स्व-पर गुण दोष दर्शन
मेरे प्यारे साथी साधको।
प्रज्ञा सजग रखते हुए,
आओ, अपने गुण देखें , और अपने दोष भी देखें।
आओ, पराए गुण देखें , और पराए दोष भी देखें।
इसी में व्यवहार जगत की सर्वांगीणता है।
केवल अपने गुण ही गुण देखें और पराये दोष ही दोष देखें तो जीवन-जगत का एकांगी दर्शन होगा।
इसी प्रकार अपने दोष ही दोष देखें और पराए गुण ही गुण देखें तो भी जीवन-जगत का एकांगी दर्शन ही होगा।
यदि हम अपने गुण ही गुण देखें तो अहंभाव से भर जाने का डर है।
यदि अपने दोष ही दोष देखें तो हीनभाव से भर जाने का डर है। दोनों ही अवस्था में में मानसिक समता खो बैठने डर है। भयावह ग्रंथियों में गिरफ़्त हो जाने का ख़तरा है।
इसी प्रकार यदि हम पराये दोष ही दोष देखें तो घृणा से भर जाने का डर है। यदि पराये गुण ही गुण देखे तो ईर्ष्या से भर उठने का डर है। दोनों ही अवस्था में में मानसिक समता खो बैठने डर है। भयावह ग्रंथियों में गिरफ़्त हो जाने का ख़तरा है।
साधारणतया हर व्यक्ति में कमोवेश मात्रा में गुण-दोष दोनों ही होते हैं।
सत्य दर्शन की सम्पूर्णता दोनों को देखने में है। एक पक्षीय दर्शन अतिरंजनाओँ की ओर ले जा सकता है। दूसरे पक्ष को जानबूझकर छुपाए रखने प्रवृत्ति की ओर ले जा सकता है।
अतः दोनो पक्ष देखें, यथाभूत गुण देखें, यथाभूत दोष देखें। अपने भी पराए भी , घटा-बढ़ाकर नहीं देखें। जैसे है, जितने है ; वैसे ही, उतने ही, देखें।
और प्रज्ञापूर्वक भी देखें। कैसे देखें प्रज्ञापूर्वक?
अपने गुण देखकर नम्रता से भर जाए। इन गुणों के संरक्षण और संवर्धन के लिए सचेष्ट हो जाए।
अपने दोष देखकर उनका न्यायीकरण न करने लगें, बल्कि उनके निराकरण में लग जाए।
पराए गुण देखकर मुदिता से भर जाए। स्वयं भी वैसे ही गुण प्राप्त करने की प्रेरणा प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो जाए।
पराए दोष देखकर करुणा से भर जाए, मानो किसी रोगी का रोग देख रहे हों। उस रोगी को रोगमुक्त करने के लिए, उस दोषी को दोषमुक्त करने के लिए हर संभव प्रयत्न करें, साथ- साथ इस बात के लिए भी सजग रहें की कही वह हमें न लग जाय, यह दोष हमें न लग जाय।
यही स्व-पर गुणों को , दोषो को प्रज्ञा-पूर्वक देखना है, जो कि मंगल का स्रोत है।
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श्री सत्यनारायण गोयनका
विपश्यना पत्रिका संग्रह - भाग -१ ( पृष्ट १८७-१८८)
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