ऋषि दुर्वासा और कल्पवृक्ष की कथा!!!!!!!!
एक समय जब श्री रामचंद्र जी का दर्शन करने के लिए अपने साठ हजार शिष्यों सहित दुर्वासा ऋषि अयोध्या को जा रहे थे, तब मार्ग में जाते हुए दुर्वासा ने सोचा कि, मनुष्य का रूप धारण कर यह तो विष्णु जी ही संसार में अवतीर्ण हुए हैं; यह तो मैं जानता हूँ किन्तु संसारी जनों को आज मैं उनका पौरुष दिखलाऊँगा।
अपने मन में ऐसा विचारते हुए वे अयोध्या आए और नगरी में प्रवेश कर सबको साथ लिए भगवान के भवन के आठ चौकों को लाँघकर पहले सीता जी के भवन में पहुँचे। तब शिष्यों सहित दुर्वासा को सीता जी के द्वार पर उपस्थित देख पहरेदारों ने शीघ्रता से दौड़कर श्री रामचंद्र जी को इसकी सूचना दी।
यह सुनते ही भगवान राम मुनि दुर्वासा के पास आ पहुँचे और प्रणाम कर सबको बड़े आदर सहित भवन के भीतर लिवा गये तथा बैठने के लिए सुंदर आसन दिया। तब आसन पर बैठते ही दुर्वासा ने मधुर वचनों में श्री रामचंद्र जी से कहा कि, आज एक हजार वर्ष का मेरा उपवास व्रत पूरा हुआ है। इस कारण मेरे शिष्यों सहित मुझे भोजन कराइये और इसके लिए आपको केवल एक मुहूर्त का समय देता हूँ।
साथ ही यह भी ज्ञात रहे कि मेरा यह भोजन जल, धेनु और अग्नि की सहायता से प्रस्तुत न किया जायेगा। केवल एक मुहूर्त में ही मेरी इच्छानुसार वह भोजन जिसमें विविध प्रकार के पकवान प्रस्तुत हों, मुझे प्राप्त हो। इसके अतिरिक्त यदि तुम अपने गार्हस्थ्य-धर्म की रक्षा चाहो तो शिव पूजन निमित्त मुझे ऐसे पुष्प मँगवा दो कि जैसे पुष्प यहाँ अब तक किसी ने देखे न हों । यदि यह तुम्हारा किया न हो सके, तो मुझसे स्पष्ट कह दो कि, मैं इसमें असमर्थ हूँ । मैं चला जाऊँ।
तब मुनि की इस बात को सुनकर श्री रामचंद्र जी ने मुस्कराते हुए नम्रता से कहा —"भगवान् ! मुझे आपकी यह सब आज्ञा स्वीकार है।" तब राम की बात सुनकर दुर्वासा ने प्रसन्न होकर कहा — मैं सरयू में स्नान करके अभी तुम्हारे पास आता हूँ, शीघ्रता करना। हमारे लिए सब सामग्रियों को प्रस्तुत करने के लिए अपने भाइयों तथा सीता को शीघ्रता के लिए कह देना।
रामचंद्र जी ने कहा —अच्छा, आप जाइये स्नान कर आइये। दुर्वासा जी स्नान करने चले गये । राम चिन्तित हो गये। लक्ष्मण आदि भ्राता, जानकी तथा सब के सब व्याकुल हो राम की ओर निर्निमेष दृष्टि से देखने लगे कि मुनि ने तो इस प्रकार की सब अद्भुत वस्तुएँ माँगी हैं। इसके लिए देखें कि अब भगवान क्या करते हैं?
क्योंकि बिना अग्नि, जल और बिना गौ के उनके लिए किस प्रकार से भोजन प्रस्तुत करते हैं। तब रामचंद्र जी ने लक्ष्मण जी से एक पत्र लिखवाया। फिर उस पत्र को अपने बाण में बाँध कर धनुष पर चढ़ाया और छोड़ दिया । वह बाण वायु वेग से उड़कर अमरावती में इन्द्र की सुधर्मा नामक सभा में जाकर उनके सामने गिर पड़ा।
उस बाण को देखकर इन्द्र व्याकुल हो गये कि यह किसका बाण है? फिर उठाकर जो देखा तो उस पर राम का नाम अंकित था। फिर उसमें बँधे पत्र को खोलकर पढ़ा। पत्र खुलते ही वह बाण फिर वहाँ से उड़कर राम के तरकश में आ घुसा। उधर इन्द्र ने उस पत्र को सभा में बैठे हुए सब देवताओं को सुनाया । उसमें लिखा था — इन्द्र ! स्वर्ग में सुखी रहो। मैं सर्वदा तुम्हारा स्मरण करता हूँ; परंतु तुम्हें एक आज्ञा देता हूँ।
आज 1000 वर्ष के भूखे हुए दुर्वासा मुनि अपने साठ हजार शिष्यों के साथ मेरे यहाँ आए हैं। वे ऐसा भोजन चाहते हैं, जो गऊ, जल अथवा अग्नि के द्वारा सिद्ध न किया हो। इसके साथ ही उन्होंने शिव पूजन के लिए ऐसे पुष्प माँगे हैं जिन्हें कि अब तक मनुष्यों ने न देखा हो। मैंने उनकी यह माँग स्वीकार कर ली है। वे सरयू में स्नान करने गये हैं। इसलिए तुम शीघ्र ही कल्पवृक्ष और पारिजात जो क्षीरसागर से निकले हैं, क्षणमात्र में मेरे पास भेज दो, इसके लिए रावण के संहारक मेरे बाणों की प्रतीक्षा मत करना। यह पत्र देवताओं को सुनाकर इन्द्रदेव तत्क्षण उठ पड़े और कल्पवृक्ष तथा पारिजात को साथ ले देवताओं सहित विमान में बैठकर अयोध्या में आ पहुँचे।
लक्ष्मण जी ने इन्द्र का स्वागत किया। इन्द्र ने राम के पास पहुँच पारिजात और कल्पवृक्ष को राम को अर्पण किया। इतने ही में सरयू तट से दुर्वासा ने अपने एक शिष्य को राम के पास भेजा कि तुम जाकर देखो कि राम इस समय क्या कर रहे हैं? मैंने जो आज्ञा दी है, उसके अनुसार कुछ अन्न अब तक बना है कि नहीं? अब-तक वैसे ही चिन्तामग्न हैं या कुछ कर रहे हैं? यदि मेरी आज्ञानुसार पकवान प्रस्तुत कर रहे हैं तो अब तक कितनी सामग्री तैयार हुई है? यह सब तुम चुपके से देखकर मेरे पास आओ।तब 'जो आज्ञा' ऐसा कहकर वह शिष्य राम के भवन में आया। देखा तो कल्पवृक्ष और पारिजात से युक्त देवताओं की मण्डली में राम विराजमान हैं । यह देखकर उस शिष्य ने शीघ्र ही दुर्वासा के पास जाकर वह समाचार कह सुनाया। शिष्य की यह बात सुनकर दुर्वासा को आश्चर्य हुआ। स्नान कर शिष्यों को साथ ले दुर्वासा ऋषि श्री रामचंद्र जी के सुंदर भवन में आ पहुँचे।
दुर्वासा जी को आया देख देवताओं सहित राम ने उठकर उन्हें तथा उनके सब शिष्यों को बड़े आदर के साथ प्रणाम किया और उत्तम आसन पर बिठाकर सीता तथा लक्ष्मण आदि के साथ उनकी पूजा की, फिर जिन पुष्पों को मनुष्यों ने अब-तक नहीं देखा था, शिव पूजन के हेतु पारिजात के उन पुष्पों को राम ने दुर्वासा के समक्ष प्रस्तुत किया। उन पुष्पों को देख मुनि दुर्वासा ने एक बार तो आश्चर्य किया किन्तु मौन भाव से उन्हें ग्रहण कर शिव जी तथा अन्य देवताओं की उन पुष्पों से पूजा की।फिर उसी क्षण श्री रामचंद्र जी ने लक्ष्मण तथा सीता आदि को सब भोजन परोसने की आज्ञा दी।
तब दिव्य अलंकारों से विभूषित सीता ने कल्पवृक्ष और पारिजात की पूजा कर अनेक पात्रों को लाकर उनके नीचे रख दिया और वह प्रार्थना करती हुयी इस प्रकार बोली कि, हे क्षीरसागर से उत्पन्न होने तथा देवताओं के मनोरथों को पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष !
आज शिष्यों सहित हमारे यहाँ आए हुए दुर्वासा को तुम सन्तुष्ट कर दो। तब सीता के इस प्रकार कहते ही कल्पवृक्ष ने पलमात्र में वहाँ रखे हुए करोड़ों पात्रों को अनेक प्रकार की खाद्य सामग्रियों से पूर्ण कर दिया । फिर तो उन सब अन्नों को उर्मिला सहित सीता ने सुवर्ण के पात्रों में रख रख कर दुर्वासा के समक्ष परोस दिया। फिर तो रामचंद्र से निवेदित दुर्वासा ने अपने शिष्यों के साथ बड़े प्रेम से वह सब भोजन किया। फिर हाथ मुँह धो ताम्बूल तथा दक्षिणा ली,और विदा हो गये।
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