आर्ष रामायण या वाल्मीकि रामायण से शुरू होकर श्रीराम कथा ऐसी फैली कि हर जगह वो किसी ना किसी रूप में घुसी हुई पाई जाती है। महाभारत में एक तो रामोपाख्यान है ही, उसके अलावा आरण्यकपर्व, द्रोण पर्व तथा शांतिपर्व में किसी ना किसी बड़े-छोटे रूप में चार बार राम-कथा वर्णित है। बौद्ध परंपरा में श्रीराम की कहानी से जुड़ा दशरथ जातक, अनामक जातक तथा दशरथ कथानक नाम वाले तीन अलग-अलग जातक मिल जाते हैं। ये सब रामायण से थोड़ा-थोड़ा अलग कहानी भी कहते हैं।
ऐसे ही जैनियों के साहित्य में भी राम कथा संबंधी कई ग्रंथ लिखे गए। विमलसूरि की लिखी पदमचरित्र जो कि प्राकृत में लिखी गई थी, रविषेणाचार्य ने यही कहानी पद्म पुराण नाम से संस्कृत में लिखी। एक स्वयंभू नामक रचनाकार ने पदमचरित्र नाम से इसे अपभ्रंश में लिखा, एक रामचंद्र चरित्र पुराण भी है और गुणभद्र ने उत्तर पुराण नाम से इसे संस्कृत में लिखा। जैन परंपरा के अनुसार राम का मूल नाम 'पदम' था, इसलिए पद्म चरित्र और पद्म पुराण जैसे नाम जैन परम्पराओं में आते हैं।
अन्य भारतीय भाषाओं में भी राम कथा लिखी गई। विकिपीडिया के मुताबिक हिंदी में कम से कम 11, मराठी में 8, बंगला में 25, तमिल में 12, तेलुगु में 12 तथा उडिया में 6 रामायणें मिलती हैं। हाल में ही ऐसी ही तीन सौ रामायणों का जिक्र मनमाने तरीके से करने वाली एक धार्मिक सी किताब पता नहीं क्यों, यूनिवर्सिटी में पढ़ाई जा रही थी। धर्मनिरपेक्ष होने का ढोंग रचाने वाले विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से इसे काफी विवाद के बाद ही बाहर किया जा सका।
हिंदी के एक पूर्ववर्ती रूप में लिखित गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस ने उत्तर भारत में विशेष स्थान पाया। भारतीय भाषाओँ के अलावा भी जावा कम्बोडिया से लेकर, अरबी, फारसी आदि भाषाओं में राम कथा लिखी गई। स्वामी करपात्री जी ने रामायण मीमांसा की रचना करके उसमें रामगाथा को एक वैज्ञानिक आयाम देने की कोशिश की। अभी प्रचलित राम की कथाओं में आर्ष रामायण, अद्भुत रामायण, कृत्तिवास रामायण, उत्तर रामचरितम्, रघुवंशम्, कम्ब रामायण, अध्यात्म रामायण, श्रीराघवेंद्रचरितम्, योगवाशिष्ठ रामायण, हनुमन्नाटकम्, आनंद रामायण, आदि प्रचलित हैं।
इन सभी को छोड़ दें तो भी लोककथाओं, दन्तकथाओं, किम्वदन्ती, मौखिक परम्पराओं के इतने किस्से हैं कि गिनना मुश्किल हो जाए। किस कहानी को आधार बनाकर बाद की कौन सी रामायण या रामकथा लिखी गई है वो जोड़ना और भी मुश्किल है। एक जो चीज जोड़ना आसान है वो ये है कि आज की हिंदी नयी है और बांग्ला उस से पुरानी। तो हिंदी के कई कवियों ने जब लिखा तो उनका आधार बांग्ला की कोई रामायण थी। जैसे कि "राम की शक्तिपूजा" की कहानी का आधार, बांग्ला में लिखी कृत्तिवास रामायण में है।
कृत्तिवास रामायण या 'श्रीराम पाँचाली' की रचना पन्द्रहवीं शती के बांग्ला कवि कृत्तिवास ओझा ने की थी। यह संस्कृत के अतिरिक्त अन्य उत्तर-भारतीय भाषाओं का पहला रामायण है। ये रामचरितमानस से लगभग सौर साल पुराना है। इसके रचयिता संत कृत्तिवास बंग-भाषा के आदिकवि माने जाते हैं। माना जाता है कि वो छंद, व्याकरण, ज्योतिष, धर्म और नीतिशास्त्र के पण्डित थे और राम-नाम में उनकी बड़ी आस्था थी। ये मूल रामायण का कोई बांग्ला अनुवाद नहीं बल्कि तत्कालीन बंगाली समाज पर आधारित ग्रन्थ है।
रामायण की तरह सात के बदले इस महाकाव्य में छः काण्ड (आदि काण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्य काण्ड, किष्किन्धा काण्ड, सुन्दर काण्ड और लंका काण्ड) हैं। इसके लिखे जाने तक बंगाल में पाल वंश का शासन ख़त्म हुए ज़माना बीत गया होगा। इसलिए कह सकते हैं कि जैन काल आकर जा चुका था लेकिन परम्पराओं में राम के नाम का "पद्म", यानि कमल होना शायद बाकी दिख जाता है। इसी श्रीराम पांचाली के प्रभाव से "राम की शक्तिपूजा" में निराला राम को कमल-नयन बताते हैं।
शक्ति की पूजा की परंपरा बंग-प्रान्त में उस काल में भी प्रचलित रही होगी, तभी साहित्य में आई ये भी अंदाजा लगाया जा सकता है। पूजा में कमल के पुष्प कम पड़ने पर राम का अपनी आँख निकाल के चढ़ाने को प्रस्तुत होने पर लिखी हुई ये अद्भुत "राम की शक्तिपूजा" भी पढ़ने लायक कविता है। इसे 'अकाल-बोधन' भी कहते हैं। हाँ इतने लम्बे आलाप के बाद भी हम ये नहीं बता सकते कि रावण के श्री राम का पुरोहित होने की बात कौन सी किम्वदन्ती, या किस राम कथा के पाठ से आई है। तो ऐसे सवाल के लिए बताने वाले से ही जानकारी का स्रोत भी पूछ लें।
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आनन्द कुमार
रामायण एक बार नहीं कई बार लिखी गई है | वाल्मीकि रामायण के बाद अलग अलग समय में अलग अलग लोगों ने अपने अपने हिसाब से इसकी व्याख्या, इसकी कहानी लिखी | समय, स्थान, व्यक्तिगत अभिरुचियों के हिसाब से इसमें अंतर भी आये | इसलिए तकनिकी रूप से हर किताब को रामायण कहते भी नहीं | कुछ ख़ास नियमों के पालन पर ही रामायण बनती है | जैसे अगर जैन धर्म में चलने वाली राम कथा देखेंगे तो उसमें कहानी थोड़ी अलग है | आज के विदेश यानि जैसे बर्मा, इंडोनेशिया, कंबोडिया, लाओस, थाईलैंड, जापान जैसी जगहों पर चलने वाली राम कथा भी रामायण से थोड़ी अलग होती है |
सबसे प्रचलित राम कथाओं में तुलसीकृत रामचरितमानस का नाम शायद सबसे ऊपर आएगा | ये ऐसी भाषा में लिखा गया है जिसे याद रखना काफी आसान है | उसके अलावा इसके हनुमान चालीसा जैसे हिस्से कई लोगों को जबानी याद होते हैं इसलिए भी ये सबको जाना पहचाना लगता है | तुलसीदास के बारे में मान्यता है कि उनके ज़माने के पंडित उन्हें कोई सम्मान नहीं देते थे | उन्हें रामायण पर कुछ भी लिखने का अधिकारी ही नहीं मानते थे !
उनकी लिखी रामचरितमानस में भी कथाक्रम वाल्मीकि रामायण से भिन्न था | कहते हैं जांच के लिए जब उस काल में लिखी रामायणों को रखा गया तो पंडित जन तुलसीदासजी की किताब राम कथाओं के ढेर में सबसे नीचे रख देते | शाम में कपाट बंद होते, अगली सुबह जब कपाट खुलते तो रामचरितमानस सबसे ऊपर आ गई होती ! एक दो बार तो सबने अनदेखा किया मगर बार बार कब तक एक अच्छी किताब को दबाते ? आखिर सबको मानना ही पड़ा कि रामचरितमानस अच्छी है | बाकी जो उसकी जगह थी वो हिन्दू जनमानस ने उसे दे ही रखी है |
जैसे ये रामचरितमानस के ऊपर आ जाने की लोक कथा है वैसे ही, कई शेखुलर ताकतों के दुष्प्रचार के वाबजूद अजीब अजीब से सवाल सर उठाते ही रहते हैं | जैसे शुरुआत का ये कपट था कि आर्य कहीं बाहर से आये और उन्होंने द्रविड़ों को अपना गुलाम बना लिया | लेकिन इतिहास के नाम पर परोसे गए टनों लुगदी साहित्य के नीचे से सत्य फिर से सर निकाल लेता था ! एक तो मध्य प्रदेश की गुफाओं में भित्तिचित्र दिखा देते हैं कि भारतीय लोग पहले से ही घोड़े पालते थे इसलिए सिर्फ घुड़सवार, रथारूढ़ हमलावरों का उनसे जीत जाना संभव नहीं लगता | ऊपर से वो जिस रास्ते से रथारूढ़ आर्यों का आना बताते हैं वो रास्ता भी रथ के लायक नहीं |
ऐसी ही कुछ बातों के आधार पर बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपनी किताबों में लिखा कि आर्य कहीं बाहर से आये लोग नहीं थे |
एक ऐसा ही अन्य झूठ भाषा को लेकर भी चलाया जाता रहा | वेटिकन पोषित शेखुलर ताकतें बरसों इस मिथ्या प्रचार में लगी हैं कि संस्कृत एक मृत भाषा है | हिन्दुओं की इस भाषा को कुचलने के लिए कई आर्थिक अवरोध भी खड़े किये गए | आज की तारिख में संस्कृत के शिक्षकों की सरकारी तनख्वाह भी अन्य भाषा के शिक्षकों से कम है | विदेशी भाषाओँ को सीखने में ज्यादा फायदा है कहकर भारत के एक बड़े वर्ग को बरगलाने की कोशिश भी की जाती रही | लेकिन जनसाधारण ने अभिजात्य दलालों के प्रयासों को कभी कामयाब नहीं होने दिया है | सत्ता पोषित, वेटिकेन फण्ड पर अघाए, हिन्दू हितों को हड्डियों की तरह चबाने के प्रयासों में लगे इन कुत्तों पर जब तब लट्ठ पड़ते ही रहे हैं |
अब समय है कि हम ऐसे प्रयासों को तेज करें | कल तक सोशल मीडिया के अभाव में जो आवाज दबा दी जाती है उसकी गूँज धमाकों की तरह सुना कर विदेशी डीएनए धारकों के कान फाड़ने होंगे | सुधर्मा संस्कृत दैनिक एक ऐसे ही प्रयास में पिछले चार दशकों से भी ज्यादा से लगा हुआ है | वो विश्व का इकलौता संस्कृत दैनिक निकालते हैं | आइये उनके इस महती कार्य में योगदान करें | एक छोटा सा गिलहरी प्रयास भी रामसेतु बनाने में मायने रखता है |
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सुगन्धा शर्मा
"मोरे राम के भीजे मुकुटवा
लछिमन के पटुकवा
मोरी सीता के भीजै सेनुरवा
त राम घर लौटहिं।"
(भावार्थ - मेरे राम का मुकुट भीग रहा होगा, मेरे लखन का पटुका (दुपट्टा) भीग रहा होगा, मेरी सीता की माँग का सिंदूर भीग रहा होगा, मेरे राम घर लौट आते।)
अपने एक लेख में विद्यानिवास मिश्र ये भजन / लोकगीत लिखते हैं। लेख लिखते समय की स्थिति कुछ ऐसी थी कि उनके सुपुत्र अपनी कृष्णा नाम कि अतिथि के साथ किसी संगीत के कार्यक्रम में गए थे। ये मोबाइल और इन्टरनेट का दौर नहीं था। लाइसेंस-परमिट राज में सबके पास कार-स्कूटर जैसे वाहन भी नहीं होते थे। घर पर बेटे और उस अतिथि लड़की की प्रतीक्षा करते लेखक और उनकी पत्नी चिंतित हो रहे थे। बारह बजे तक लौट आने की कह गए दोनों लोग जब समय पर नहीं लौटे तो मिश्र अपनी पत्नी को ये कहकर सुला देते हैं कि संगीत में समय का अक्सर पता नहीं चलता।
वो खुद प्रतीक्षा में ऊपर की मंजिल पर बैठे होते हैं और हर आहट पर सोचते हैं कि शायद वही लोग आये। संगीत में मन भीगता होगा सोचते हुए वो ये भी सोचने लगते हैं कि लाखों-करोड़ों कौशल्याओं के राम घर नहीं आये। बिहार की दस-बारह करोड़ की आबादी में करीब तीन करोड़ प्रवासी हैं, मेरे लिए ये अलंकार समझना मुश्किल नहीं था। किसी के घर जाने पर अक्सर तस्वीरों से परिचय करवाया जाता है। कोई बड़ा बेटा है जो बंगलौर की किसी बड़ी कम्पनी में है, कोई कतर गए दामाद जी के साथ गयी हुई बेटी-नाती की तस्वीर है। दीपावली-छठ के दौर में बिहार को आती कोई ट्रेन देख लीजिये, कई कौशल्याओं के राम घर नहीं लौटे।
गीत में राम के भीगने की बात भी नहीं, उनके मुकुट के भीगने की बात होती है। लक्ष्मण नहीं, उनका पटुका- दुपट्टा और सीता भी नहीं उनका सिन्दूर भीगता है। हमारे ख़याल से वन में राम मुकुट तो नहीं धारण करते होंगे। फिर मुझे अंग्रेजी की "अनइजी लाइज द हेड देट वेअर्स अ क्राउन" याद आता है। मुकुट जिम्मेदारियों के बोझ का भी प्रतीक है। तभी रामनवमी से पहले राम का मुकुट पूजा जाता है। सुरक्षा-सुविधा के लिए नियुक्त लक्ष्मण का भी दुपट्टा भीगता है। विवाह से जुड़े कर्तव्यों का प्रतीक, सीता का सिन्दूर भी भीगता है। कौशल्या इसलिए चिंतित नहीं कि उसके राम भीगेंगे, वो कठिन परिस्थिति में कर्तव्य तो नहीं भूल गए, ये कौशल्या की चिंता है!
कहते हैं कि दीपावली शुरू ही इसलिए हुई क्योंकि इस दिन राम लौटकर अयोध्या आये थे। शबरी की प्रसिद्ध सी कहानी में बताते हैं कि कहीं बेर खट्टे न हों, इसलिए वो सारे बेर चखकर लायी थी। कहते हैं कि सरस्वती कहलाने वाले ब्रह्मचारियों को अच्छी सुगंध तो मिलती है, दुर्गन्ध उनतक पहुँच ही नहीं पाती! अवतार को भला खट्टा क्या लगता? उनके छू देने से बेर मीठे नहीं हो जाते? भक्त का भाव था, अपने कर्तव्य का निर्वहन किया। बदले हुए नामों से कहीं लौटने में दिक्कत न हो इसलिए अयोध्या का नाम फिरसे अयोध्या ही कर दिया है। अवतार को दिक्कत क्या होती? भक्त का कर्तव्यभाव ही था।
राज्याभिषेक के बदले जब राम चले जाते हैं, उसके लिए कहा गया है, "घर मसान परिजन जनु भूता, सुत हित मीत मनहुँ जमदूता। वागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं, सरित सरोवर देखि न जाहीं।" यानि, घर मसान हो गया है, अपने ही लोग भूत-प्रेत बन गए हैं, पेड़ सूख गए हैं, लताएँ कुम्हला गई हैं। नदियों और सरोवरों को देखना भी दुस्सह हो गया है। केवल इसलिए कि जिसका ऐश्वर्य से अभिषेक हो रहा था, वह निर्वासित हो गया। ऐसा कोई लौटता हो तो तैयारियां कैसी होंगी? भारत का हर घर दीपावली में वैसी ही तैयारियां करता है। वन्दनवार सज जाते हैं, रंग-रोगन और सफाई होती है, अल्पना-रंगोली बनती है।
अयोध्या की तरह तीन लाख दीपों का कीर्तिमान बने न बने, यथासंभव रौशनी भी कर दी जाती है। इतने सब के बाद भी लगता है, अभी कोई काम तो हुआ ही नहीं! आने का समय हो गया और सब अधूरा-बिखरा ही पड़ा है! सरयू तट पर दीप जलाकर पीछे मुड़ते ही दिखता है कि मंदिर तो बना ही नहीं। कोई पूछता है कि जो आ गए तो ठहरेंगे कहाँ? हम "राम ह्रदय में बसते हैं" कहकर फुसला लेते हैं। दीपावली कि तिथि अमावस्या की अँधेरी रात की ही होती है। दीप जलते हैं तो कम से कम उतना अँधेरा नहीं होगा लेकिन अभी काम बहुत सा बाकी ही है और राम प्रतीक्षारत हैं।
हमें भी जानना था कि "किस ओर राम मुड़े होंगे, बारिश से बचने के लिए? किस ओर? किस ओर?" मोरे राम के भीजे मुकुटवा......
आयातित विचारधारा के प्रवर्तकों की जीत और तथाकथित राष्ट्रवादियों की मूर्खता का एक विकट उदाहरण अभी अभी नजर आ गया | आपको भी देखना हो तो चलिए एक छोटे से प्रश्न का जवाब सोचिये | बताइये राम कहाँ के राजा थे ?
अयोध्या सोच लिया जवाब में ?
बहुत अच्छे ! अब रामचरितमानस का एक सुना सुनाया सा दोहा याद कीजिये "प्रविसी नगर कीजे सब काजा | ह्रदय राखी कोसलपुर राजा ||" ये जो कौशल पूरी तक के राजा को सिर्फ उनकी राजधानी अयोध्या तक समेटा ना, यही आयातित विचारधारा की जीत है |
बाकी कुछ तीस मार खान जो वर्तनी के सुधार या मुझे पता था जैसा कुछ सोच रहे हैं उनसे निवेदन है कि एक बार घर के अन्य सदस्यों, आस पास बैठे लोगों से पूछिए यही सवाल | आप अपने "ज्ञान" को कहाँ तक फैला पाए ?
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आनन्द कुमार
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