Thursday, January 31, 2019

*#कुंभ_मेले का संक्षिप्त इतिहास:*



*#कुंभ_मेले का संक्षिप्त इतिहास:* कुंभ मेले की शुरुआत किसने और कब की:-

देखा जाए तो कुंभ मेले का इतिहास काफी पुराना है. भारत में यह मेला बहुत अनूठा है जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान करते हैं. इसका अपना ही धार्मिक महत्व है और यह संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है. यह मेला लगभग 48 दिनों तक चलता है. मुख्य रूप से दुनिया भर से साधू, संत, तपस्वी, तीर्थयात्री, इत्यादि भक्त इसमें भाग लेते हैं. परन्तु क्या आप कुंभ का अर्थ जानते हैं, इसे क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे का इतिहास क्या है, किसने कुंभ मेले की शुरुआत की इत्यादि आइये लेख के माध्यम से अध्ययन करते हैं.

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है. कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है. ये स्थान हैं: उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज. आपको बता दें कि इस वर्ष कुंभ मेला 15 जनवरी, 2019 को प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में शुरू हुआ है और 4 मार्च, 2019 तक चलेगा. इससे पहले 2003-04 में नासिक - त्र्यंबकेश्वर में कुंभ मेला आयोजित किया गया था.

कुंभ मेले का इतिहास 
कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है. कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था. मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'सभा' या 'मिलना'.

इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है परन्तु इसके बारे में जो प्राचीनतम वर्णन मिलता है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है. पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी. आइये समुद्र मंथन से जुड़ी हुई इस खानी के बारे में अध्ययन करते हैं.

कुंभ मेले का संक्षिप्त इतिहास: कुंभ मेले की शुरुआत किसने और कब की

देखा जाए तो कुंभ मेले का इतिहास काफी पुराना है. भारत में यह मेला बहुत अनूठा है जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान करते हैं. इसका अपना ही धार्मिक महत्व है और यह संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है. यह मेला लगभग 48 दिनों तक चलता है. मुख्य रूप से दुनिया भर से साधू, संत, तपस्वी, तीर्थयात्री, इत्यादि भक्त इसमें भाग लेते हैं. परन्तु क्या आप कुंभ का अर्थ जानते हैं, इसे क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे का इतिहास क्या है, किसने कुंभ मेले की शुरुआत की इत्यादि आइये लेख के माध्यम से अध्ययन करते हैं.

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है. कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है. ये स्थान हैं: उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज. आपको बता दें कि इस वर्ष कुंभ मेला 15 जनवरी, 2019 को प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में शुरू हुआ है और 4 मार्च, 2019 तक चलेगा. इससे पहले 2003-04 में नासिक - त्र्यंबकेश्वर में कुंभ मेला आयोजित किया गया था.

कुंभ मेले का इतिहास 
कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है. कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था. मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'सभा' या 'मिलना'.

इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है परन्तु इसके बारे में जो प्राचीनतम वर्णन मिलता है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है. पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी. आइये समुद्र मंथन से जुड़ी हुई इस खानी के बारे में अध्ययन करते हैं.

ऐसा कहा जाता है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षस ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था. ऐसे में सब देवता मिलकर विष्णु भगवान के पास गए और सारा व्रतांत सुनाया. तब भगवान ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा. ये दूधसागर ब्रह्मांड के आकाशीय क्षेत्र में स

्थित है. सारे देवता भगवान विष्णु जी के कहने पर दैत्यों से संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए. जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गया. इस पर गुरु शंकराचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और राक्षसों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चला रहा. ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध के दौरान प्रथ्वी के चार स्थानों पर अमृत कलश की कुछ बूंदे गिरी थी. जिनमें से पहली बूंद प्रयाग में, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी बूंद उज्जैन और चौथी नासिक में गिरी थी. इसीलिए इन्हीं चार जगहों पर कुम्ब मेले का आयोजन किया जाता है. यहीं आपको बता दें की देवताओं के 12 दिन, पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं. इसलिए हर 12 साल में महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है.

कुंभ मेले का संक्षिप्त इतिहास: कुंभ मेले की शुरुआत किसने और कब की

देखा जाए तो कुंभ मेले का इतिहास काफी पुराना है. भारत में यह मेला बहुत अनूठा है जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान करते हैं. इसका अपना ही धार्मिक महत्व है और यह संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है. यह मेला लगभग 48 दिनों तक चलता है. मुख्य रूप से दुनिया भर से साधू, संत, तपस्वी, तीर्थयात्री, इत्यादि भक्त इसमें भाग लेते हैं. परन्तु क्या आप कुंभ का अर्थ जानते हैं, इसे क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे का इतिहास क्या है, किसने कुंभ मेले की शुरुआत की इत्यादि आइये लेख के माध्यम से अध्ययन करते हैं.

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है. कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है. ये स्थान हैं: उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज. आपको बता दें कि इस वर्ष कुंभ मेला 15 जनवरी, 2019 को प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में शुरू हुआ है और 4 मार्च, 2019 तक चलेगा. इससे पहले 2003-04 में नासिक - त्र्यंबकेश्वर में कुंभ मेला आयोजित किया गया था.

कुंभ मेले का इतिहास 
कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है. कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था. मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'सभा' या 'मिलना'.

इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है परन्तु इसके बारे में जो प्राचीनतम वर्णन मिलता है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है. पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी. आइये समुद्र मंथन से जुड़ी हुई इस खानी के बारे में अध्ययन करते हैं.

ऐसा कहा जाता है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षस ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था. ऐसे में सब देवता मिलकर विष्णु भगवान के पास गए और सारा व्रतांत सुनाया. तब भगवान ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा. ये दूधसागर ब्रह्मांड के आकाशीय क्षेत्र में स्थित है. सारे देवता भगवान विष्णु जी के कहने पर दैत्यों से संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए. जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गया. इस पर गुरु शंकराचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और राक्षसों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चला रहा. ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध के दौरान प्रथ्वी के चार स्थानों पर अमृत कलश की कुछ बूंदे गिरी थी. जिनमें से पहली बूंद प्रयाग में, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी बूंद उज्जैन और चौथी नासिक में गिरी थी. इसीलिए इन्हीं चार जगहों पर कुम्ब मेले का आयोजन किया जाता है. यहीं आपको बता दें की देवताओं के 12 दिन, पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं. इसलिए हर 12 साल में महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है.

जानें समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्न कौन से थे

क्या आप जानते हैं कि दूध सागर के मंथन से एक घातक ज़हर भी उत्पन्न हुआ जिसे भगवान शिव ने बिना प्रभावित हुए पी लिया था.

अब जानते हैं कि कुंभ के आयोजन की तिथि कैसे निर्धारित की जाती है?

किस स्थान पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाएगा यह राशियों पर निर्भर करता है. कुंभ मेले में सूर्य और ब्रहस्पति का खास योगदान माना जाता है. जब सूर्य एवं ब्रहस्पति एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तभी कुंभ मेले को मनाया जाता है और इसी आधार पर स्थान ओत तिथि निर्धारित की जाती है.

- जब ब्रहस्पति वर्षभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है.

- जब सूर्य मेष राशि और ब्रहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है.

- जब सूर्य और ब्रहस्पति का सिंह राशि में प्रवेश होता है तब यह महाकुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है.

- जब ब्रहस्पति सिंह राशि में और सूर्य देव राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है. यहीं आपको बता दें कि जब सूर्य देव सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, इसी कारण उजैन, मध्यप्रदेश में जो कुंभ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं.

कुंभ में कौन से ग्रह महत्वपूर्ण माने जाते हैं?

सारे नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है. जब अमृत कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चल रहा था तब कलश की खींचा तानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया, गुरु ने कलश को छुपाया था, सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की. इसीलिए ही तो जब इन ज्र्हों का योग संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है.

हर तीसरे वर्ष कुंभ का आयोजन होता है. गुरु ग्रह एक राशि में एक साल तक रहता है और हर राशि में जाने में लगभग 12 वर्षों का समय लग जाता है. इसीलिए हर 12 साल बाद उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन किया जाता है. निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीन साल में कुंभ लगता है. प्रयाग का कुंभ के लिए आशिक महत्व है. 144 वर्ष बाद यहां पर महाकुंभ का आयोजन होता है.

कुंभ मेले का संक्षिप्त *#इतिहास:* कुंभ मेले की शुरुआत किसने और कब की

देखा जाए तो कुंभ मेले का इतिहास काफी पुराना है. भारत में यह मेला बहुत अनूठा है जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान करते हैं. इसका अपना ही धार्मिक महत्व है और यह संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है. यह मेला लगभग 48 दिनों तक चलता है. मुख्य रूप से दुनिया भर से साधू, संत, तपस्वी, तीर्थयात्री, इत्यादि भक्त इसमें भाग लेते हैं. परन्तु क्या आप कुंभ का अर्थ जानते हैं, इसे क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे का इतिहास क्या है, किसने कुंभ मेले की शुरुआत की इत्यादि आइये लेख के माध्यम से अध्ययन करते हैं.

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है. कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है. ये स्थान हैं: उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज. आपको बता दें कि इस वर्ष कुंभ मेला 15 जनवरी, 2019 को प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में शुरू हुआ है और 4 मार्च, 2019 तक चलेगा. इससे पहले 2003-04 में नासिक - त्र्यंबकेश्वर में कुंभ मेला आयोजित किया गया था.

*#कुंभ_मेले_का_इतिहास* 
कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है. कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था. मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'सभा' या 'मिलना'.

इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है परन्तु इसके बारे में जो प्राचीनतम वर्णन मिलता है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है. पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी. आइये समुद्र मंथन से जुड़ी हुई इस खानी के बारे में अध्ययन करते हैं.

ऐसा कहा जाता है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षस ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था. ऐसे में सब देवता मिलकर विष्णु भगवान के पास गए और सारा व्रतांत सुनाया. तब भगवान ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा. ये दूधसागर ब्रह्मांड के आकाशीय क्षेत्र में स्थित है. सारे देवता भगवान विष्णु जी के कहने पर दैत्यों से संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए. जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गया. इस पर गुरु शंकराचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया
और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और राक्षसों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चला रहा. ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध के दौरान प्रथ्वी के चार स्थानों पर अमृत कलश की कुछ बूंदे गिरी थी. जिनमें से पहली बूंद प्रयाग में, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी बूंद उज्जैन और चौथी नासिक में गिरी थी. इसीलिए इन्हीं चार जगहों पर कुम्ब मेले का आयोजन किया जाता है. यहीं आपको बता दें की देवताओं के 12 दिन, पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं. इसलिए हर 12 साल में महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है.

अब जानते हैं कि कुंभ के *#आयोजन_की_तिथि कैसे निर्धारित की जाती है?*

किस स्थान पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाएगा यह राशियों पर निर्भर करता है. कुंभ मेले में सूर्य और ब्रहस्पति का खास योगदान माना जाता है. जब सूर्य एवं ब्रहस्पति एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तभी कुंभ मेले को मनाया जाता है और इसी आधार पर स्थान ओत तिथि निर्धारित की जाती है.

- जब ब्रहस्पति वर्षभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है.

- जब सूर्य मेष राशि और ब्रहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है.

- जब सूर्य और ब्रहस्पति का सिंह राशि में प्रवेश होता है तब यह महाकुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है.

- जब ब्रहस्पति सिंह राशि में और सूर्य देव राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है. यहीं आपको बता दें कि जब सूर्य देव सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, इसी कारण उजैन, मध्यप्रदेश में जो कुंभ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं.

*#कुंभ_में_कौन_से_ग्रह_महत्वपूर्ण माने जाते हैं?*

सारे नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है. जब अमृत कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चल रहा था तब कलश की खींचा तानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया, गुरु ने कलश को छुपाया था, सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की. इसीलिए ही तो जब इन ज्र्हों का योग संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है.

हर तीसरे वर्ष कुंभ का आयोजन होता है. गुरु ग्रह एक राशि में एक साल तक रहता है और हर राशि में जाने में लगभग 12 वर्षों का समय लग जाता है. इसीलिए हर 12 साल बाद उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन किया जाता है. निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीन साल में कुंभ लगता है. प्रयाग का कुंभ के लिए आशिक महत्व है. 144 वर्ष बाद यहां पर महाकुंभ का आयोजन होता है.

*#कुंभ_मेलों_के_प्रकार*
महाकुंभ मेला: यह केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह प्रत्येक 144 वर्षों में या 12 पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है.

*#पूर्ण_कुंभ मेला:* यह हर 12 साल में आता है. मुख्य रूप से भारत में 4 कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं. यह हर 12 साल में इन 4 स्थानों पर बारी-बारी आता है.

*#अर्ध_कुंभ मेला:* इसका अर्थ है आधा कुंभ मेला जो भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज.

*#कुंभ_मेला:* चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा आयोजित किया जाता है. लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं.

*#माघ_कुंभ मेला:* इसे मिनी कुंभ मेले के रूप में भी जाना जाता है जो प्रतिवर्ष और केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ के महीने में आयोजित किया जाता है.

कुंभ मेले के बारे में कुछ रोचक तथ्य

कुंभ मेले का संक्षिप्त इतिहास: कुंभ मेले की शुरुआत किसने और कब की

देखा जाए तो कुंभ मेले का इतिहास काफी पुराना है. भारत में यह मेला बहुत अनूठा है जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान करते हैं. इसका अपना ही धार्मिक महत्व है और यह संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है. यह मेला लगभग 48 दिनों तक चलता है. मुख्य रूप से दुनिया भर से साधू, संत, तपस्वी, तीर्थयात्री, इत्यादि भक्त इसमें भाग लेते हैं. परन्तु क्या आप कुंभ का अर्थ जानते हैं, इसे क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे का इतिहास क्या है, किसने कुंभ मेले की शुरुआत की इत्यादि आइये लेख के माध्यम से अध्ययन करते हैं.

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है. कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है. ये स्थान हैं: उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज. आपको बता दें कि इस वर्ष कुंभ मेला 15 जनवरी, 2019 को प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में शु

रू हुआ है और 4 मार्च, 2019 तक चलेगा. इससे पहले 2003-04 में नासिक - त्र्यंबकेश्वर में कुंभ मेला आयोजित किया गया था.

कुंभ मेले का इतिहास 
कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है. कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था. मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'सभा' या 'मिलना'.

इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है परन्तु इसके बारे में जो प्राचीनतम वर्णन मिलता है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है. पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी. आइये समुद्र मंथन से जुड़ी हुई इस खानी के बारे में अध्ययन करते हैं.

ऐसा कहा जाता है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षस ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था. ऐसे में सब देवता मिलकर विष्णु भगवान के पास गए और सारा व्रतांत सुनाया. तब भगवान ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा. ये दूधसागर ब्रह्मांड के आकाशीय क्षेत्र में स्थित है. सारे देवता भगवान विष्णु जी के कहने पर दैत्यों से संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए. जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गया. इस पर गुरु शंकराचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और राक्षसों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चला रहा. ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध के दौरान प्रथ्वी के चार स्थानों पर अमृत कलश की कुछ बूंदे गिरी थी. जिनमें से पहली बूंद प्रयाग में, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी बूंद उज्जैन और चौथी नासिक में गिरी थी. इसीलिए इन्हीं चार जगहों पर कुम्ब मेले का आयोजन किया जाता है. यहीं आपको बता दें की देवताओं के 12 दिन, पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं. इसलिए हर 12 साल में महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है.

जानें समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्न कौन से थे

क्या आप जानते हैं कि दूध सागर के मंथन से एक घातक ज़हर भी उत्पन्न हुआ जिसे भगवान शिव ने बिना प्रभावित हुए पी लिया था.

अब जानते हैं कि कुंभ के आयोजन की तिथि कैसे निर्धारित की जाती है?

किस स्थान पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाएगा यह राशियों पर निर्भर करता है. कुंभ मेले में सूर्य और ब्रहस्पति का खास योगदान माना जाता है. जब सूर्य एवं ब्रहस्पति एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तभी कुंभ मेले को मनाया जाता है और इसी आधार पर स्थान ओत तिथि निर्धारित की जाती है.

- जब ब्रहस्पति वर्षभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है.

- जब सूर्य मेष राशि और ब्रहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है.

- जब सूर्य और ब्रहस्पति का सिंह राशि में प्रवेश होता है तब यह महाकुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है.

- जब ब्रहस्पति सिंह राशि में और सूर्य देव राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है. यहीं आपको बता दें कि जब सूर्य देव सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, इसी कारण उजैन, मध्यप्रदेश में जो कुंभ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं.

कुंभ में कौन से ग्रह महत्वपूर्ण माने जाते हैं?

सारे नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है. जब अमृत कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चल रहा था तब कलश की खींचा तानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया, गुरु ने कलश को छुपाया था, सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की. इसीलिए ही तो जब इन ज्र्हों का योग संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है.

हर तीसरे वर्ष कुंभ का आयोजन होता है. गुरु ग्रह एक राशि में एक साल तक रहता है और हर राशि में जाने में लगभग 12 वर्षों का समय लग जाता है. इसीलिए हर 12 साल बाद उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन किया जाता है. निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीन साल में कुंभ लगता है. प्रयाग का कुंभ के लिए आशिक महत्व है. 144 वर्ष बाद यहां पर महाकुंभ का आयोजन होता है.

कुंभ मेलों के प्रकार
महाकुंभ मेला: यह केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह प्रत्येक 144 वर्षों में या 12 पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है.

पूर्ण कुंभ मेला: यह हर 12 साल में आता है. मुख्य रूप से भारत में 4 कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं. यह हर 12 साल में इन 4 स्थानों पर बारी-बारी आता है.

अर्ध कुंभ मेला: इसका अर्थ है आधा कुंभ मेला जो भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज.

कुंभ मेला: चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा आयोजित किया जाता है. लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं.

माघ कुंभ मेला: इसे मिनी कुंभ मेले के रूप में भी जाना जाता है जो प्रतिवर्ष और केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ के महीने में आयोजित किया जाता है.

कुंभ मेले के बारे में कुछ रोचक तथ्य

- कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक सम्मेलन है जिसे "धार्मिक तीर्थयात्रियों की दुनिया की सबसे बड़ी मंडली" के रूप में भी जाना जाता है.

- कुंभ मेले का पहला लिखित प्रमाण भागवत पुराण में उल्लिखित है. कुंभ मेले का एक अन्य लिखित प्रमाण चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (या Xuanzang) के कार्यों में उल्लिखित है, जो हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान 629-645 ईस्वी में भारत आया था. साथ ही, समुंद्र मंथन के बारे में भागवत पुराण, विष्णु पुराण, महाभारत और रामायण में भी उल्लेख किया गया है.

- चार शहरों में से प्रयागराज, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन, प्रयागराज में आयोजित कुंभ मेला सबसे पुराना है.

- स्नान के साथ कुंभ मेले में अन्य गतिविधियां भी होती हैं, प्रवचन, कीर्तन और महा प्रसाद.

- इसमें कोई संदेह नहीं कि कुंभ मेला कमाई का भी एक प्रमुख अस्थायी स्रोत है जो कई लोगों को रोजगार देता है.

- कुंभ मेले में, पहले स्नान का नेतृत्व संतों द्वारा किया जाता है, जिसे कुंभ के शाही स्नान के रूप में जाना जाता है और यह सुबह 3 बजे शुरू होता है. संतों के शाही स्नान के बाद आम लोगों को पवित्र नदी में स्नान करने की अनुमति मिलती है.

- हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि जो इन पवित्र नदियों के जल में डुबकी लगाते हैं, वे अनंत काल तक धन्य हो जाते हैं. यही नहीं, वे पाप मुक्त भी हो जाते हैं और उन्हें मुक्ति के मार्ग की ओर ले जाता है.

- दुनिया की सबसे बड़ी सभा कुंभ मेले को यूनेस्को की प्रतिनिधि सूची 'मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत' में शामिल किया गया है.

- कुंभ मेला उन तिथियों पर लगता है जब अमृत पवित्र कलश से इन नदीयों में गिरा था. हर साल, तिथियों की गणना बृहस्पति, सूर्य और चंद्रमा की राशि के पदों के संयोजन के अनुसार की जाती है.

- कुंभ का अर्थ है 'अमृत' कलश से. कुंभ मेला की कहानी उस समय की है जब देवता पृथ्वी पर निवास करते थे. वे ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण कमजोर हो गए थे और राक्षस पृथ्वी पर तबाही मचा रहे थे.

तो अब आप जान गए होंगे कि कुंभ मेले का आयोजन कब,कहां और कैसे किया जाता है.

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