💐 विपश्यना करते हुए संवेदनाओ को साक्षी भाव से देखते रहने का प्रयास करते रहने पर भी मन के पुराने स्वभाव के कारण, साधक बहुधा साक्षी भाव को भूलकर फिर भोक्ता भाव में डूब जाता है।
मन भोक्ता भाव का आदि है, दुखद संवेदना हो तो दुःख का आस्वादन, सुखद हो तो सुख का आस्वादन करता रहता है।
हर आस्वादन राग अथवा द्वेष पैदा करता है जिससे की संवेदनाएँ अधिक तीव्र होती हैं। परिणाम स्वरुप और अधिक राग-द्वेष पैदा होता है।
यों दुःख का कुचक्र चल पड़ता है।
🌷अगर इस आस्वादन के भोक्ता भाव को छोड़कर उपेक्षा भाव में, तटस्थ भाव में स्थित होता है तो देखता है की दुःख का कुचक्र रुकता है।
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