेला लगभग 48 दिनों तक चलता है. मुख्य रूप से दुनिया भर से साधू, संत, तपस्वी, तीर्थयात्री, इत्यादि भक्त इसमें भाग लेते हैं. परन्तु क्या आप कुंभ का अर्थ जानते हैं, इसे क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे का इतिहास क्या है, किसने कुंभ मेले की शुरुआत की इत्यादि आइये लेख के माध्यम से अध्ययन करते हैं.

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है. कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है. ये स्थान हैं: उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज. आपको बता दें कि इस वर्ष कुंभ मेला 15 जनवरी, 2019 को प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में शुरू हुआ है और 4 मार्च, 2019 तक चलेगा. इससे पहले 2003-04 में नासिक - त्र्यंबकेश्वर में कुंभ मेला आयोजित किया गया था.

कुंभ मेले का इतिहास 
कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है. कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था. मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'सभा' या 'मिलना'.

इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है परन्तु इसके बारे में जो प्राचीनतम वर्णन मिलता है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है. पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी. आइये समुद्र मंथन से जुड़ी हुई इस खानी के बारे में अध्ययन करते हैं.

ऐसा कहा जाता है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षस ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था. ऐसे में सब देवता मिलकर विष्णु भगवान के पास गए और सारा व्रतांत सुनाया. तब भगवान ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा. ये दूधसागर ब्रह्मांड के आकाशीय क्षेत्र में स

्थित है. सारे देवता भगवान विष्णु जी के कहने पर दैत्यों से संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए. जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गया. इस पर गुरु शंकराचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और राक्षसों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चला रहा. ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध के दौरान प्रथ्वी के चार स्थानों पर अमृत कलश की कुछ बूंदे गिरी थी. जिनमें से पहली बूंद प्रयाग में, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी बूंद उज्जैन और चौथी नासिक में गिरी थी. इसीलिए इन्हीं चार जगहों पर कुम्ब मेले का आयोजन किया जाता है. यहीं आपको बता दें की देवताओं के 12 दिन, पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं. इसलिए हर 12 साल में महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है.

कुंभ मेले का संक्षिप्त इतिहास: कुंभ मेले की शुरुआत किसने और कब की

देखा जाए तो कुंभ मेले का इतिहास काफी पुराना है. भारत में यह मेला बहुत अनूठा है जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान करते हैं. इसका अपना ही धार्मिक महत्व है और यह संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है. यह मेला लगभग 48 दिनों तक चलता है. मुख्य रूप से दुनिया भर से साधू, संत, तपस्वी, तीर्थयात्री, इत्यादि भक्त इसमें भाग लेते हैं. परन्तु क्या आप कुंभ का अर्थ जानते हैं, इसे क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे का इतिहास क्या है, किसने कुंभ मेले की शुरुआत की इत्यादि आइये लेख के माध्यम से अध्ययन करते हैं.

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है. कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है. ये स्थान हैं: उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज. आपको बता दें कि इस वर्ष कुंभ मेला 15 जनवरी, 2019 को प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में शुरू हुआ है और 4 मार्च, 2019 तक चलेगा. इससे पहले 2003-04 में नासिक - त्र्यंबकेश्वर में कुंभ मेला आयोजित किया गया था.

कुंभ मेले का इतिहास 
कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है. कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था. मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'सभा' या 'मिलना'.

इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है परन्तु इसके बारे में जो प्राचीनतम वर्णन मिलता है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है. पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी. आइये समुद्र मंथन से जुड़ी हुई इस खानी के बारे में अध्ययन करते हैं.

ऐसा कहा जाता है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षस ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था. ऐसे में सब देवता मिलकर विष्णु भगवान के पास गए और सारा व्रतांत सुनाया. तब भगवान ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा. ये दूधसागर ब्रह्मांड के आकाशीय क्षेत्र में स्थित है. सारे देवता भगवान विष्णु जी के कहने पर दैत्यों से संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए. जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गया. इस पर गुरु शंकराचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और राक्षसों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चला रहा. ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध के दौरान प्रथ्वी के चार स्थानों पर अमृत कलश की कुछ बूंदे गिरी थी. जिनमें से पहली बूंद प्रयाग में, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी बूंद उज्जैन और चौथी नासिक में गिरी थी. इसीलिए इन्हीं चार जगहों पर कुम्ब मेले का आयोजन किया जाता है. यहीं आपको बता दें की देवताओं के 12 दिन, पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं. इसलिए हर 12 साल में महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है.

जानें समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्न कौन से थे

क्या आप जानते हैं कि दूध सागर के मंथन से एक घातक ज़हर भी उत्पन्न हुआ जिसे भगवान शिव ने बिना प्रभावित हुए पी लिया था.

अब जानते हैं कि कुंभ के आयोजन की तिथि कैसे निर्धारित की जाती है?

किस स्थान पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाएगा यह राशियों पर निर्भर करता है. कुंभ मेले में सूर्य और ब्रहस्पति का खास योगदान माना जाता है. जब सूर्य एवं ब्रहस्पति एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तभी कुंभ मेले को मनाया जाता है और इसी आधार पर स्थान ओत तिथि निर्धारित की जाती है.

- जब ब्रहस्पति वर्षभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है.

- जब सूर्य मेष राशि और ब्रहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है.

- जब सूर्य और ब्रहस्पति का सिंह राशि में प्रवेश होता है तब यह महाकुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है.

- जब ब्रहस्पति सिंह राशि में और सूर्य देव राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है. यहीं आपको बता दें कि जब सूर्य देव सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, इसी कारण उजैन, मध्यप्रदेश में जो कुंभ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं.

कुंभ में कौन से ग्रह महत्वपूर्ण माने जाते हैं?

सारे नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है. जब अमृत कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चल रहा था तब कलश की खींचा तानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया, गुरु ने कलश को छुपाया था, सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की. इसीलिए ही तो जब इन ज्र्हों का योग संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है.

हर तीसरे वर्ष कुंभ का आयोजन होता है. गुरु ग्रह एक राशि में एक साल तक रहता है और हर राशि में जाने में लगभग 12 वर्षों का समय लग जाता है. इसीलिए हर 12 साल बाद उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन किया जाता है. निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीन साल में कुंभ लगता है. प्रयाग का कुंभ के लिए आशिक महत्व है. 144 वर्ष बाद यहां पर महाकुंभ का आयोजन होता है.

कुंभ मेले का संक्षिप्त *#इतिहास:* कुंभ मेले की शुरुआत किसने और कब की

देखा जाए तो कुंभ मेले का इतिहास काफी पुराना है. भारत में यह मेला बहुत अनूठा है जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान करते हैं. इसका अपना ही धार्मिक महत्व है और यह संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है. यह मेला लगभग 48 दिनों तक चलता है. मुख्य रूप से दुनिया भर से साधू, संत, तपस्वी, तीर्थयात्री, इत्यादि भक्त इसमें भाग लेते हैं. परन्तु क्या आप कुंभ का अर्थ जानते हैं, इसे क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे का इतिहास क्या है, किसने कुंभ मेले की शुरुआत की इत्यादि आइये लेख के माध्यम से अध्ययन करते हैं.

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है. कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है. ये स्थान हैं: उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज. आपको बता दें कि इस वर्ष कुंभ मेला 15 जनवरी, 2019 को प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में शुरू हुआ है और 4 मार्च, 2019 तक चलेगा. इससे पहले 2003-04 में नासिक - त्र्यंबकेश्वर में कुंभ मेला आयोजित किया गया था.

*#कुंभ_मेले_का_इतिहास* 
कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है. कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था. मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'सभा' या 'मिलना'.

इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है परन्तु इसके बारे में जो प्राचीनतम वर्णन मिलता है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है. पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी. आइये समुद्र मंथन से जुड़ी हुई इस खानी के बारे में अध्ययन करते हैं.

ऐसा कहा जाता है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षस ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था. ऐसे में सब देवता मिलकर विष्णु भगवान के पास गए और सारा व्रतांत सुनाया. तब भगवान ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा. ये दूधसागर ब्रह्मांड के आकाशीय क्षेत्र में स्थित है. सारे देवता भगवान विष्णु जी के कहने पर दैत्यों से संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए. जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गया. इस पर गुरु शंकराचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया
और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और राक्षसों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चला रहा. ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध के दौरान प्रथ्वी के चार स्थानों पर अमृत कलश की कुछ बूंदे गिरी थी. जिनमें से पहली बूंद प्रयाग में, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी बूंद उज्जैन और चौथी नासिक में गिरी थी. इसीलिए इन्हीं चार जगहों पर कुम्ब मेले का आयोजन किया जाता है. यहीं आपको बता दें की देवताओं के 12 दिन, पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं. इसलिए हर 12 साल में महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है.

अब जानते हैं कि कुंभ के *#आयोजन_की_तिथि कैसे निर्धारित की जाती है?*

किस स्थान पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाएगा यह राशियों पर निर्भर करता है. कुंभ मेले में सूर्य और ब्रहस्पति का खास योगदान माना जाता है. जब सूर्य एवं ब्रहस्पति एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तभी कुंभ मेले को मनाया जाता है और इसी आधार पर स्थान ओत तिथि निर्धारित की जाती है.

- जब ब्रहस्पति वर्षभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है.

- जब सूर्य मेष राशि और ब्रहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है.

- जब सूर्य और ब्रहस्पति का सिंह राशि में प्रवेश होता है तब यह महाकुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है.

- जब ब्रहस्पति सिंह राशि में और सूर्य देव राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है. यहीं आपको बता दें कि जब सूर्य देव सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, इसी कारण उजैन, मध्यप्रदेश में जो कुंभ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं.

*#कुंभ_में_कौन_से_ग्रह_महत्वपूर्ण माने जाते हैं?*

सारे नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है. जब अमृत कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चल रहा था तब कलश की खींचा तानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया, गुरु ने कलश को छुपाया था, सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की. इसीलिए ही तो जब इन ज्र्हों का योग संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है.

हर तीसरे वर्ष कुंभ का आयोजन होता है. गुरु ग्रह एक राशि में एक साल तक रहता है और हर राशि में जाने में लगभग 12 वर्षों का समय लग जाता है. इसीलिए हर 12 साल बाद उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन किया जाता है. निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीन साल में कुंभ लगता है. प्रयाग का कुंभ के लिए आशिक महत्व है. 144 वर्ष बाद यहां पर महाकुंभ का आयोजन होता है.

*#कुंभ_मेलों_के_प्रकार*
महाकुंभ मेला: यह केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह प्रत्येक 144 वर्षों में या 12 पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है.

*#पूर्ण_कुंभ मेला:* यह हर 12 साल में आता है. मुख्य रूप से भारत में 4 कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं. यह हर 12 साल में इन 4 स्थानों पर बारी-बारी आता है.

*#अर्ध_कुंभ मेला:* इसका अर्थ है आधा कुंभ मेला जो भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज.

*#कुंभ_मेला:* चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा आयोजित किया जाता है. लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं.

*#माघ_कुंभ मेला:* इसे मिनी कुंभ मेले के रूप में भी जाना जाता है जो प्रतिवर्ष और केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ के महीने में आयोजित किया जाता है.

कुंभ मेले के बारे में कुछ रोचक तथ्य

कुंभ मेले का संक्षिप्त इतिहास: कुंभ मेले की शुरुआत किसने और कब की

देखा जाए तो कुंभ मेले का इतिहास काफी पुराना है. भारत में यह मेला बहुत अनूठा है जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान करते हैं. इसका अपना ही धार्मिक महत्व है और यह संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है. यह मेला लगभग 48 दिनों तक चलता है. मुख्य रूप से दुनिया भर से साधू, संत, तपस्वी, तीर्थयात्री, इत्यादि भक्त इसमें भाग लेते हैं. परन्तु क्या आप कुंभ का अर्थ जानते हैं, इसे क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे का इतिहास क्या है, किसने कुंभ मेले की शुरुआत की इत्यादि आइये लेख के माध्यम से अध्ययन करते हैं.

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है. कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है. ये स्थान हैं: उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज. आपको बता दें कि इस वर्ष कुंभ मेला 15 जनवरी, 2019 को प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में शु

रू हुआ है और 4 मार्च, 2019 तक चलेगा. इससे पहले 2003-04 में नासिक - त्र्यंबकेश्वर में कुंभ मेला आयोजित किया गया था.

कुंभ मेले का इतिहास 
कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है. कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था. मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'सभा' या 'मिलना'.

इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है परन्तु इसके बारे में जो प्राचीनतम वर्णन मिलता है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है. पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी. आइये समुद्र मंथन से जुड़ी हुई इस खानी के बारे में अध्ययन करते हैं.

ऐसा कहा जाता है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षस ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था. ऐसे में सब देवता मिलकर विष्णु भगवान के पास गए और सारा व्रतांत सुनाया. तब भगवान ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा. ये दूधसागर ब्रह्मांड के आकाशीय क्षेत्र में स्थित है. सारे देवता भगवान विष्णु जी के कहने पर दैत्यों से संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए. जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गया. इस पर गुरु शंकराचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और राक्षसों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चला रहा. ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध के दौरान प्रथ्वी के चार स्थानों पर अमृत कलश की कुछ बूंदे गिरी थी. जिनमें से पहली बूंद प्रयाग में, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी बूंद उज्जैन और चौथी नासिक में गिरी थी. इसीलिए इन्हीं चार जगहों पर कुम्ब मेले का आयोजन किया जाता है. यहीं आपको बता दें की देवताओं के 12 दिन, पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं. इसलिए हर 12 साल में महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है.

जानें समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्न कौन से थे

क्या आप जानते हैं कि दूध सागर के मंथन से एक घातक ज़हर भी उत्पन्न हुआ जिसे भगवान शिव ने बिना प्रभावित हुए पी लिया था.

अब जानते हैं कि कुंभ के आयोजन की तिथि कैसे निर्धारित की जाती है?

किस स्थान पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाएगा यह राशियों पर निर्भर करता है. कुंभ मेले में सूर्य और ब्रहस्पति का खास योगदान माना जाता है. जब सूर्य एवं ब्रहस्पति एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तभी कुंभ मेले को मनाया जाता है और इसी आधार पर स्थान ओत तिथि निर्धारित की जाती है.

- जब ब्रहस्पति वर्षभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है.

- जब सूर्य मेष राशि और ब्रहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है.

- जब सूर्य और ब्रहस्पति का सिंह राशि में प्रवेश होता है तब यह महाकुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है.

- जब ब्रहस्पति सिंह राशि में और सूर्य देव राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है. यहीं आपको बता दें कि जब सूर्य देव सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, इसी कारण उजैन, मध्यप्रदेश में जो कुंभ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं.

कुंभ में कौन से ग्रह महत्वपूर्ण माने जाते हैं?

सारे नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है. जब अमृत कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चल रहा था तब कलश की खींचा तानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया, गुरु ने कलश को छुपाया था, सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की. इसीलिए ही तो जब इन ज्र्हों का योग संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है.

हर तीसरे वर्ष कुंभ का आयोजन होता है. गुरु ग्रह एक राशि में एक साल तक रहता है और हर राशि में जाने में लगभग 12 वर्षों का समय लग जाता है. इसीलिए हर 12 साल बाद उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन किया जाता है. निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीन साल में कुंभ लगता है. प्रयाग का कुंभ के लिए आशिक महत्व है. 144 वर्ष बाद यहां पर महाकुंभ का आयोजन होता है.

कुंभ मेलों के प्रकार
महाकुंभ मेला: यह केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह प्रत्येक 144 वर्षों में या 12 पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है.

पूर्ण कुंभ मेला: यह हर 12 साल में आता है. मुख्य रूप से भारत में 4 कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं. यह हर 12 साल में इन 4 स्थानों पर बारी-बारी आता है.

अर्ध कुंभ मेला: इसका अर्थ है आधा कुंभ मेला जो भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज.

कुंभ मेला: चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा आयोजित किया जाता है. लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं.

माघ कुंभ मेला: इसे मिनी कुंभ मेले के रूप में भी जाना जाता है जो प्रतिवर्ष और केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ के महीने में आयोजित किया जाता है.

कुंभ मेले के बारे में कुछ रोचक तथ्य

- कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक सम्मेलन है जिसे "धार्मिक तीर्थयात्रियों की दुनिया की सबसे बड़ी मंडली" के रूप में भी जाना जाता है.

- कुंभ मेले का पहला लिखित प्रमाण भागवत पुराण में उल्लिखित है. कुंभ मेले का एक अन्य लिखित प्रमाण चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (या Xuanzang) के कार्यों में उल्लिखित है, जो हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान 629-645 ईस्वी में भारत आया था. साथ ही, समुंद्र मंथन के बारे में भागवत पुराण, विष्णु पुराण, महाभारत और रामायण में भी उल्लेख किया गया है.

- चार शहरों में से प्रयागराज, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन, प्रयागराज में आयोजित कुंभ मेला सबसे पुराना है.

- स्नान के साथ कुंभ मेले में अन्य गतिविधियां भी होती हैं, प्रवचन, कीर्तन और महा प्रसाद.

- इसमें कोई संदेह नहीं कि कुंभ मेला कमाई का भी एक प्रमुख अस्थायी स्रोत है जो कई लोगों को रोजगार देता है.

- कुंभ मेले में, पहले स्नान का नेतृत्व संतों द्वारा किया जाता है, जिसे कुंभ के शाही स्नान के रूप में जाना जाता है और यह सुबह 3 बजे शुरू होता है. संतों के शाही स्नान के बाद आम लोगों को पवित्र नदी में स्नान करने की अनुमति मिलती है.

- हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि जो इन पवित्र नदियों के जल में डुबकी लगाते हैं, वे अनंत काल तक धन्य हो जाते हैं. यही नहीं, वे पाप मुक्त भी हो जाते हैं और उन्हें मुक्ति के मार्ग की ओर ले जाता है.

- दुनिया की सबसे बड़ी सभा कुंभ मेले को यूनेस्को की प्रतिनिधि सूची 'मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत' में शामिल किया गया है.

- कुंभ मेला उन तिथियों पर लगता है जब अमृत पवित्र कलश से इन नदीयों में गिरा था. हर साल, तिथियों की गणना बृहस्पति, सूर्य और चंद्रमा की राशि के पदों के संयोजन के अनुसार की जाती है.

- कुंभ का अर्थ है 'अमृत' कलश से. कुंभ मेला की कहानी उस समय की है जब देवता पृथ्वी पर निवास करते थे. वे ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण कमजोर हो गए थे और राक्षस पृथ्वी पर तबाही मचा रहे थे.

तो अब आप जान गए होंगे कि कुंभ मेले का आयोजन कब,कहां और कैसे किया जाता है.

योगविद्या

योगविद्या में दिलचस्पी लेने वाले लोग केवल भारत में ही नहीं किन्तु विदेशों में भी मिलते है । इनमें से कुछ उच्च कोटि की जिज्ञासा से प्रेरित होकर भारत आते हैं तो कुछ उन्हीं देशों में रहकर साधना-पथ पर आगे बढते हैं । अपनी रुचि व प्रकृति के अनुसार उन्हें पथप्रदर्शक की प्राप्ति भी होती है । परंतु कोई ऐसा भी जिज्ञासु साधक होता हैं जिसे पथप्रदर्शक नहीं मिलता और वह अकेला ही इसमें प्रयोग करता रहता है ।

अमेरिका के एक ऐसे ही प्रयोगवीर को भारत के योगदर्शन के अध्ययन के पश्चात प्रश्न पैदा हुआ। 

वे योग-ग्रंथो में मूलाधार चक्र में स्थित सर्पाकार कुंडलिनी शक्ति का वर्णन आता है और विभिन्न चक्रों का उल्लेख मिलता है तो वह कुंडलिनी शक्ति और चक्र शरीर में निहित हैं या उनका गलत वर्णन किया गया है ? अगर हैं तो उनका दर्शन शरीर के भीतर होना ही चाहिए । नहीं तो वह वर्णन केवल मनमानी रीति से, बिना किसी सबूत के किया गया मानना चाहिए ।

बस फिर क्या था? प्रयोगवीर कोई साधारण मनुष्य नहीं, पर डॉक्टर था । उन्होंने अपनी जिज्ञासावृति को तुष्ट करने का दृढ संकल्प किया । उस संकल्प की पूर्ति के लिए उन्होंने विचित्र प्रकार की प्रवृति शुरु की । आपको शायद इसकी कल्पना भी न हों ऐसी प्रवृति वे करने लगे । वे मृत शरीर को प्राप्त कर चीरने लगे ।

समग्र शरीर को चीर डाला पर जो प्राप्तव्य था वह न मिला । न तो चक्र दिखाई दिया, न कुंडलिनी के दर्शन हुए । फिर भी वे हताश न हुए । वैसी ही अदम्य जिज्ञासा व उत्साह से उन्होंने कई मुर्दो कों चीर दिया ।

इतने प्रयत्नों के बावजूद भी जब चक्र या कुण्डलिनी का अनुभव न हुआ तब उन्हें धीरज न रहा । योग के ग्रंथो से उनका विश्वास उठ गया और वे जहाँ तहाँ और हर किसी को कहते फिरते की भारतीय योगग्रंथ जूठे हैं । उनमें मिथ्या वर्णनों की भरमार है ।

परंतु जिसके दिल में सत्य के साक्षात्कार की सच्ची लगन लगी हो उसे ईश्वर एक या दूसरे रूप से शीघ्र या देरी से सहायता अवश्य करता है । यह एक अनिवार्य सत्य है ।

उन्हीं दिनों भारत के एक प्रतिभासंपन्न अनुभवी व महान योगी स्वामी योगानंद अमरिका के दौरे पर आए। इस दौरान वे अमरिकन डोक्टर से योगानंदजी की भेंट हुई । डोक्टर ने बात ही बात में अपनी योगमार्ग की अ-श्रद्धा व्यक्त की । चक्र व कुंडलिनी यह सब गलत है - ऐसा कहकर अपने प्रयोगों का इतिहास कहा ।

योगानंदजी ने कहा, 'योग के ग्रंथो की बात गलत नहीं है पर आपकी प्रयोग करने की पद्धति गलत है इसलिए आपको निराशा हुई है । यदि उचित पथप्रदर्शन उपलब्ध कर सच्ची दिशा में यत्न करोगे तो ग्रंथो में कहे गये अनुभवों का तुम्हें अहेसास अवश्य होगा । कुंडलिनी, चक्र, आत्मा – ये सब सूक्ष्म पदार्थ है अतएव हजारों मुर्दों को चीरने पर भी इन्हें नहीं देख सकोगे (हार्डवेयर नही सॉफ्टवेयर है)।

उनकी अनुभूति के लिए तो भीतरी साधना – अंतरंग साधना का आधार लेना पडेगा ।'

डोक्टर की इच्छानुसार योगानंदजी ने उन्हें योगदीक्षा दी और साधना का अभ्यासक्रम दिखाया । इसी साधना के फलस्वरूप दीर्घ समय के बाद उन्हें चक्र व कुंडलिनी का अनुभव हुआ । तब उन्हें पता चला कि योग की ये सब बातें सच है । फिर तो आगे चलकर उन्होंने अपनी निजी अनुभूति के आधार पर कुंडलिनी विषय पर 'द सर्पेंट पॉवर' नामक किताब लिखी ।

हां वे ARTHUR AVELON थे।

योग या साधना की शास्त्रीय बातों को बिना किसी वैयक्तिक अनुभूति या अनुभूति के लिए आवश्यक अखंड अभ्यास के बिना मिथ्या मानने और मनानेवाले लोग इस घटना से कुछ सबक लेंगे क्या ? उनके लिए और दूसरे सबके लिए यह घटना बोधपाठ के समान है ।

हरि ॐ

त्रिपुंड और तिलक किसे कहते है

त्रिपुंड और तिलक किसे कहते है तथा किस दिन किस का तिलक लगये और इस में कौन कौन देवता निवास करते है !!
✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡
ललाट अर्थात माथे पर भस्म या चंदन से तीन रेखाएं बनाई जाती हैं उसे त्रिपुंड कहते हैं। भस्म या चंदन को हाथों की बीच की तीन अंगुलियों से लेकर सावधानीपूर्वक माथे पर तीन तिरछी रेखाओं जैसा आकार दिया जाता है। 

शैव संप्रदाय के लोग इसे धारण करते हैं। शिवमहापुराण के अनुसार त्रिपुंड की तीन रेखाओं में से हर एक में नौ-नौ देवता निवास करते हैं।

त्रिपुंड के देवताओ के नाम इस प्रकार हैं-
✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡
1- अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति, प्रात:स्वन तथा महादेव- ये त्रिपुंड की पहली रेखा के नौ देवता हैं।

2- ऊंकार, दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्वगुण, यजुर्वेद, मध्यंदिनसवन, इच्छाशक्ति, अंतरात्मा और महेश्वर- ये त्रिपुंड की दूसरी रेखा के नौ देवता हैं।

3- मकार, आहवनीय अग्नि, परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीयसवन तथा शिव- ये त्रिपुंड की तीसरी रेखा के नौ देवता हैं।

त्रिपुंड का मंत्र-ॐ त्रिलोकिनाथाय नम:

तिलक के प्रकार :
✡✡✡✡✡✡
तिलक कई प्रकार के होते हैं - मृतिका, भस्म, चंदन, रोली, सिंदूर, गोपी आदि। 

सनातन धर्म में शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं। 

चंदन का तिलक लगाने से पापों का नाश होता है, व्यक्ति संकटों से बचता है, उस पर लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहती है, ज्ञानतंतु संयमित व सक्रिय रहते हैं।

चन्दन के प्रकार✡  हरि चंदन, गोपी चंदन, सफेद चंदन, लाल चंदन, गोमती और गोकुल चंदन।
 
किस दिन किस का तिलक लगाये :
 ✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡✡
सोमवार : सोमवार का दिन भगवान शंकर का दिन होता है तथा इस वार का स्वामी ग्रह चंद्रमा हैं। चंद्रमा मन का कारक ग्रह माना गया है। मन को काबू में रखकर मस्तिष्क को शीतल और शांत बनाए रखने के लिए आप सफेद चंदन का तिलक लगाएं। इस दिन विभूति या भस्म भी लगा सकते हैं।

मंगलवार :  मंगलवार को हनुमानजी का दिन माना गया है। इस दिन का स्वामी ग्रह मंगल है। मंगल लाल रंग का प्रतिनिधित्व करता है। इस दिन लाल चंदन या चमेली के तेल में घुला हुआ सिंदूर का तिलक लगाने से ऊर्जा और कार्यक्षमता में विकास होता है। इससे मन की उदासी और निराशा हट जाती है और दिन शुभ बनता है।

बुधवार :  बुधवार को जहां मां दुर्गा का दिन माना गया है वहीं यह भगवान गणेश का दिन भी है।इस दिन का ग्रह स्वामी है बुध ग्रह। इस दिन सूखे सिंदूर (जिसमें कोई तेल न मिला हो) का तिलक लगाना चाहिए। इस तिलक से बौद्धिक क्षमता तेज होती है और दिन शुभ रहता है।

गुरुवार :  गुरुवार को बृहस्पतिवार भी कहा जाता है। बृहस्पति ऋषि देवताओं के गुरु हैं। इस दिन के खास देवता हैं ब्रह्मा। इस दिन का स्वामी ग्रह है बृहस्पति ग्रह।गुरु को पीला या सफेद मिश्रित पीला रंग प्रिय है। इस दिन सफेद चन्दन की लकड़ी को पत्थर पर घिसकर उसमें केसर मिलाकर लेप को माथे पर लगाना चाहिए या टीका लगाना चाहिए। हल्दी या गोरोचन का तिलक भी लगा सकते हैं। इससे मन में पवित्र और सकारात्मक विचार तथा अच्छे भावों का उद्भव होगा जिससे दिन भी शुभ रहेगा और आर्थिक परेशानी का हल भी निकलेगा। 

शुक्रवार : शुक्रवार का दिन भगवान विष्णु की पत्नी लक्ष्मीजी का रहता है। इस दिन का ग्रह स्वामी शुक्र ग्रह है।हालांकि इस ग्रह को दैत्यराज भी कहा जाता है। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य थे। इस दिन लाल चंदन लगाने से जहां तनाव दूर रहता है वहीं इससे भौतिक सुख-सुविधाओं में भी वृद्धि होती है। इस दिन सिंदूर भी लगा सकते हैं।

शनिवार :  शनिवार को भैरव, शनि और यमराज का दिन माना जाता है। इस दिन के ग्रह स्वामी है शनि ग्रह। शनिवार के दिन विभूत, भस्म या लाल चंदन लगाना चाहिए जिससे भैरव महाराज प्रसन्न रहते हैं और किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं होने देते। दिन शुभ रहता है।

रविवार :   रविवार का दिन भगवान विष्णु और सूर्य का दिन रहता है। इस दिन के ग्रह स्वामी है सूर्य ग्रह जो ग्रहों के राजा हैं। इस दिन लाल चंदन या हरि चंदन लगाएं। भगवान विष्णु की कृपा रहने से जहां मान-सम्मान बढ़ता है वहीं निर्भयता आती है।

तिलक लगाने का मन्त्र 
✡✡✡✡✡✡✡✡
केशवानन्न्त गोविन्द बाराह पुरुषोत्तम ।
पुण्यं यशस्यमायुष्यं तिलकं मे प्रसीदतु ।।
कान्ति लक्ष्मीं धृतिं सौख्यं सौभाग्यमतुलं बलम् ।
ददातु चन्दनं नित्यं सततं धारयाम्यहम् ..

संस्कृत के व्याकरण ग्रन्थ और उनके रचयिता ( व्याकरण के दार्शनिक विवेचन आदि ग्रन्थ)

संस्कृत के व्याकरण ग्रन्थ और उनके रचयिता
( व्याकरण के दार्शनिक विवेचन आदि ग्रन्थ) 
🍃🍁🍃🍁🍃🍁🍃🍁🍃🍁🍃🍁🍃
०१) संग्रह -- व्याडि (लगभग ई. पू. ४०० ; ०२) अष्टाध्यायी -- पाणिनि ।
०३) महाभाष्य -- पतञ्जलि ।
०४) वाक्यपदीय -- भर्तृहरि (लगभग ई. ५००, व्याकरणदर्शन का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ)।
०५) त्रिपादी (या, महाभाष्यदीपिका) -- भर्तृहरि (महाभाष्य की टीका) ।
०६) काशिकावृत्ति -- जयादित्य तथा वामन (छठी शती) ।
०७) वार्तिक -- कात्यायन ।
०८) प्रदीप -- कैयट ।
०९) सूक्तिरत्नाकर -- शेषनारायण ।
१०) भट्टिकाव्य (या, रावणवध) -- भट्टि (सातवीं शती) ।
११) चांद्रव्याकरण -- चंद्रगोमिन् ।
१२) कच्चान व्याकरण -- कच्चान (पालि का प्राचीनतम उपलब्ध व्याकरण)।
१३) मुखमत्तदीपनी -- विमलबुद्धि (कच्चान व्याकरण की टीका तथा न्यास, ११ वीं सदी)।
१४) काशिकाविवरणपंजिका (या, न्यास) -- जिनेंद्रबुद्धि (लगभग ६५० ई., काशिकावृत्ति की टीका) ।
१५) शब्दानुशासन -- हेमचन्द्राचार्य ।
१६) पदमंजरी -- हरदत्त (ई. १२००, काशिकावृत्ति की टीका) ।
१७) सारस्वतप्रक्रिया -- स्वरूपाचार्य अनुभूति ।
१८) भागवृत्ति (अनुपलब्ध, काशिका की पद्धति पर लिखित)।
१९) भाषावृत्ति -- पुरुषोत्तमदेव (ग्यारहवीं शताब्दी) ।
२०)सिद्धान्तकौमुदी -- भट्टोजि दीक्षित (प्रक्रियाकौमुदी पर आधारित) ।
२१) प्रौढमनोरमा -- भट्टोजि दीक्षित (स्वरचित सिद्धान्तकौमुदी की टीका) ।
२२) वैयाकरणभूषणकारिका -- भट्टोजि दीक्षित ।
२३) शब्दकौस्तुभ -- भट्टोजि दीक्षित (ई. १६००, पाणिनीय सूत्रों की अष्टाध्यायी क्रम से एक अपूर्ण व्याख्या) ।
२४) बालमनोरोरमा -- वासुदेव दीक्षित (सिद्धान्तकौमुदी की टीका) ।
२५) रूपावतार -- धर्मकीर्ति (ग्यारहवीं शताब्दी) ।
२६) मुग्धबोध -- वोपदेव ।
२७) प्रक्रियाकौमुदी -- रामचंद्र (ई. १४००)। २८) मध्यसिद्धान्तकौमुदी -- वरदराज ।
२९) लघुसिद्धान्तकौमुदी -- वरदराज ।
३०) सारसिद्धान्तकौमुदी -- वरदराज ।
३१) प्रक्रियासर्वस्व -- नारायण भट्ट (सोलहवीं शताब्दी) ।
३२) प्रसाद -- विट्ठल ।
३३) प्रक्रियाप्रकाश -- शेषकृष्ण ।
३४) तत्वबोधिनी -- ज्ञानेन्द्र सरस्वती (सिद्धांतकौमुदी की टीका) ।
३५) शब्दरत्न -- हरि दीक्षित (प्रौढमनोरमा की टीका) ।
३६) मनोरमाकुचमर्दन -- जगन्नाथ पण्डितराज (भट्टोजि दीक्षित के "प्रौढ़मनोरमा" नामक व्याकरण के टीकाग्रंथ का खंडन) ।
३७) स्वोपज्ञवृत्ति -- (वाक्यपदीय की टीका)।
३८) वैयाकरणभूषणसार -- कौण्डभट्ट (ई. १६००) ।
३९) वैयाकरणसिद्धान्तमंजूषा -- नागेश भट्ट (व्याकरणदर्शनग्रंथ) ।
४०) परिभाषेन्दुशेखर -- नागेश भट्ट (इस यशस्वी ग्रंथ पर अनेक टीकाएँ उपलब्ध हैं।)। ४१) लघुशब्देन्दुशेखर -- नागेश भट्ट (सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या) ।
४२) बृहच्छब्देन्दुशेखर -- नागेश भट्ट । (सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या)
४३) शब्देन्दुशेखर -- नागेश भट्ट ।
४४) वैयाकरणसिद्धान्तलघुमंजूषा -- नागेश भट्ट ।
४५) वैयाकरणसिद्धान्तपरमलघुमंजूषा -- नागेश भट्ट ।
४६) महाभाष्य-प्रत्याख्यान-संग्रह -- नागेश भट्ट ।
४७) उद्योत -- नागेश भट्ट (पतंजलिकृत महाभाष्य पर टीकाग्रंथ) ।
४८) स्फोटवाद -- नागेश भट्ट ।
४९) स्फोटचंद्रिका -- कृष्णभट्टमौनि ।
५०) स्फोटसिद्धि -- भरतमिश्र ।
५१) परिभाषावृत्ति -- सीरदेव ।
५२) परिभाषावृत्ति -- पुरुषोत्तमदेव ।
५३) परिभाषाप्रकाश -- विष्णुशेष ।
५४) गदा -- परिभाषेंदुशेखर की टीका ।
५५) भैरवी -- परिभाषेंदुशेखर की टीका ।
५६) भावार्थदीपिका -- परिभाषेंदुशेखर की टीका ।
५७) हरिनामामृतव्याकरण -- जीव गोस्वामी । ५८) परिमल -- अमरचन्द ।
🍃🍃🍁🍃🍃🍁🍃🍃🍁🍃🍃🍁🍃🍃🍁🍃🍃

श्री रामचरित मानस के सिद्ध 'मन्त्र'!!!!!!!

श्री रामचरित मानस के सिद्ध 'मन्त्र'!!!!!!!
〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰
संत गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के नाम से आज कौन परिचित नहीं है। जिस तरह गुलाब का फूल बारहमासी होता है तथा हर क्षेत्र, हर रंग में पाया जाता है, उसी तरह रामचरितमानस का पाठ भी हर घर में आनन्द और उत्साहपूर्वक होता है।विद्वान साहित्यकार भी अपने आलेखॊं में मानस की पंक्तियों का उल्लेख कर अपनी बात को प्रमाणित करते हैं।

 तात्पर्य यह कि इसके द्वारा सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक सभी समस्याओं का समाधान सम्भव है। इस प्रकार रामचरितमानस विश्व का अनमोल ग्रंथ है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

रामचरित मानस एहिनामा,सुनत श्रवन पाइअ विश्रामा॥ 
शोधकर्ताओं के लिए रामचरितमानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें अनेक रत्न भरे पडे हैं तथा इसका अध्ययन-मंथन सदा नूतन लगता है। जितनी बार इसे पढा़ जाय, उतनी ही बार नई-नई रहस्यपूर्ण बातों का ज्ञान होता है। अनेक विद्वानों एवं साहित्यकारों ने इस महान ग्रंथ को अपने शोध का विषय बनाकर पीएच.डी. एवं डी.लिट. की उपाधियां प्राप्त की हैं, कर रहे हैं तथा करते रहेंगे।

रामचरितमानस के हर पद में महाकवि तुलसीदास के चिंतन, विचारों, अनुभवों के अमृतकण सूक्तियों के रूप में बिखरे हैं। विभिन्न भावों से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण सूक्तियां नीचे प्रस्तुत हैं--

नियम- मानस के दोहे-चौपाईयों को सिद्ध करने का विधान यह है कि किसी भी शुभ दिन की रात्रि को दस बजे के बाद अष्टांग हवन के द्वारा मन्त्र सिद्ध करना चाहिये। फिर जिस कार्य के लिये मन्त्र-जप की आवश्यकता हो, उसके लिये नित्य जप करना चाहिये। वाराणसी में भगवान् शंकरजी ने मानस की चौपाइयों को मन्त्र-शक्ति प्रदान की है-इसलिये वाराणसी की ओर मुख करके शंकरजी को साक्षी बनाकर श्रद्धा से जप करना चाहिये।

अष्टांग हवन सामग्री ,,,,,,,
१॰ चन्दन का बुरादा, २॰ तिल, ३॰ शुद्ध घी, ४॰ चीनी, ५॰ अगर, ६॰ तगर, ७॰ कपूर, ८॰ शुद्ध केसर, ९॰ नागरमोथा, १०॰ पञ्चमेवा, ११॰ जौ और १२॰ चावल।

जानने की बातें- जिस उद्देश्य के लिये जो चौपाई, दोहा या सोरठा जप करना बताया गया है, उसको सिद्ध करने के लिये एक दिन हवन की सामग्री से उसके द्वारा (चौपाई, दोहा या सोरठा) १०८ बार हवन करना चाहिये। यह हवन केवल एक दिन करना है। मामूली शुद्ध मिट्टी की वेदी बनाकर उस पर अग्नि रखकर उसमें आहुति दे देनी चाहिये। प्रत्येक आहुति में चौपाई आदि के अन्त में 'स्वाहा' बोल देना चाहिये।

प्रत्येक आहुति लगभग पौन तोले की (सब चीजें मिलाकर) होनी चाहिये। इस हिसाब से १०८ आहुति के लिये एक सेर (८० तोला) सामग्री बना लेनी चाहिये। 

कोई चीज कम-ज्यादा हो तो कोई आपत्ति नहीं। पञ्चमेवा में पिश्ता, बादाम, किशमिश (द्राक्षा), अखरोट और काजू ले सकते हैं। इनमें से कोई चीज न मिले तो उसके बदले नौजा या मिश्री मिला सकते हैं। केसर शुद्ध ४ आने भर ही डालने से काम चल जायेगा।

हवन करते समय माला रखने की आवश्यकता १०८ की संख्या गिनने के लिये है। बैठने के लिये आसन ऊन का या कुश का होना चाहिये। सूती कपड़े का हो तो वह धोया हुआ पवित्र होना चाहिये।

मन्त्र सिद्ध करने के लिये यदि लंकाकाण्ड की चौपाई या दोहा हो तो उसे शनिवार को हवन करके करना चाहिये। दूसरे काण्डों के चौपाई-दोहे किसी भी दिन हवन करके सिद्ध किये जा सकते हैं।

सिद्ध की हुई रक्षा-रेखा की चौपाई एक बार बोलकर जहाँ बैठे हों, वहाँ अपने आसन के चारों ओर चौकोर रेखा जल या कोयले से खींच लेनी चाहिये। फिर उस चौपाई को भी ऊपर लिखे अनुसार १०८ आहुतियाँ देकर सिद्ध करना चाहिये। रक्षा-रेखा न भी खींची जाये तो भी आपत्ति नहीं है। दूसरे काम के लिये दूसरा मन्त्र सिद्ध करना हो तो उसके लिये अलग हवन करके करना होगा।

एक दिन हवन करने से वह मन्त्र सिद्ध हो गया। इसके बाद जब तक कार्य सफल न हो, तब तक उस मन्त्र (चौपाई, दोहा) आदि का प्रतिदिन कम-से-कम १०८ बार प्रातःकाल या रात्रि को, जब सुविधा हो, जप करते रहना चाहिये।
कोई दो-तीन कार्यों के लिये दो-तीन चौपाइयों का अनुष्ठान एक साथ करना चाहें तो कर सकते हैं। पर उन चौपाइयों को पहले अलग-अलग हवन करके सिद्ध कर लेना चाहिये।

१॰ विपत्ति-नाश के लिये
"राजिव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।"

२॰ संकट-नाश के लिये
"जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।"

३॰ कठिन क्लेश नाश के लिये
"हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥"

४॰ विघ्न शांति के लिये
"सकल विघ्न व्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥"

५॰ खेद नाश के लिये
"जब तें राम ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥"

६॰ चिन्ता की समाप्ति के लिये
"जय रघुवंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥"

७॰ विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति के लिये
"दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥"

८॰ मस्तिष्क की पीड़ा दूर करने के लिये
"हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।"

९॰ विष नाश के लिये
"नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।"

१०॰ अकाल मृत्यु निवारण के लिये
"नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।"

११॰ सभी तरह की आपत्ति के विनाश के लिये / भूत भगाने के लिये
"प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।
जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥"

१२॰ नजर झाड़ने के लिये
"स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।"

१३॰ खोयी हुई वस्तु पुनः प्राप्त करने के लिए
"गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।"

१४॰ जीविका प्राप्ति केलिये
"बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।"

१५॰ दरिद्रता मिटाने के लिये
"अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद धन दारिद दवारि के।।"

१६॰ लक्ष्मी प्राप्ति के लिये
"जिमि सरिता सागर महुँ जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।"

१७॰ पुत्र प्राप्ति के लिये
"प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।'

१८॰ सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये
"जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।"

१९॰ ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिये
"साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।"

२०॰ सर्व-सुख-प्राप्ति के लिये
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।

२१॰ मनोरथ-सिद्धि के लिये
"भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।"

२२॰ कुशल-क्षेम के लिये
"भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।"

२३॰ मुकदमा जीतने के लिये
"पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।"

२४॰ शत्रु के सामने जाने के लिये
"कर सारंग साजि कटि भाथा। अरिदल दलन चले रघुनाथा॥"

२५॰ शत्रु को मित्र बनाने के लिये
"गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।"

२६॰ शत्रुतानाश के लिये
"बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥"

२७॰ वार्तालाप में सफ़लता के लिये
"तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥"

२८॰ विवाह के लिये
"तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥"

२९॰ यात्रा सफ़ल होने के लिये
"प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥"

३०॰ परीक्षा / शिक्षा की सफ़लता के लिये
"जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥"

३१॰ आकर्षण के लिये
"जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥"

३२॰ स्नान से पुण्य-लाभ के लिये
"सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।"

३३॰ निन्दा की निवृत्ति के लिये
"राम कृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।

३४॰ विद्या प्राप्ति के लिये
गुरु गृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई॥

३५॰ उत्सव होने के लिये
"सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।"

३६॰ यज्ञोपवीत धारण करके उसे सुरक्षित रखने के लिये
"जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।"

३७॰ प्रेम बढाने के लिये
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥

३८॰ कातर की रक्षा के लिये
"मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहिं अवसर सहाय सोइ होऊ।।"

३९॰ भगवत्स्मरण करते हुए आराम से मरने के लिये
रामचरन दृढ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग ।
सुमन माल जिमि कंठ तें गिरत न जानइ नाग ॥

४०॰ विचार शुद्ध करने के लिये
"ताके जुग पद कमल मनाउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।"

४१॰ संशय-निवृत्ति के लिये
"राम कथा सुंदर करतारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी।।"

४२॰ ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के लिये
" अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।"

४३॰ विरक्ति के लिये
"भरत चरित करि नेमु तुलसी जे सादर सुनहिं।
सीय राम पद प्रेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।"

४४॰ ज्ञान-प्राप्ति के लिये
"छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।"

४५॰ भक्ति की प्राप्ति के लिये
"भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपासिंधु सुखधाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।"

४६॰ श्रीहनुमान् जी को प्रसन्न करने के लिये
"सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।"

४७॰ मोक्ष-प्राप्ति के लिये
"सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। काल सर्प जनु चले सपच्छा।।"

४८॰ श्री सीताराम के दर्शन के लिये
"नील सरोरुह नील मनि नील नीलधर श्याम ।
लाजहि तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥"

४९॰ श्रीजानकीजी के दर्शन के लिये
"जनकसुता जगजननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।"

५०॰ श्रीरामचन्द्रजी को वश में करने के लिये
"केहरि कटि पट पीतधर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।"

५१॰ सहज स्वरुप दर्शन के लिये
"भगत बछल प्रभु कृपा निधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।।"
〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰

भगवान शिव और माता सती के विवाह की कथा!!!!!!

भगवान शिव और माता सती के विवाह की कथा!!!!!!

दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थी। सभी पुत्रियां गुणवती थीं। फिर भी दक्ष के मन में संतोष नहीं था। वे चाहते थे उनके घर में एक ऐसी पुत्री का जन्म हो, जो सर्व शक्तिसंपन्न हो एवं सर्व विजयिनी हो। जिसके कारण दक्ष एक ऐसी हि पुत्री के लिए तप करने लगे। तप करतेकरते अधिक दिन बीत गए, तो भगवती आद्या ने प्रकट होकर कहा, मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं। तुम किस कारण वश तप कर रहे हों?

 दक्ष नें तप करने का कारण बताय तो मां बोली मैं स्वय पुत्री रूप में तुम्हारे यहां जन्म धारण करूंगी। मेरा नाम होगा सती। मैं सती के रूप में जन्म लेकर अपनी लीलाओं का विस्तार करूंगी। फलतः भगवती आद्या ने सती रूप में दक्ष के यहां जन्म लिया। सती दक्ष की सभी पुत्रियों में सबसे अलौकिक थीं। 

सतीने बाल्य अवस्था में ही कई ऐसे अलौकिक आश्चर्य चलित करने वाले कार्य कर दिखाए थे, जिन्हें देखकर स्वयं दक्ष को भी विस्मयता होती रहती थी। जब सती विवाह योग्य होगई, तो दक्ष को उनके लिए वर की चिंता होने लगी। उन्होंने ब्रह्मा जी से इस विषय में परामर्श किया। ब्रह्मा जी ने कहा, सती आद्या का अवतार हैं। आद्या आदि शक्ति और शिव आदि पुरुष हैं। 

 अतः सती के विवाह के लिए शिव ही योग्य और उचित वर हैं। दक्ष ने ब्रह्मा जी की बात मानकर सती का विवाह भगवान शिव के साथ कर दिया। सती कैलाश में जाकर भगवान शिव के साथ रहने लगीं। भगवान शिव के दक्ष के दामाद थे, किंतु एक ऐसी घटना घटीत होगई जिसके कारण दक्ष के ह्रदय में भगवान शिव के प्रति बैर और विरोध भाव पैदा हो गया। 

 एक बार देवलोक में ब्रह्मा ने धर्म के निरूपण के लिए एक सभा का आयोजन किया था। सभी बड़ेबड़े देवता सभा में एकत्र होगये थे। भगवान शिव भी इस सभा में बैठे थे। सभा मण्डल में दक्ष का आगमन हुआ। दक्ष के आगमन पर सभी देवता उठकर खड़े हो गए, पर भगवान शिव खड़े नहीं हुए। उन्होंने दक्ष को प्रणाम भी नहीं किया। फलतः दक्ष ने अपमान का अनुभव किया। केवल यही नहीं, उनके ह्रदय में भगवान शिव के प्रति ईर्ष्या की आग जल उठी। वे उनसे बदला लेने के लिए समय और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। 

 एक बार सती और शिव कैलाश पर्वत पर बैठे हुए परस्पर वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय आकाश मार्ग से कई विमान कनखल कि ओर जाते हुए दिखाई पड़े। सती ने उन विमानों को दिखकर भगवान शिव से पूछा, प्रभो, ये सभी विमान किसके है और कहां जा रहे हैं? भगवान शकंर ने उत्तर दिया आपके पिता ने बहोत बडे यज्ञ का आयोजन किया हैं। समस्त देवता और देवांगनाएं इन विमानों में बैठकर उसी यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए जा रहे हैं। 

 इस पर सती ने दूसरा प्रश्न किया क्या मेरे पिता ने आपको यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए नहीं बुलाया? 

 भगवान शंकर ने उत्तर दिया, आपके पिता मुझसे बैर रखते है, फिर वे मुझे क्यों बुलाने लगे? 

 सती मन ही मन सोचने लगीं फिर बोलीं यज्ञ के इस अवसर पर अवश्य मेरी सभी बहनें आएंगी। उनसे मिले हुए बहुत दिन हो गए। यदि आपकी अनुमति हो, तो मैं भी अपने पिता के घर जाना चाहती हूं। यज्ञ में सम्मिलित हो लूंगी और बहनों से भी मिलने का सुअवसर मिलेगा। 

 भगवान शिव ने उत्तर दिया, इस समय वहां जाना उचित नहीं होगा। आपके पिता मुझसे जलते हैं हो सकता हैं वे आपका भी अपमान करें। बिना बुलाए किसी के घर जाना उचित नहीं होता हैं। इस पर सती ने प्रश्न किया एसा क्युं? भगवान शिव ने उत्तर दिया विवाहिता लड़की को बिना बुलाए पिता के घर नही जाना चाहिए, क्योंकि विवाह हो जाने पर लड़की अपने पति कि हो जाती हैं। पिता के घर से उसका संबंध टूट जाता हैं। लेकिन सती पीहर जाने के लिए हठ करती रहीं। अपनी बात बारबात दोहराती रहीं। उनकी इच्छा देखकर भगवान शिव ने पीहर जाने की अनुमति दे दी। उनके साथ अपना एक गण भी साथ में भेज दिया उस गण का नाम वीरभद्र था। सती वीरभद्र के साथ अपने पिता के घर गईं। 

 घर में सतीसे किसी ने भी प्रेमपूर्वक वार्तालाप नहीं किया। दक्ष ने उन्हें देखकर कहा तुम क्या यहां मेरा अपमान कराने आई हो? अपनी बहनों को तो देखो वे किस प्रकार भांतिभांति के अलंकारों और सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित हैं। 

 तुम्हारे शरीर पर मात्र बाघंबर हैं। तुम्हारा पति श्मशानवासी और भूतों का नायक हैं। वह तुम्हें बाघंबर छोड़कर और पहना ही क्या सकता हैं। दक्ष के कथन से सती के ह्रदय में पश्चाताप का सागर उमड़ पड़ा। वे सोचने लगीं उन्होंने यहां आकर अच्छा नहीं किया। भगवान ठीक ही कह रहे थे, बिना बुलाए पिता के घर भी नहीं जाना चाहिए। पर अब क्या हो सकता हैं? अब तो आ ही गई हूं। 

 पिता के कटु और अपमानजनक शब्द सुनकर भी सती मौन रहीं। वे उस यज्ञमंडल में गईं जहां सभी देवता और ॠषिमुनि बैठे थे तथा यज्ञकुण्ड में धूधू करती जलती हुई अग्नि में आहुतियां डाली जा रही थीं। सती ने यज्ञमंडप में सभी देवताओं के तो भाग देखे, किंतु भगवान शिव का भाग नहीं देखा। वे भगवान शिव का भाग न देखकर अपने पिता से बोलीं पितृश्रेष्ठ यज्ञ में तो सबके भाग दिखाई पड़ रहे हैं किंतु कैलाशपति का भाग नहीं हैं। आपने उनका भाग क्यों नहीं रखा? 

 दक्ष ने गर्व से उत्तर दिया मैं तुम्हारे पति शिव को देवता नहीं समझता। वह तो भूतों का स्वामी, नग्न रहने वाला और हड्डियों की माला धारण करने वाला हैं। वह देवताओं की पंक्ति में बैठने योग्य नहीं हैं। उसे कौन भाग देगा ? 

 सती के नेत्र लाल हो उठे। उनकी भौंहे कुटिल हो गईं। उनका मुखमंडल प्रलय के सूर्य की भांति तेजोद्दीप्त हो उठा। उन्होंने पीड़ा से तिलमिलाते हुए कहा ओह मैं इन शब्दों को कैसे सुन रहीं हूं मुझे धिक्कार हैं। देवताओ तुम्हें भी धिक्कार हैं, तुम भी उन कैलाशपति के लिए इन शब्दों को कैसे सुन रहे हो जो मंगल के प्रतीक हैं और जो क्षण मात्र में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं। 

 वे मेरे स्वामी हैं। नारी के लिए उसका पति ही स्वर्ग होता हैं। जो नारी अपने पति के लिए अपमान जनक शब्दों को सुनती हैं उसे नरक में जाना पड़ता हैं। पृथ्वी सुनो, आकाश सुनो और देवताओं, तुम भी सुनो मेरे पिता ने मेरे स्वामी का अपमान किया हैं। मैं अब एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहती। सती अपने कथन को समाप्त करती हुई यज्ञ के कुण्ड में कूद पड़ी। जलती हुई आहुतियों के साथ उनका शरीर भी जलने लगा। यज्ञमंडप में खलबली पैदा हो गई, हाहाकार मच गया। देवता उठकर खड़े हो गए। 

 वीरभद्र क्रोध से कांप उटे। वे उछ्लउछलकर यज्ञ का विध्वंस करने लगे। यज्ञमंडप में भगदड़ मच गई। देवता और ॠषिमुनि भाग खड़े हुए। वीरभद्र ने देखते ही देखते दक्ष का मस्तक काटकर फेंक दिया। समाचार भगवान शिव के कानों में भी पड़ा। 

 वे प्रचंड आंधी की भांति कनखल जा पहुंचे। सती के जले हुए शरीर को देखकर भगवान शिव ने अपने आपको भूल गए। सती के प्रेम और उनकी भक्ति ने शंकर के मन को व्याकुल कर दिया। उन शंकर के मन को व्याकुल कर दिया जिन्होंने काम पर भी विजय प्राप्त कि थी और जो सारी सृष्टि को नष्ट करने की क्षमता रखते थे। वे सती के प्रेम में खो गए, बेसुध हो गए । 

 भगवान शिव ने उन्मत कि भांति सती के जले हुए शरीर को कंधे पर रख लिया। वे सभी दिशाओं में भ्रमण करने लगे। शिव और सती के इस अलौकिक प्रेम को देखकर पृथ्वी रुक गई, हवा रूक गई, जल का प्रवाह ठहर गया और रुक गईं देवताओं की सांसे। सृष्टि व्याकुल हो उठी, सृष्टि के प्राणी पुकारने लगे— पाहिमाम पाहिमाम भयानक संकट उपस्थित देखकर सृष्टि के पालक भगवान विष्णु आगे बढ़े। 

 वे भगवान शिव की बेसुधी में अपने चक्र से सती के एकएक अंग को काटकाट कर गिराने लगे। धरती पर इक्यावन स्थानों में सती के अंग कटकटकर गिरे। जब सती के सारे अंग कट कर गिर गए, तो भगवान शिव पुनः अपने आप में आए। जब वे अपने आप में आए, तो पुनः सृष्टि के सारे कार्य चलने लगे। 

 धरती पर जिन इक्यावन स्थानों में सती के अंग कटकटकर गिरे थे, वे ही स्थान आज शक्ति के पीठ स्थान माने जाते हैं। आज भी उन स्थानों में सती का पूजन होता हैं, उपासना होती हैं।"

ब्राह्मण_को_सिर्फ_शुद्ध_ब्राह्मण_होने_की_ज़रुरत_है

#ब्राह्मण_को_सिर्फ_शुद्ध_ब्राह्मण_होने_की_ज़रुरत_है_और_फिर_उसके_कोई_रास्ते_नही_रूकते।।*

मैं एक कहानी जिसे भूपेश जोशीजी ने  परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी महाराज की एक किताब से पढ़ी थी, आप सभी से साझा करना चाहता हूँ, आशा है कि आप सबको पसंद आयेगी  ।
कहा जाता है!
एक बार अकबर और बीरबल यमुना नदी के नदी के किनारे पर ठंडी हवा का आनंद लेते
 हुए टहल रहे थे । अचानक अकबर एक ब्राह्मण को देखा, बहुत दयनीय हालत में पास से गुजर रहे लोगों से भिक्षा माँग कर रहा है। अकबर इस क्षण का मजाक बनाने का मौका नहीं छोड़ा था, वह बीरबल ने कहा, "बीरबल ओह, तो यह है कि क्या आप के ब्राह्मण जिनको "ब्रह्म देवता" के रूप में जाना जाता है जो इस तरह से भीख माँग रहा है!!! बीरबल उस समय कुछ भी नहीं कहा है, लेकिन जब अकबर किले में लौट गया, तब बीरबल वापस उसी जगह पर फिर से आया था जहाँ वो ब्राह्मण भिक्षा मांग रहा था।
बीरबल उससे बात की, उससे पूछा कि वह क्यों भिक्षायापन करता है? गरीब ब्राह्मण ने कहा है कि उसके पास जो भी था, वह सब खो दिया है, कोई धन अथवा आभूषण नहीं, कोई काम नहीं, कोई भूमि और कोई भी जीवन यापन के संसाधन नहीं शेष रहे तभी वह अपनी परिस्थितियों के अधीन होकर परिवार के भरण पोषण हेतु वह एक भिखारी होने के लिए मजबूर है! 
बीरबल ने उस से पूछा कि कितना पैसा वह एक पूरे दिन में कमा लेते हैं और गरीब ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि वह कुछ 6 से 8 "अशर्फियाँ" कमाता है (सोने के सिक्के उस समय अवधि की मुद्रा) एक दिन में. बीरबल ने भीख माँगना रोकने के लिए उसके लिए काम देने की पेशकश की और पूछा की अगर आप को मेरे लिए काम करना पड़े तो क्या आप भिक्षयापन छोड़ देंगे??? ब्राह्मण ने प्रसन्नता पूर्वक पूछा है कि क्या मेरा काम होगा? मुझे क्या करना है? बीरबल ने उस से कहा कि आप के लिए हर रोज ब्रह्ममुहूर्त में स्नान कर के, स्वच्छ वस्त्र धारण कर के प्रतिदिन इसी स्थान पर सुबह से शाम तक की अवधी में 101 माला गायत्री मंत्र का जाप किया करें और हर शाम को आप के इस स्थान को छोड़ने से पहले,आप को 10 अशर्फियाँ पहुंचा दी जायेंगी। बस ये शर्त है कि आप किसी से भिक्षा नहीं मांगेगे। ब्राह्मण ने सहर्ष इस काम के स्वीकार कर लिया. 
अगले दिन से, वह ब्राह्मण एक अलग ही व्यक्ति था, वह उसी जगह पर था, उसी स्थान पर बैठने के लिए, लेकिन किसी से भी भिक्षा याचना नहीं की। वह दिन, किसी भी दिन से अलग था क्योंकि पूरा दिन उस ब्राह्मण ने दिन के अंत तक भिखारी के रूप में कोई अपमान की भावना नहीं झेली और गायत्री जाप के असर से भी उसका मन प्रफुल्लित रहा। और उस शाम को वह प्रसन्नचित्त हो करे 10 अशर्फीयां ले के (जो भिखारी के रूप में अपने दैनिक कमाई की तुलना में अधिक था) अपने परिवार में लौटा।
दिन बीते तो बीरबल ने उस के दैनिक जाप की माला संख्या और अशर्फियों की संख्या - दोनों बाधा दीं। अब थोड़ा - थोड़ा करके, वह गायत्री मंत्र के इस जाप का आनंद शुरू कर दिया और उसके दिल को गायत्री मंत्र की शक्तियां दीन दुनिया के प्रवाह से दूर ले जा रहीं थीं। अब वह जल्दी से घर लौटने अथवा अन्य इच्छाओं के लिए चिन्तित नहीं था। भख प्यास इत्यादि शारीरिक व्याधायें उसे अब पहले की तरह नहीं सताती थीं। धीरे धीरे गायत्री मंत्र के शक्तिशाली सतत जाप के कारण, उस के चेहरे पे तेज झलकने लगा। 
उनका तेज इतना प्रबल हो गया की आने जाने वाले लोगो का ध्यान सहज ही उस ब्राह्मण की ओर आकर्षित होने लगा, वहां अधिक से अधिक लोग उनके दर्शन मात्र की इच्छा से आने लगे और स्वतः ही वहां पर मिठाई, फल, पैसे, कपड़े आदि की भेंट चढाने लगे। कभी 6 से 8 अशर्फिय कमाने के लिए जो ब्राह्मण सारा दिन अपमानित जीवन जीता था, आज उसे ना तो तो अपमान झेलने की ज़रुरत बची, ना ही बीरबल से प्राप्त होने वाली अशर्फियाँ उसे याद रही, और ना ही श्रद्धापूर्वक चढ़ाई गई बेंतों का कोई आकर्षण रहा। वो मन और आत्मा से सारा दिन गायत्री जाप में समाहित हो चुका था। जल्द ही यह खबर शहर कि वहाँ किसी महान योगी संत के आगमन सारे शहर में बहुत प्रसिद्ध हो गई, परन्तु उस ब्राह्मण को स्वयं इस प्रसिद्धी का पता नहीं था। जो लोग वहां दर्शन के लिए आते थे, उन्होंने ही वहां पे उनके स्थान को परवर्तित कर के एक छोटे से मंदिर या आश्रम का स्वरूप दे दिया और दैनिक रूप से वहां पर मंदिर की दिनचर्या की ही तरह पूजा अर्चना होने लगीं। 
जल्दी ही यह खबर अकबर को भी पहुँची और उनको भी इस "अज्ञात नए संत" के बारे में उत्सुकता और दर्शनाभिलाषा हुई और उन्होंने भी उस "संत" की तपोभूमि पर दर्शनार्थ जाने का फैसला किया और वह बहुत से दरबारियों आदि और बेशुमार शाही तोहफे के रूप में अच्छी तरह से अपनी राजसी शैली में बीरबल को भी अपने साथ लेकर गया। वहाँ पहुँच कर, सारे शाही भेंटे अर्पण कर के ब्राह्मण के पैर छुए। ऐसे तेजोमय संत के दर्शनों से गद-गद ह्रदय ले के बादशाह अकबर, बीरबल के साथ बाहर आ गया। अकबर

🙏 *दत्त महाराजांची नामस्मरणाची ताकत*🙏

🙏 *दत्त महाराजांची नामस्मरणाची ताकत*🙏
एका गावात एक श्रीमंत कुटुंब राहत असते. नवरा बायको भरपूर दानधर्म करायचे. पण त्यांचा मुलगा देवधर्म काही करत नव्हता. लहान होता तेव्हा काही वाटले नाही.

 पण जसा मोठा झाला तशी घरच्यांना चिंता पडली की पुढे याचे कसे होणार ?  हा तर देवाचे काहीच करत नाही....

 एकदा गावात एक साधू येतात, त्यांना हे कुटुंबिय विनंती करतात.

एकदा तरी त्याच्या मुखातून श्री गुरुदेव दत्त नाम येऊ द्या......!

 साधू महाराज खूप वेळ विचार करून त्यांना म्हणतात मी सांगेल तेव्हा त्याला माझ्याकडे घेऊन या, मी त्याच्या कडून दत्त गुरूंचे नाव वदवून घेईल......!

 ठरलेल्या दिवशी ते कुटुंबिय त्यांच्या मुलाला घेऊन साधू महाराजां कडे येतात.

तेव्हा साधू महाराज मुलाला प्रश्न विचारतात एकदा श्री गुरुदेव दत्त म्हंटले तर काय होईल.......?

मुलगा त्यांनाच उलट प्रश्न विचारतो....

 एकदा श्री गुरुदेव दत्त म्हंटले तर काय होईल......? 

 मुलाच्या तोंडून दत्तगुरुंचे नाव आले, हे बघून घरच्यांना आनंद होतो आणी ते निघून जातात. कालांतराने वयोमानानी त्या मुलाचे निधन होते आणि तो यम धर्मापुढे उभा असतो.

तेव्हा तो यमाला म्हणतो. तुम्हाला जी काही शिक्षा द्यायची असेल ती द्या, पण आधी माझ्या प्रश्नाचे उत्तर द्या......

यम म्हणतो विचार काय प्रश्न आहे........

मुलगा :- एकदा श्री गुरुदेव दत्त म्हंटले कि काय होते..? 

यम :- मला दत्त गुरुंबद्दल माहित आहे पण एकदा श्री गुरुदेव दत्त म्हंटले कि काय होते, हे मला नाही सांगता येणार यासाठी आपण ब्रह्म देवाकडे जाऊ तेच ह्या प्रश्नाचे उत्तर देतील. 

मुलगा :- मी ब्रह्म देवाकडे येईल पण तुम्हाला माझ्या प्रश्नाचे उत्तर आले नाही,  म्हणून तुम्ही मला पालखी मध्ये बसवून ब्रह्म देवाकडे घेऊन जायचे...... 

त्या पालखी चे भोई तुम्ही होणार.........

यमदेव तयार होतात. दोघे ब्रह्म देवाकडे जातात. ब्रह्म देवाला पण तोच प्रश्न विचारला जातो. ब्रह्म देवाला पण उत्तर माहित नसते. मग ते म्हणतात आपण भगवान विष्णू कडे जाऊ त्यांना हा प्रश्न विचारू.  तेव्हा तो मुलगा म्हणतो.....

 माझ्या प्रश्नाचे उत्तर तुम्हाला आले नाही, म्हणून तुम्ही पण पालखीचे भोई होणार.
ब्रह्म देव तयार होतात....

 असे तिघे ते भगवान विष्णू कडे जातात. भगवान विष्णूं ना पण तोच प्रश्न विचारतात.

 एकदा श्री गुरुदेव दत्त म्हंटले तर काय होते....? 

विष्णू उत्तर देतात दत्त गुरुं बद्दल मला पण खूप माहिती आहे. पण एकदा गुरुदेव दत्त म्हंटले कि काय होते ते मला पण सांगता येणार नाही......

आपण भगवान शिवांकडे जाऊ त्यांना नक्की माहित असेल. आता पालखी चे दोन भोई झाले असतात.

 मुलगा विष्णू ना म्हणतो तुम्हाला माझ्या प्रश्न चे उत्तर आले नाही, म्हणून आता तुम्ही पंखा घेऊन मला हवा घालणार..... 

असे करत ते भगवान शिवा कडे पोचतात. भगवान शिवांना पण या प्रश्न चे उत्तर येते नाही, म्हणून ते म्हणतात आपण हा प्रश्न स्वतः गुरुदेव दत्तांनाच विचारू.....  असे म्हणून सगळे दत्त गुरुं कडे येतात. 

श्रीगुरुदेव दत्तां ना बघून मुलगा पालखीतून खाली उतरतो. अन् दत्त गुरुं ना प्रश्न विचारतो एकदा श्री गुरुदेव दत्त म्हंटले तर काय होते...?

तेव्हा गुरुदेव त्याच्या कडे बघून हसतात आणि सांगतात.......

एकदा श्रीगुरू देव दत्त म्हंटले कि काय होते....?
 हा प्रश्न घेऊन तू आयुष्यभर बेचैन राहिलास आणि न कळत पणे किती तरी वेळा माझे नाव घेतले. त्याने काय होते हे तर तुला बघायचे असेल तर बघ......

 *तू नाम घेत राहिला म्हणून प्रत्यक्ष यम, ब्रह्मा - विष्णू आणि शिव हे तुला जन्म मरणाच्या फेऱ्यातून काढून माझ्या पायापाशी घेऊन आले, तू ह्या सगळ्यातून मुक्त झाला आता कायम माझ्या चरणा जवळ राहशील.......!!*

 🙏 *हेच ते फळ एकदा श्री  गुरुदेव दत्त म्हंटले कि मिळते.....!*🙏

दत्त हे रूप नाही......ते तत्त्व आहे याचा विचार नक्की करावा आणि *श्री गुरुदेव दत्त म्हणावं.............*

 🙏🌹 *!! श्री गुरुदेव दत्त*  !!🌹🙏

What's​ the size of God? Excellent reading

What's​ the size of God?   Excellent reading

A boy asked the father: _What's the size of God?_ Then the father looked up to the sky and seeing an airplane asked the son: What's the size of that airplane? The boy answered: It's very small. I can barely see it. So the father took him to the airport and as they approached an airplane he asked: And now, what is the size of this one? The boy answered: Wow daddy, this is huge! Then the father told him: God, is like this, His size depends on the distance between you and  Him. *The closer you are to Him, the greater He will be in your life!*

Loved the explanation....

बहूत सुंदर कथा👌

👌बहूत सुंदर कथा👌

                ☺मेरा वृन्दावन☺

 एक राजा ने भगवान कृष्ण का एक मंदिर बनवाया
और पूजा के लिए एक पुजारी को लगा दिया. पुजारी बड़े भाव से
बिहारीजी की सेवा करने लगे. भगवान की पूजा-अर्चना और
सेवा-टहल करते पुजारी की उम्र बीत गई. राजा रोज एक फूलों की
माला सेवक के हाथ से भेजा करता था.पुजारी वह माला बिहारीजी
को पहना देते थे. जब राजा दर्शन करने आता तो पुजारी वह माला बिहारीजी के गले से उतारकर राजा को पहना देते थे. यह रोज का
नियम था. एक दिन राजा किसी वजह से मंदिर नहीं जा सका.
उसने एक सेवक से कहा- माला लेकर मंदिर जाओ. पुजारी से कहना
आज मैं नहीं आ पाउंगा. सेवक ने जाकर माला पुजारी को दे दी और
बता दिया कि आज महाराज का इंतजार न करें. सेवक वापस आ
गया. पुजारी ने माला बिहारीजी को पहना दी. फिर उन्हें विचार आया कि आज तक मैं अपने बिहारीजी की चढ़ी माला
राजा को ही पहनाता रहा. कभी ये सौभाग्य मुझे नहीं
मिला.जीवन का कोई भरोसा नहीं कब रूठ जाए. आज मेरे प्रभु ने
मुझ पर बड़ी कृपा की है. राजा आज आएंगे नहीं, तो क्यों न माला
मैं पहन लूं. यह सोचकर पुजारी ने बिहारीजी के गले से माला
उतारकर स्वयं पहन ली. इतने में सेवक आया और उसने बताया कि राजा की सवारी बस मंदिर में पहुंचने ही वाली है.यह सुनकर
पुजारी कांप गए. उन्होंने सोचा अगर राजा ने माला मेरे गले में देख
ली तो मुझ पर क्रोधित होंगे. इस भय से उन्होंने अपने गले से
माला उतारकर बिहारीजी को फिर से पहना दी. जैसे ही राजा
दर्शन को आया तो पुजारी ने नियम अुसार फिर से वह माला
उतार कर राजा के गले में पहना दी. माला पहना रहे थे तभी राजा को माला में एक सफ़ेद बाल दिखा.राजा को सारा माजरा समझ गया
कि पुजारी ने माला स्वयं पहन ली थी और फिर निकालकर
वापस डाल दी होगी. पुजारी ऐसाछल करता है, यह सोचकर राजा
को बहुत गुस्सा आया. उसने पुजारी जी से पूछा- पुजारीजी यह
सफ़ेद बाल किसका है.? पुजारी को लगा कि अगर सच बोलता हूं
तो राजा दंड दे देंगे इसलिए जान छुड़ाने के लिए पुजारी ने कहा- महाराज यहसफ़ेद बाल तो बिहारीजी का है. अब तो राजा गुस्से
से आग- बबूला हो गया कि ये पुजारी झूठ पर झूठ बोले जा रहा
है.भला बिहारीजी के बाल भी कहीं सफ़ेद होते हैं. राजा ने कहा-
पुजारी अगर यह सफेद बाल बिहारीजी का है तो सुबह शृंगार के
समय मैं आउंगा और देखूंगा कि बिहारीजी के बाल सफ़ेद है या
काले. अगर बिहारीजी के बाल काले निकले तो आपको फांसी हो जाएगी. राजा हुक्म सुनाकर चला गया.अब पुजारी रोकर
बिहारीजी से विनती करने लगे- प्रभु मैं जानता हूं आपके
सम्मुख मैंने झूठ बोलने का अपराध किया. अपने गले में डाली
माला पुनः आपको पहना दी. आपकी सेवा करते-करते वृद्ध हो
गया. यह लालसा ही रही कि कभी आपको चढ़ी माला पहनने का
सौभाग्य मिले. इसी लोभ में यह सब अपराध हुआ. मेरे ठाकुरजी पहली बार यह लोभ हुआ और ऐसी विपत्ति आ पड़ी है. मेरे
नाथ अब नहींहोगा ऐसा अपराध. अब आप ही बचाइए नहीं तो
कल सुबह मुझे फाँसी पर चढा दिया जाएगा. पुजारी सारी रात रोते
रहे. सुबह होते ही राजा मंदिर में आ गया. उसने कहा कि आज
प्रभु का शृंगार वह स्वयं करेगा. इतना कहकर राजा ने जैसे ही मुकुट
हटाया तो हैरान रह गया. बिहारीजी के सारे बाल सफ़ेद थे. राजा को लगा, पुजारी ने जान बचाने के लिए बिहारीजी के बाल रंग
दिए होंगे. गुस्से से तमतमाते हुए उसने बाल की जांच करनी
चाही. बाल असली हैं या नकली यब समझने के लिए उसने जैसे
ही बिहारी जी के बाल तोडे, बिहारीजी के सिर से खून
कीधार बहने लगी. राजा ने प्रभु के चरण पकड़ लिए और क्षमा
मांगने लगा. बिहारीजी की मूर्ति से आवाज आई- राजा तुमने आज तक मुझे केवल मूर्ति ही समझा इसलिए आज से मैं तुम्हारे
लिए मूर्ति ही हूँ. पुजारीजी मुझे साक्षात भगवान् समझते हैं.
उनकी श्रद्धा की लाज रखने के लिए आज मुझे अपने बाल सफेद
करने पड़े व रक्त की धार भी बहानी पड़ी तुझे समझाने के लिए.

 कहते हैं- समझो तो देव नहीं तो पत्थर.श्रद्धा हो तो उन्हीं पत्थरों में भगवान सप्राण
होकर भक्त से मिलने आ जाएंगे ।।

श्री वृन्दावन बांके बिहारी लाल की जय हो  ।
🌹🌹🌹🌹🌹🌹

64 योगिनीयो के मंत्र

*64 योगिनीयो के मंत्र*
〰〰🌼〰🌼〰〰
१. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री काली नित्य सिद्धमाता स्वाहा ।

२. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री कपलिनी नागलक्ष्मी स्वाहा । 

३. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री कुला देवी स्वर्णदेहा स्वाहा ।

४. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री कुरुकुल्ला रसनाथा स्वाहा

५. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री विरोधिनी विलासिनी स्वाहा ।

६. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री विप्रचित्ता रक्तप्रिया स्वाहा ।

७. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री उग्र रक्त भोग रूपा स्वाहा ।

८. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री उग्रप्रभा शुक्रनाथा स्वाहा ।

९. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री दीपा मुक्तिः रक्ता देहा स्वाहा ।

१०. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री नीला भुक्ति रक्त स्पर्शा स्वाहा ।

११. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री घना महा जगदम्बा स्वाहा ।

१२. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री बलाका काम सेविता स्वाहा ।

१३. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री मातृ देवी आत्मविद्या स्वाहा ।

१४. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री मुद्रा पूर्णा रजतकृपा स्वाहा ।

१५. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री मिता तंत्र कौला दीक्षा स्वाहा ।

१६. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री महाकाली सिद्धेश्वरी स्वाहा ।

१७. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री कामेश्वरी सर्वशक्ति स्वाहा

१८. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री भगमालिनी तारिणी स्वाहा

१९. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री नित्यकलींना तंत्रार्पिता स्वाहा ।

२०. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री भैरुण्ड तत्त्व उत्तमा स्वाहा ।

२१. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री वह्निवासिनी शासिनि स्वाहा ।

२२. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री महवज्रेश्वरी रक्त देवी स्वाहा ।

२३. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री शिवदूती आदि शक्ति स्वाहा ।

२४. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री त्वरिता ऊर्ध्वरेतादा स्वाहा ।

२५. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री कुलसुंदरी कामिनी स्वाहा ।

२६. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री नीलपताका सिद्धिदा स्वाहा ।

२७. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री नित्य जनन स्वरूपिणी स्वाहा ।

२८. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री विजया देवी वसुदा स्वाहा ।

२९. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री सर्वमङ्गला तन्त्रदा स्वाहा ।

३०. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री ज्वालामालिनी नागिनी स्वाहा ।

३१. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री चित्रा देवी रक्तपुजा स्वाहा ।

३२. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री ललिता कन्या शुक्रदा स्वाहा ।

३३. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री डाकिनी मदसालिनी स्वाहा ।

३४. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री राकिनी पापराशिनी स्वाहा ।

३५. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री लाकिनी सर्वतन्त्रेसी स्वाहा ।

३६. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री काकिनी नागनार्तिकी स्वाहा ।

३७. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री शाकिनी मित्ररूपिणी स्वाहा ।

३८. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री हाकिनी मनोहारिणी स्वाहा ।

३९. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री तारा योग रक्ता पूर्णा स्वाहा ।

४०. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री षोडशी लतिका देवी स्वाहा ।

४१. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री भुवनेश्वरी मंत्रिणी स्वाहा ।

४२. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री छिन्नमस्ता योनिवेगा स्वाहा ।

४३. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री भैरवी सत्य सुकरिणी स्वाहा ।

४४. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री धूमावती कुण्डलिनी स्वाहा ।

४५. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री बगलामुखी गुरु मूर्ति स्वाहा ।

४६. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री मातंगी कांटा युवती स्वाहा ।

४७. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री कमला शुक्ल संस्थिता स्वाहा ।

४८. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री प्रकृति ब्रह्मेन्द्री देवी स्वाहा ।

४९. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री गायत्री नित्यचित्रिणी स्वाहा ।

५०. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री मोहिनी माता योगिनी स्वाहा ।

५१. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री सरस्वती स्वर्गदेवी स्वाहा ।

५२. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री अन्नपूर्णी शिवसंगी स्वाहा ।

५३. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री नारसिंही वामदेवी स्वाहा ।

५४. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री गंगा योनि स्वरूपिणी स्वाहा ।

५५. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री अपराजिता समाप्तिदा स्वाहा ।

५६. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री चामुंडा परि अंगनाथा स्वाहा ।

५७. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री वाराही सत्येकाकिनी स्वाहा ।

५८. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री कौमारी क्रिया शक्तिनि स्वाहा ।

५९. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री इन्द्राणी मुक्ति नियन्त्रिणी स्वाहा ।

६०. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री ब्रह्माणी आनन्दा मूर्ती स्वाहा ।

६१. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री वैष्णवी सत्य रूपिणी स्वाहा ।

६२. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री माहेश्वरी पराशक्ति स्वाहा ।

६३. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री लक्ष्मीh मनोरमायोनि स्वाहा ।

६४. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री दुर्गा सच्चिदानंद स्वाहा।
〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰

श्रद्धा के फूल

*🔆 श्रद्धा के फूल 🔆*
=============
*🙏🏻गुरूकृपा रामकृपा 🙏🏻*
🔷 एक बार किसी गांव में महात्मा बुध्द का आगमन हुआ। सब इस होड़ में लग गये कि क्या भेंट करें। इधर गाँव में एक गरीब मोची था। उसने देखा कि मेरे घर के बाहर के तालाब में बेमौसम का एक कमल खिला है।

🔶 उसकी इच्छा हुई कि, आज नगर में महात्मा आए हैं, सब लोग तो उधर ही गए हैं, आज हमारा काम चलेगा नहीं, आज यह फूल बेचकर ही गुजारा कर लें। वह तालाब के अंदर कीचड़ में घुस गया। कमल के फूल को लेकर आया। केले के पत्ते का दोना बनाया..और उसके अंदर कमल का फूल रख दिया।

🔷 पानी की कुछ बूंदें कमल पर पड़ी हुई हैं ..और वह बहुत सुंदर दिखाई दे रहा है।

🔶 इतनी देर में एक सेठ पास आया और आते ही कहा-''क्यों फूल बेचने की इच्छा है ?'' आज हम आपको इसके दो चांदी के रूपए दे सकते हैं।

🔷 अब उसने सोचा ...कि एक-दो आने का फूल! इस के दो रुपए दिए जा रहे हैं। वह आश्चर्य में पड़ गया।

🔶 इतनी देर में नगर-सेठ आया । उसने कहा ''भई, फूल बहुत अच्छा है, यह फूल हमें दे दो'' हम इसके दस चांदी के सिक्के दे सकते हैं।

🔷 मोची ने सोचा, इतना कीमती है यह फूल। नगर सेठ ने मोची को सोच मे पड़े देख कर कहा कि अगर पैसे कम हों, तो ज्यादा दिए जा सकते हैं।

🔶 मोची ने सोचा-क्या बहुत कीमती है ये फूल?

🔷 नगर सेठ ने कहा-मेरी इच्छा है कि मैं महात्मा के चरणों में यह फूल रखूं। इसलिए इसकी कीमत लगाने लगा हूं।

🔶 इतनी देर में उस राज्य का मंत्री अपने वाहन पर बैठा हुआ पास आ गया और कहता है- क्या बात है? कैसी भीड़ लगी हुई है? अब लोग कुछ बताते इससे पहले ही उसका ध्यान उस फूल की तरफ गया। उसने पूछा- यह फूल बेचोगे?

🔷 हम इस के सौ सिक्के दे सकते हैं। क्योंकि महात्मा आए हुए हैं। ये सिक्के तो कोई कीमत नहीं रखते।

🔶 जब हम यह फूल लेकर जाएंगे तो सारे गांव में चर्चा तो होगी कि महात्मा ने केवल मंत्री का भेंट किया हुआ ही फूल स्वीकार किया। हमारी बहुत ज्यादा चर्चा होगी।

🔷 इसलिए हमारी इच्छा है कि यह फूल हम भेंट करें और कहते हैं कि थोड़ी देर के बाद राजा ने भीड़ को देखा, देखने के बाद वजीर ने पूछा कि बात क्या है? वजीर ने बताया कि फूल का सौदा चल रहा है।

🔶 राजा ने देखते ही कहा-इसको हमारी तरफ से एक हजार चांदी के सिक्के भेंट करना। यह फूल हम लेना चाहते हैं।

🔷 गरीब मोची ने कहा-लोगे तो तभी जब हम बेचेंगे। हम बेचना ही नहीं चाहते। अब राजा कहता है कि...बेचोगे क्यों नहीं?

🔶 उसने कहा कि जब महात्मा के चरणों में सब कुछ-न-कुछ भेंट करने के लिए पहुंच रहे हैं..तो ये फूल इस गरीब की तरफ से आज उनके चरणों में भेंट होगा। राजा बोला-देख लो, एक हजार चांदी के सिक्कों से तुम्हारी पीढ़ियां तर सकती हैं।

🔷 गरीब मोची कहा-मैंने तो आज तक राजाओं की सम्पत्ति से किसी को तरते नहीं देखा लेकिन महान पुरुषों के आशीर्वाद से तो लोगों को जरूर तरते देखा है।

🔶 राजा मुस्कुराया और कह उठा-तेरी बात में दम है। तेरी मर्जी, तू ही भेंट कर ले।

🔷 अब राजा तो उस उद्यान में चला गया जहां महात्मा ठहरे हुए थे...और बहुत जल्दी चर्चा महात्मा के कानों तक भी पहुंच गई, कि आज कोई आदमी फूल लेकर आ रहा है..

🔶 जिसकी कीमत बहुत लगी है। वह गरीब आदमी है इसलिए फूल बेचने निकला था कि उसका गुजारा होता। जैसे ही वह गरीब मोची फूल लेकर पहुंचा, तो शिष्यों ने महात्मा से कहा कि वह व्यक्ति आ गया है।

🔷 लोग एकदम सामने से हट गए। महात्मा ने उसकी तरफ देखा। मोची फूल लेकर जैसे पहुंचा तो उसकी आंखों में से आंसू बरसने लगे। कुछ बूंदे तो पानी की कमल पर पहले से ही थी...कुछ उसके आंसुओं के रूप में ठिठक गई पर कमल पर।

🔶 रोते हुए इसने कहा-सब ने बहुत-बहुत कीमती चीजेें आपके चरणों में भेंट की होंगी, लेकिन इस गरीब के पास यह कमल का फूल और जन्म-जन्मान्तरों के पाप जो पाप मैंने किए हैं उनके आंसू आंखों में भरे पड़े हैं। उनको आज आपके चरणों में चढ़ाने आया हूं। मेरा ये फूल और मेरे आंसू भी स्वीकार करो।

🔷 महात्मा के चरणों में फूल रख दिया। गरीब मोची घुटनों के बल बैठ गया।

🔶 महात्मा बुध्द ने अपने शिष्य आनन्द को बुलाया और कहा, देख रहे हो आनन्द! हजारों साल में  भी कोई राजा इतना नहीं कमा पाया जितना इस गरीब इन्सान ने आज एक पल में ही कमा लिया।

🔷 इसका समर्पण श्रेष्ठ हो गया। इसने अपने मन का भाव दे दिया।

 👉 एकमात्र ये मन का भाव ही है जिससे हम गुरु की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
 👉 त्रिलोकी का सामान भी कोई अहमियत नहीं रखता।
*🙏 जय गुरुदेव 🙏*

गुरु की मेहरबानी

*🙏गुरु की मेहरबानी🙏*

*मैनें एक आदमी से पूछा कि गुरू कौन है ! वो सेब खा रहाथा, उसने एक सेब मेरे हाथ में देकर मुझसे पूछा ।  इसमें कितने बीज है बता सकते हो ?*

*सेब काटकर मैंने गिनकर कहा तीन बीज हैं !  उसने एक बीज अपने हाथ में लिया और फिर पूछा इस बीज में कितने सेब हैं, यह भी सोचकर बताओ?  मैं सोचने लगा, एक बीज से एक पेड़, एक पेड़ से अनेक सेब, अनेक सेबों में फिर तीन-तीन बीज, हर बीज से फिर एक-एक पेड़ और यह अनवरत क्रम !*

*lवो मुस्कुराते हुए बोले :- बस इसी तरह परमात्मा की कृपा हमें प्राप्त होती रहती है ! बस हमें उसकी भक्ति का एक बीज अपने मन में लगा लेने की ज़रूरत है :*

*गुरू एक तेज है:- जिनके आते ही, सारे सन्शय के अंधकार खत्म हो जाते हैं !*

*गुरू वो मृदंग है:- जिसके बजते ही अनाहद नाद सुनने शुरू हो जाते है !*

*गुरू वो ज्ञान हैं :-जिसके मिलते ही पांचो शरीर एक हो जाते हैं !*

*गुरू वो दीक्षा है:- जो सही मायने में मिलती है तो भवसागर पार हो जाते है !*

*गुरू वो नदी है :- जो निरंतर हमारे प्राण से बहती हैं !*

*गुरू वो सत चित आनंद है:- जो हमें हमारी पहचान देता है !*

*गुरू वो बासुरी है :-जिसके बजते ही अंग अंग थीरकने लगता है !*

*गुरू वो अमृत है :-जिसे पीकर कोई कभी प्यासा नही रहता है !*

*गुरू वो मृदँग है :-जिसे बजाते ही सोहम नाद की झलक मिलती है !*

*गुरू वो कृपा ही है:- जो सिर्फ कुछ सद शिष्यों को विशेष रूप मे मिलती है और कुछ पाकर भी समझ नही पाते हैं !*

*गुरू वो खजाना है :-जो अनमोल है !*

*गुरू वो प्रसाद है :-जिसके भाग्य में हो, उसे कभी कुछ भी मांगने की ज़रूरत नही पड़ती हैं|*

व्रज रज की गाथा

व्रज रज की गाथा 
🔸🔸🔹🔸🔸
विष्णुजी के व्रज में कृष्ण रूप में अवतार लेने की बात जब देवताओं को पता लगी तो सभी बाल कृष्ण की लीला के साक्षी बनने को लालायित हो गये । देवताओं ने व्रज में कोई ग्वाला, कोई गोपी, कोई गाय, कोई मोर तो कोई तोते के रूप में जन्म ले लिया। कुछ देवता और ऋषि रह गए। वे सभी ब्रह्माजी के पास आये और कहने लगे कि ब्रह्मदेव आप ने हमें व्रज में क्यों नहीं भेजा ? आप कुछ भी करिये , किसी भी रूप में भेजिये । ब्रह्माजी बोले व्रज में जितने लोगों को भेजना संभव था उतने लोगों को भेज दिया है । अब व्रज में कोई भी जगह खाली नहीं बची है।

देवताओं ने अनुरोध किया प्रभु आप हमें ग्वाले ही बना दें । ब्रह्माजी बोले जितने लोगों को बनाना था उतनों को बना दिया और ग्वाले नहीं बना सकते । देवता बोले प्रभु ग्वाले नहीं बना सकते तो हमे बरसाने को गोपियां ही बना दें । ब्रह्माजी बोले अब गोपियों की भी जगह खाली नही है। देवता बोले गोपी नहीं बना सकते, ग्वाला नहीं बना सकते तो आप हमें गायें ही बना दें -  ब्रह्माजी बोले गायें  भी खूब बना दी हैं । अकेले नन्द बाबा के पास नौ लाख गायें  हैं और अब गायें  भी नहीं बना सकते ।देवता बोले प्रभु चलो मोर ही बना दें , नाच-नाच कर कान्हा को रिझाया करेंगे । ब्रह्माजी बोले मोर भी खूब बना दिये - इतने मोर बना दिये कि व्रज में समा नहीं पा रहे । उनके लिए अलग से मोर कुटी बनानी पड़ी । देवता बोले तो कोई तोता, मैना, चिड़िया, कबूतर, बंदर कुछ भी बना दीजिये । ब्रह्माजी बोले वो भी खूब बना दिये और पुरे पेड़ भरे हुए हैं पक्षियों से ।देवता बोले तो कोई पेड़-पौधा, लता-पता ही बना दें । ब्रह्मा जी बोले पेड़-पौधे, लता-पता भी मैंने इतने बना दिये कि सूर्यदेव मुझसे रुष्ट हैं - उनकी किरनें भी बड़ी कठिनाई से व्रज की धरती को स्पर्श करती हैं।

देवता बोले प्रभु कोई तो जगह दें। हमें भी व्रज में भेजिये तब ब्रह्मा जी बोले- कोई जगह खाली नहीं है। देवताओं ने हाथ जोड़ कर ब्रह्माजी से कहा , प्रभु ! अगर हम कोई जगह अपने लिए ढूंढ़ के ले आयें  तो आप हम को व्रज में भेज देंगे  ? ब्रह्माजी बोले - हाँ तुम अपने लिए कोई जगह ढूंढ़ के ले आओगे तो मैं तुम्हें व्रज में भेज दूंगा । देवताओं ने कहा- धुल और रेत कणों की तो कोई सीमा नहीं हो सकती और कुछ नहीं तो बालकृष्ण लल्ला के चरण पड़ने से ही हमारा कल्याण हो जाएगा - हम को व्रज में धूल रेत ही बना दें ।ब्रह्मा जी ने उनकी बात मान ली।

प्रसंग का मर्म
🔸🔸🔹🔸🔸
इसलिये जब भी व्रज जायें तो धूल और रेत से क्षमा मांग कर अपना पैर धरती पर रखें क्योंकि व्रज की रेत भी सामान्य नहीं है । वो रज तो देवी- देवता, ऋषि-मुनि ही  हैं और विशेषतया  "कान्हाजी के चरणारविन्दों के स्पर्श  से"  यह परम पावन हो गई  है।
🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸

खानों के अनुसार उपाय:-

खानों के अनुसार उपाय:-
1.खाना नम्बर एक: यदि आपकी कुंडली के पहले भाव में राहु और सातवें भाव में केतु हो तो चांदी की ठोस गोली अपने पास रखें।
 
2.खाना नम्बर दो: यदि आपकी कुंडली के दूसरे भाव में राहु और आठवें में केतु हो तो दो रंग या ज्यादा रंगों वाला कम्बल दान करें।
 
 
3.खाना नम्बर तीन: यदि आपकी कुंडली के तीसरे भाव में राहु और नवम भाव में केतु हो तो सोना धारण करें। बाएं हाथ की कनिष्ठा में सोने का छल्ला पहने या चने की दाल बहते पानी में बहाएँ।
 
4.खान नम्बर चार: यदि आपकी कुंडली के चौथे भाव में राहु और दसम भाव में केतु हो तो चाँदी की डिब्बी में शहद भरकर घर के बाहर जमीन में दबाए।
 
5.खान नम्बर पांच: यदि आपकी कुंडली के पांचवे भाव में राहु और ग्यारहवें भाव में केतु हो तो घर में चांदी का ठोस हाथी रखें।
 
 
6.खान नम्बर छह: यदि आपकी कुंडली के छटे भाव में राहु और बारहवें भाव में केतु हो तो बहन की सेवा करना, ताजे फुल को अपने पास रखना। कुत्ता पालना।
 
7.खाना नम्बर सात: यदि आपकी कुंडली के सातवें भाव में राहु और पहले भाव में केतु हो तो लोहे की गोली को लाल रंग से अपने पास रखना। चांदी की डिब्बी में बहते पानी का जल भरकर उसमें चांदी का एक चौकोर टुकड़ा डालकर तथा डिब्बी को बंद करके घर में रखने की सलाह दी जाती है। ध्यान रखते रहें कि डिब्बी का जल सूखे नहीं।
 
 
8.खाना नम्बर आठ: यदि आपकी कुंडली के अष्टम भाव में राहु और दूसरे भाव में केतु हो तो आठ सौ ग्राम सिक्के के आठ टुकड़े करके एक साथ बहते पानी में प्रवाहित करना अच्छा होगा।
 
9.खाना नम्बर नौ: यदि आपकी कुंडली के नवम भाव में राहु और तीसरे भाव में केतु हो तो चने की दाल पानी में प्रवाहित करें। चाँदी की ईंट बनवाकर घर में रखें।
 
10.खाना नम्बर दस: यदि आपकी कुंडली के दसम भाव में राहु और चौथे भाव में केतु हो तो पीतल के बर्तन में बहती नदी या नहर का पानी भरकर घर में रखना चाहिए। उस पर चांदी का ढक्कन हो तो अति उत्तम।
 
 
11.खाना नम्बर ग्यारह: यदि आपकी कुंडली के ग्यारहवें भाव में राहु और पांचवें भाव में केतु होने पर 400 ग्राम सिक्के के 10 टुकड़े करा कर एक साथ बहते जल में प्रवाहित करना चाहिए। इसके अलावा 43 दिनों तक गाजर या मूली लेकर सोते समय सिरहाने रखकर सुबह मंदिर आदि पर दान कर दें।
 
12.खाना नम्बर बारह: यदि आपकी कुंडली के बारहवें भाव में राहु और छटे भाव में केतु हो तो लाल रंग की बोरी के आकार की थैली बनाकर उसमें सौंफ या खांड भर कर सोने वाले कमरे में रखना चाहिए। कपड़ा चमकीला न हों। केतु के लिए सोने के जेवर पहनना उत्तम होगा।
 
 
सावधानी : उपरोक्त बताए गए उपायों को लाल किताब के किसी योग्य ज्योतिष से सलाह लेकर ही अमल में लाएं, क्योंकि कुंडली के अन्य ग्रहों का विश्लेषण भी करना होता है।

*!! हिन्दू सनातन धर्र्म में मांसाहार बर्जित है !!*

*!! हिन्दू सनातन धर्र्म में मांसाहार बर्जित है !!*

ऋग्वेद, यजुर्वेद, महाभारत, रामायण तथा अन्य वैदिक ग्रंथो में मदिरा सेवन व् मांसाहार की घोर निंदा की गई हे.और इसके कई सारे प्रमाण ग्रंथो में मिलते हे. दीर्घ द्रष्टा ऋषियो ने इसको दुर्व्यसन व् अधःपतन का प्रमुख कारण माना हे. मनुस्मृति, पराशर स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति में भी इसका निषेध किया गया हे.
आर्य संस्कृति और सनातन धर्म ऐसे दुर्व्यसनो का हमेसा विरोधी रहा हे. यह बात का ध्यान रखा जाए. अगर कोई हिन्दू वैदिक काल का प्रमाण देकर मदिरापान औरमांसाहार करता हे तो वह गलत होगा. और साथ ही आज वर्तमान में भी कुछ देवी-देवताओ को मदिरा व्पशु बलि अर्पण की जाती हे लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हे की इसका सम्बन्ध वैदिक संस्कृति से हे. यह एक अंधश्रद्धा मात्र हे. क्युकी देवी देवता को मांस और बलि अर्पण करना वैदिक संस्कृति में नहीं हे.

जिसके कुछ प्रमाण यहाँ उपस्थित हे.
*- यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:*
*तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत:*
*यजुर्वेद ४०। ७*

जो सभी भूतों में अपनी ही आत्मा को देखते हैं, उन्हें कहीं पर भीशोक या मोह नहीं रह जाता क्योंकि वे उनके साथ अपनेपन की अनुभूति करते हैं | जो आत्मा के नष्ट न होने में और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हों, वे कैसे यज्ञों में पशुओं का वध करने की सोच भी सकते हैं ? वे तो अपने पिछले दिनों के प्रिय और निकटस्थ लोगों को उन जिन्दा प्राणियों में देखते हैं |

*- ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम्*
*एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च*
*अथर्ववेद ६।१४०।२*
हे दांतों की दोनों पंक्तियों !चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ |
यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं | उन्हें मत मारो जो माता– पिता बनने की योग्यता रखते हैं |

*- अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि*
*- यजुर्वेद १।१*

- हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |

धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा बंद की जाए... सनातन हिन्दू धर्म में हिंसा नहीं हे... म्लेच्छ एवं यवन जेसे अन्य जातिओ के लोगो ने वैदिक काल में हिंसा घुसाई हे... हिंसा करके अभक्ष्य खाने वाले लोग सनातनी नहीं हे. आर्य हिंसक नहीं थे. जिसका ज्वलंत उदहारण महाभारत में दर्शाया गया हे ..."सूरा- मत्स्या -मधु -मांसमासवं क्रूसरौदनम धुर्तेह प्रवर्तितं ह्येत्न्नेताद वेदेषु कल्पितम" अर्थात - शराब, मछली आदि का यज्ञ में बलिदान धूर्तो द्वरा प्रवर्तित किया गया हे ! वेदों में मांस बलि का विधान निर्दिष्ट नहीं हे. *(महा. शांति. २६४.९) *"मांस पाक प्रतिशेधाश्च तद्वत"* अर्थात- वैदिक कर्मो में विहाराग्नी में मांस पकाने का निषेध हे, (मीमांसा. १२.२.२) और इसे कई प्रमाण भारतीय शास्त्र में हे...अगर इतने बड़े वैदिक शास्त्र बलि का विरोध करते हे तो आज के मंदिरों और खास कर माई मंदिरों और शाक्त उपासको द्वारा हो रहे बलि विधानों की प्रमाणिकता प्रश्नीय हे...में दावे के साथ उनको गलत, मुर्ख एवं ढोंगी कहती हु. वह धार्मिक न होकर पाखंडी हे. बलि निषेध हे. हमारा हिन्दू धर्म *"सर्वं खल्विदं ब्रह्मं"* मानने वाला हे..

धन्ना और त्रिलॅचन

*🎌धन्ना और त्रिलॅचन🎌*

          *धन्ना गुरु था और त्रिलोचन शिष्य था। त्रिलोचन ब्राह्मण और धन्ना जाटों के वंश में आया था। धन्ना न सोचा कि त्रिलोचन को जाति का अंहकार है। पर उसे निकालना अर्थात तारना भी अवश्य है। चलो, इसके आगे मूर्ख बन जायें। यह सोचकर एक दिन जब त्रिलोचन ठाकुरों की पूजा कर रहा था तो उससे बोला कि दादा !  पूजा है तो बडी अच्छी, क्या एक ठाकुर मुझे भी दे सकते हो? त्रिलोचन ने जबाब दिया कि हाँ !  एक दुधारु गाय ला दे। धन्ना ने कहा कि दादा !  बहुत अच्छा! घर जाकर गाय ले आया। त्रिलोचन ने यह सोचकर कि यह मूर्ख है, इसे क्या पता कि ठाकुर क्या होता है? एक दुसेरी (दो सेर का) बाट लाकर उसके आगे पटक दिया और कहा कि जा ले जा।*

        *धन्ने को बाट का क्या करना था ?  लाकर रख दिया। एक दिन त्रिलोचन मूर्ति के मुँह से भोग लगाकर खुद खाने लगा तो धन्ना ने कहा, "दादा, ठाकुर के साथ ठगी ?" त्रिलोचन ने कहा, "मै तेरा मतलब नही समझा।" धन्ना ने कहा, "तू ठाकुर को कुछ खिलाता नही। मेरा ठाकुर तो खाता, पीता, हल जोतता, रहट चलाता , मतलब यह कि मेरे सब काम करता है।*

        *त्रिलोचन ने मज़ाक समझा। उसने पूछा कि मुझे दिखायेगा ? धन्ना ने कहा, "मेरे साथ चल, तुझे अभी दिखाता हूँ।" यह कहकर त्रिलोचन को कुएँ पर ले गया। कुएँ की रहट चल रही थी। धन्ना ने कहा, "देख, वह मेरी गाडी पर बैठा हुआ है।" त्रिलोचन के कहा, "मुझे तो नही दिखता।" अब जब डाक्टर फोडे को चीरता है तो उसकी कोशिश होती है कि जरा-सा भी मवाद बाकी न रह जायें।*

        *ठीक इसी प्रकार धन्ना ने त्रिलोजन को झिडकना शुरू किया कि तुझमें यह दोष है! यह कमी है! यह नुक्स है ! उसके बाद उपदेश देना शुरू कर दिया, जैसा कि राजा जनक ने सुखदेव के साथ व्यवहार किया था। आखिर जब सब कुछ साफ हो गया, तो उसे दिखा दिया।*

       *अगर जीव पाँच तत्वों वाला (मनुष्य) होकर एक तत्व वाले पत्थर को पूजें तो कितने अफसोस की बात है। एक तत्व वाला तो कुछ बोलेगा ही नही। सो सब धर्मों में कोई निकृष्ट धर्म है तो पत्थर पूजा है।*

       *सोचो, जिस कारीगर ने छाती पर पैर रखकर छेनियाँ मारी, पैरों के नीचे रौदा, उसने उस कारीगर को नही मारा !  इसके विपरीत, अगर मनुष्य, मनुष्य को पूजता है तो पढे-लिखे लोग कहते है कि यह आदम-परस्ती है।*

      *हुजूर महाराज जी कहते है कि देवी-देवता हमने देखे नही, गाय-भैस की बोली समझ नही आती। मनुष्य - मनुष्य की पूजा क्यों करें?  जबकि आज के समय मे सबके एक जैसे हकूक है। फिर आप समझाते है कि गुरू, हमें उस परमात्मा से मिलने का रास्ता समझाते है, अपनी पूजा के लिए कभी नही कहते। शब्द को ही गुरू कहते है।*

*शब्द गुरू, सुरत धुन चेला।*

      *🙏राधा स्वामी जी 🙏*